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2021 में राजनीति: 'खेला होबे' से लेकर मोदी सरकार की मजबूरी, क्या-क्या हुआ इस साल

साल 2021 राजनीतिक घटनाओं के लिए अभूतपूर्व रहा.

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साल 2021 कई मायनों में 2020 की फोटो कॉपी ही थी. चाहे कोरोनावायरस (Coronavirus) का कहर हो या आंदोलन या महंगाई, सब बदस्तूर जारी रहा. लेकिन ये साल राजनीतिक घटनाओं के लिए अभूतपूर्व रहा. आप पूछेंगे कैसे? दरअसल, बहुमत की ताकत के सामने किसी को कुछ न समझने वाली सरकार को अगर घुटने टेकने पड़े तो अभूतपूर्व साल नहीं तो और क्या ही कहेंगे? साल 2021 ने किसी राजनीतिक दल को गहरा जख्म दिया तो किसी के लिए दवा का काम किया.

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चलिए आपको साल 2021 की राजनीतिक सैर कराते हैं, जिसमें वो-वो हुआ जो किसी ने सोचा नहीं होगा.

1. किसान आंदोलन - इतिहास याद करेगा

साल 2020 में केंद्र सरकार तीन कृषि कानून लेकर आई थी, जिसके विरोध में हजारों किसान दिल्ली की सरहदों पर विरोध प्रदर्शन करने लगे. आंसू गैस के गोले, डंडे, वॉटर केनन, सड़क पर गड्ढे, बैरिकेडिंग. किसानों को रोकने के लिए हर रास्ते अपनाए गए. लेकिन किसान डटे रहे. कृषि मंत्री से लेकर सत्ता पक्ष के बड़े नेता कहते रहे कि किसी भी हालत में कृषि कानून वापस नहीं होंगे.

साल 2021 के जनवरी महीने में देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट को बीच में आना पड़ा. चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने कहा, "हम तीनों कृषि कानूनों पर अगले आदेश तक रोक लगा रहे हैं."

लेकिन फिर भी कृषि कानून के खिलाफ किसान आंदोलन जारी रहा. साथ ही सरकार और किसान संगठनों के बीच बैठकों के राउंड हुए लेकिन सरकार कृषि कानून वापस लेने को तैयार नहीं हुई. फिर करीब सात महीनों तक सरकार और किसानों के बीच कोई बैठक नहीं हुई. सरकार ने साफ कह दिया था कि कृषि कानून वापस नहीं होंगे. लेकिन 19 नवंबर 2021 को वो हुआ जो बीजेपी समर्थकों ने कभी सोचा भी नहीं होगा.

पीएम मोदी ने देश को संबोधित किया और ऐलान किया कि मोदी सरकार कृषि कानूनों को वापस लेगी. सरकार किसानों के संकल्प के आगे बौनी नजर आई. किसान अभी बातों से कहां मानने वाले थे. उन्होंने अपनी सभी मांगों के माने जाने तक धरने की बात कही. सरकार के पास किसान संगठनों की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं दिख रहा था. सरकार ने किसानों की बात मानी और फिर ऐतिहासिक आंदोलन दिसंबर के महीने में स्थगित हो गया. सरकार हार गई, किसान जीत गए के नारे गूंजने लगे. ये नारे इसलिए गूंज रहे थे क्योंकि जो मोदी सरकार कृषि कानून पर एक कदम पीछे हठती नहीं दिख रही थी वो किसान आंदोलन के सामने झुक गई.

2. खेला होबे वाली दीदी का जलवा, बीजेपी हो गई ढेर

इस साल गर्मी ने वक्त से पहले ही एंट्री मारी. बंगाल में राजनीतिक पारा हाई था. मार्च से लेकर मई के महीने में बंगाल ही चर्चे में था. और साथ ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दिया नारा ‘खेला होबे’ तो सबकी जुबान पर. और खेला हुआ भी.

बंगाल चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस यानी टीएमसी के दर्जनों नेता बीजेपी में शामिल हो गए. मीडिया ने माहौल बना दिया कि बीजेपी चुनाव जीत रही है. ईडी से लेकर सीबीआई एक्टिव हो गई थी. टीएमसी से जुड़े लोग उनकी रडार पर थे. लेकिन जमीनी माहौल कुछ और था. जो बीजेपी के समर्थक पार्टी को अजय मान रहे थे, जिन्हें लगता था कि बीजेपी को हराना नामुमकिन है उनका भ्रम टूट गया. दीदी का जलवा कायम रहा. सत्ता में एक बार फिर तृणमूल कांग्रेस की वापसी हुई और बीजेपी की हार. ममता बनर्जी ने लगातार तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली.

भले ही ममता बनर्जी की पार्टी सत्ता में वापस आ गई हो, लेकिन दीदी का मन खट्टा जरूर हो गया. नंदीग्राम सीट पर ममता बनर्जी के पूर्व साथी और बीजेपी में गए शुभेंदु अधिकारी ने दीदी को हरा दिया. 294 सदस्यीय विधानसभा में 213 सीट पर टीएमसी तो बीजेपी 77 सीट हासिल हुई. इसी तरह साल 2021 भारत की राजनीति में न भूलने वाला साल बन गया.

ममता बनर्जी के इस जीत ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अपने पांव पसारने की ताकत दे दी. ममता बनर्जी ने बीजेपी को हराकर विपक्ष की सबसे बड़ी नेता के तौर पर खुद को स्थापित कर दिया.

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3. पेगासस- जासूसी का खेल

फोन टैपिंग, हैकिंग, जासूसी, ये शब्द साल 2021 में खूब सुर्खियों में रहे. वजह था पेगासस स्पाईवेयर. दरअसल, जुलाई के महीने में पेगासस (Pegasus) का काला पिटारा खुला. फ्रांस की संस्था Forbidden Stories और एमनेस्टी इंटरनेशनल (Amnesty international) ने मिलकर बताया कि इजरायली कंपनी NSO के स्पाइवेयर पेगासस के जरिए दुनिया भर की सरकारें पत्रकारों, कानूनविदों, नेताओं और यहां तक कि नेताओं के रिश्तेदारों की जासूसी करा रही हैं. निगरानी वाली पहली लिस्ट में 40 भारतीयों का नाम था.

विपक्षी पार्टियों ने सरकार को संसद में घेरना शुरू कर दिया. संसद ठप हुआ. राहुल गांधी फुल एक्शन में दिखे. संसद के अंदर से लेकर बाहर तक सरकार पर अटैक करते रहे. विपक्षी पार्टियां संसद में सरकार को घेरने की स्ट्रैटेजी बनाती रहीं. हल्ला हुआ तो भारत सरकार ने पूरी तरह से पल्ला झाड़ लिया. तमाम बड़े केंद्रीय मंत्रियों और प्रवक्ताओं ने कहा है कि कोई जासूसी हुई ही नहीं.

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई. सीनियर पत्रकार एन राम और शशि कुमार, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया , CPI(M) से राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास, वकील एमएल शर्मा और पत्रकार परंजॉय ठाकुरता के साथ एसएनएम आब्दी, प्रेम शंकर झा, रूपेश कुमार सिंह और एक्टिविस्ट इप्सा शताक्षी ने ये याचिका दाखिल की.

पेगासस जासूसी मामले में 27 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार को बड़ा झटका लगा. सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस मामले में अहम आदेश दिया और इसकी जांच के लिए एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने तब कहा कि हमने लोगों को उनके मौलिक अधिकारों के हनन से बचाने से कभी परहेज नहीं किया. निजता केवल पत्रकारों और नेताओं के लिए नहीं, बल्कि ये आम लोगों का भी अधिकार है. कोर्ट ने कहा कि लोगों की विवेकहीन जासूसी बिल्कुल मंजूर नहीं.

लेकिन मोदी सरकार इस मामले पर ना हां कह रही है ना ही ना. कुल मिलाकर ये मामला फिलहाल शांत नजर आ रहा है.

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4. मुख्यमंत्री बदलो अभियान

साल 2021 की राजनीति में मुख्यमंत्री बदलो अभियान भी देखा. इस अभियान को पक्ष-विपक्ष सबने अपनाया. एक राज्य में तो मुख्यमंत्री बदलो अभियान को दो-दो बार लागू करना पड़ा. मतलब एक ही साल में एक राज्य में दो बार सीएम बदल दिए गए. पहेली नहीं बुझाते हैं और सीधा मुद्दे पर आते हैं.

साल 2021 में भारतीय जनता पार्टी ने तीन राज्यों- कर्नाटक, गुजरात और उत्तराखंड में अपने मुख्यमंत्रियों को बदल दिया.

कर्नाटक की बात करें तो इसी साल जुलाई महीने में बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया. उनकी जगह पार्टी ने बसवराज बोम्मई को नया मुख्यमंत्री बनाया. फिर सितंबर के महीने में बीजेपी ने गुजरात के सीएम विजय रूपाणी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और उनकी जगह भूपेंद्रभाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया. विजय रूपाणी 2016 में राज्य के मुख्यमंत्री बने थे. यहां सिर्फ सीएम ही नहीं पूरा का पूरा मंत्रिमंडल ही बदल दिया गया.

अब उत्तराखंड में तो कमाल ही हो गया. उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं और चुनाव से पहले एक साल के अंदर बीजेपी ने अपने 2 मुख्यमंत्री बदल दिए. पहले मार्च में त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया फिर जुलाई में तीरथ सिंह रावत की छुट्टी हुई और पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया.

अब इस रेस में कांग्रेस कहां पीछे हटने वाली थी. पंजाब कांग्रेस में नवजोत सिंह सिद्दू बनाम कैप्टन अमरिंदर सिंह की जंग शुरू हुई तो कांग्रेस ने कैप्टन को किनारे कर दिया. चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के नए मुख्यमंत्री बन गए. फिर क्या था कैप्टन साहब ने कहा मुझे अपमानित किया गया है और फिर अपनी पार्टी बनाने में लग गए. अब सिद्धू साहब बनाम चन्नी का मैच चल रहा है. पंजाब में कुछ महीनों के बाद विधानसभा चुनाव होने हैं ऐसे में सिद्धू की नजर सीएम की कुर्सी पर है और कांग्रेस की नजर पंजाब में दोबारा जीत पर.

लेकिन सवाल यहां उठता है कि क्या ये मुख्यमंत्री बदलो अभियान जवाबदेही से बचने का आसान तरीका है? जनता हिसाब किस्से मांगे? काम खराब हुआ तो नेता जिम्मेदार, अच्छा हुआ तो पार्टी और आलाकमान का कमाल?

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12 सांसद सस्पेंड

संसद के मॉनसून सत्र के आखिरी दिन यानी 11 अगस्त को इंश्योरेंस बिल पर चर्चा के दौरान राज्यसभा में जमकर हंगामा हुआ था. संसद के अंदर विपक्षी सांसदों और मार्शलों के बीच जमकर खींचातानी हुई थी. उस वक्त राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने इस घटना की निंदा की तो विपक्षी पार्टियों ने महिला सांसदों के साथ बदसलूकी का भी आरोप लगाया था. आरजेडी के सांसद मनोज झा ने कहा कि इंश्योरेंस बिल संसद ने नहीं पास किया, मार्शल लॉ ने पास किया है.

लेकिन जब संसद में दोबारा शीतकालीन सत्र में शुरू हुआ तब कांग्रेस, शिवसेना, टीएमसी, सीपीआई और सीपीएम के कुल 12 सांसदों को पूरे शीतकालीन सत्र से सस्पेंड कर दिया गया. फिर क्या था हंगामा हुआ. सांसद धरने पर बैठे, विरोध किया. केंद्र सरकार ने कहा कि सस्पेंड किए गए सांसदों को माफी मांगनी होगी, उसके बाद ही निलंबन वापस होगा.

अब अगर बिल पर बहस नहीं होंगे, सांसद संसद से बाहर होंगे तो क्या संसद एकतरफा बिल पास कराने की जगह बन गई है, जहां विपक्ष और सरकार जनता की हित पर बात भी न करें? इन सबके बीच न सांसदों ने माफी मांगी न सस्पेंशन कैंसिल हुआ. हां, संसद का सत्र जरूर खत्म हो गया. और अब साल 2021 भी अपने पीछे बहुत सी कहानी छोड़कर खत्म हो चला है.

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