पिछले 19 दिनों से किसान कृषि कानूनों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. सरकार के प्रस्ताव को ठुकराने के बाद किसानों की सिर्फ एक ही मांग है कि कृषि कानूनों को किसी भी तरह से रद्द कर दिया जाए. उससे कम कुछ भी मंजूर नहीं है. सरकार के रुख के बाद किसानों ने अब अपने आंदोलन को तेज करना भी शुरू कर दिया है. वहीं मोदी सरकार भी अब प्रदर्शनकारी किसानों की बजाय उन किसानों की तरफ देख रही है, जो उनके कानूनों के समर्थन में हैं.
कानून रद्द कराने की मांग पर अड़े किसान
केंद्र सरकार किसानों से कह चुकी है कि वो प्रस्ताव के मुताबिक कानूनों में बदलाव करने के लिए तैयार हैं, लेकिन किसानों का कहना है कि जब इन कानूनों में इतनी खामियां हैं तो इन्हें वापस क्यों नहीं लिया जा रहा है. जब तक ये कानून वापस नहीं लिए जाते हैं वो दिल्ली और उसकी सीमाओं पर ही डेरा जमाए रखेंगे. वहीं किसानों की एमएसपी को लेकर भी मांग है कि सरकार इस पर कानून बनाए, जिससे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मिल सके.
किसान अब अपनी मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन को तेज कर रहे हैं, 14 दिसंबर को किसान नेताओं ने भूख हड़ताल की और अनशन पर बैठ गए. इस दौरान किसानों ने फिर एक बार साफ किया कि वो केंद्र के आगे नहीं झुकने वाले हैं और तैयारी लंबी है.
हर विकल्प तलाश रही केंद्र सरकार
अब केंद्र सरकार पिछले 19 दिनों से चल रहे इस प्रदर्शन को खत्म करवाने के लिए हर विकल्प तलाश कर रही है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जब आखिरी बार किसानों से मुलाकात की थी तो वो केंद्र के साथ आखिरी मुलाकात थी. उसके ठीक अगले दिन केंद्र की तरफ से संशोधन को लेकर एक प्रस्ताव आया, जिसे किसान नेताओं ने खारिज कर दिया. अब फिर से अमित शाह इस मामले को लेकर एक्टिव हैं और उन्होंने केंद्रीय कृषि मंत्री के साथ इस मामले को लेकर बैठक भी की है.
वहीं दूसरे विकल्प के तौर पर सरकार अब उन किसानों को बातचीत के लिए बुला रही है, जो कृषि कानूनों और सरकार का समर्थन कर रहे हैं. कई ऐसे किसान संगठन पहले भी केंद्रीय मंत्रियों के साथ बैठक कर चुके थे, लेकिन अब हरियाणा, बिहार, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल जैसे तमाम राज्यों के किसान नेताओं ने एक बार फिर कृषि मंत्री के साथ बैठक की.
यानी अब अगर केंद्र सरकार अपने कानूनों के समर्थन में ज्यादा से ज्यादा किसान संगठनों को खड़ा कर देती है तो कहीं न कहीं प्रदर्शन कर रहे किसानों का आंदोलन कमजोर पड़ेगा. दूसरी तरफ पूरे देश में भी ये मैसेज जाएगा कि ज्यादातर किसान कानूनों के पक्ष में हैं और प्रदर्शन की वजह कोई और है.
चौटाला का क्या है स्टैंड?
अब हरियाणा के डिप्टी सीएम और जेजेपी नेता दुष्यंत चौटाला के लिए ये प्रदर्शन गले की हड्डी बन चुका है. क्योंकि अगर वो खुलकर किसानों का समर्थन करते हैं तो सत्ता में काबिज और सहयोगी दल बीजेपी के खिलाफ जाएंगे. वहीं अगर किसानों के खिलाफ जाते हैं तो उनके भविष्य के लिए ये एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है. क्योंकि चौटाला का बड़ा वोट बैंक किसान हैं. साथ ही खाप पंचायतों में भी चौटाला के खिलाफ माहौल बनता नजर आ रहा है. ऐसे में चौटाला लगातार केंद्रीय मंत्रियों से बातचीत कर ये दिखा रहे हैं कि वो किसानों के मुद्दे का जल्द से जल्द हल निकालने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन जब पूछा जा रहा है कि क्या वो खट्टर सरकार से समर्थन वापस लेंगे, तो इस सवाल पर वो कह रहे हैं कि उन्हें मोदी सरकार पर भरोसा है कि वो किसानों के हित में सोचेगी. अब चौटाला की केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से मुलाकात हुई है. देखना ये होगा कि चौटाला मीडिया में दिख रहीं इन बैठकों के अलावा अपने कोर वोटर, यानी किसान के लिए खुद के स्तर पर क्या कदम उठाते हैं.
क्या आंदोलन हो रहा कमजोर?
अब किसानों के इस आंदोलन के भविष्य की बात कर लेते हैं. किसानों का आंदोलन काफी तेजी से शुरू हुआ था, जिसे तमाम तरफ से समर्थन मिला. केंद्र ने दबाव में आकर दिल्ली आने की इजाजत भी दे दी. लेकिन इसके बाद जैसे शाहीन बाग के प्रदर्शन को पाकिस्तान से जोड़ा गया, किसानों के इस प्रदर्शन को खालिस्तान से जोड़ दिया गया. कोशिश तो पूरी हुई, लेकिन कोशिश नाकाम रही. इसके बाद किसान आंदोलन और बढ़ता चला गया. लेकिन फिर से देशद्रोह के मामले में बंद शरजील इमाम, उमर खालिद और अन्य लोगों के पोस्टर किसानों के प्रदर्शन की जगह पर नजर आए. जिसके बाद तमाम बीजेपी नेताओं और समर्थकों को टुकड़े-टुकड़े गैंग याद आया और किसान आंदोलन को उसके साथ जोड़ा गया. कई बड़े केंद्रीय मंत्रियों ने तो माओवाद और नक्सलवाद से भी आंदोलन को जोड़ा. बीजेपी की हिंदू ब्रांड नेता प्रज्ञा ठाकुर ने तो किसानों को नकली बताकर इन्हें गिरफ्तार करने की बात कह डाली.
सोशल मीडिया नैरेटिव
अब सोशल मीडिया पर कई तरह के नैरेटिव चलाए जा रहे हैं, जिसमें कभी किसानों के काजू-बादाम खाने की तस्वीरें तो कभी उनके फुट मसाज लेते हुए तस्वीरें वायरल हो रही हैं. इनके जरिए किसान आंदोलन को नकली बताने की पूरी कोशिश जारी है. वहीं विपक्ष के समर्थन के बाद कई लोग इसे कांग्रेस या आम आदमी पार्टी का आंदोलन बता रहे हैं. हालांकि आंदोलन पर इन सबका ज्यादा फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है और किसान लगातार अपनी आवाज सरकार के सामने बुलंद करते नजर आ रहे हैं. कुल मिलाकर अब देखना ये होगा कि सरकार के विकल्प काम आते हैं, किसानों का आंदोलन असर दिखाता है या फिर सोशल मीडिया में चल रहा प्रोपेगेंडा इस प्रदर्शन को गलत दिशा में मोड़ने में कामयाब रहता है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)