अयोध्या जमीन विवाद पर 9 नवंबर को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के लिए शुक्रवार को पांच नई याचिकाएं दायर की गई हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के लिए पहली याचिका 2 दिसंबर को जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैय्यद अशद रशीदी ने दायर की थी. अब मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला, मोहम्मद उमर, मौलाना महफूजुर रहमान, मिसबाहुद्दीन और डॉ मोहम्मद अयूब ने दायर की है. ये सभी पहले मुकदमें में पक्षकार थे. इन पुनर्विचार याचिकाओं को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का समर्थन हासिल है.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 17 नवंबर को ये फैसला लिया था कि वह अयोध्या जमीन विवाद मामले में पुनर्विचार याचिका दायर करने का समर्थन करेगा.
मुस्लिम पक्षकारों का क्या है तर्क
मौलाना मुफ्ती हसबुल्ला ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि मालिकाना हक के इस विवाद में उनके समुदायर के साथ 'घोर अन्याय' हुआ है और कोर्ट को इस पर फिर से विचार करना चाहिए. उनका कहना है कि पूरी जमीन का मालिकाना अधिकार इस आधार पर हिन्दू पक्षकारों को नहीं दिया जा सकता कि ये पूरी तरह उनके कब्जे में था जबकि किभी भी ये हिन्दुओं के पास नहीं था.
याचिकाओं में मुस्लिम पक्षकारों ने कहा-
- ये एक तथ्य है कि दिसंबर 1949 तक मुस्लिम इस स्थान पर आते थे और नमाज पढ़ते थे.
- मुस्लिम समुदाय को बाद में ऐसा करने से रोक दिया गया क्योंकि इसे कुर्क कर लिया गया था जबकि अनधिकृत तरीके से एंट्री की वजह से अनुचित तरीके से हिन्दुओं को पूजा करने की अनुमति दी गयी थी.
- संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन आवंटित करने का निर्देश देना भी गलत है क्योंकि इस मामले में कभी भी इसके लिए दलील पेश नहीं की गयी थी.
- अयोध्या का फैसला समझौते/निपटारे के तौर पर दिया गया, सबूत के आधार पर नहीं.
याचिका में कहा गया है कि 9 नवंबर के फैसले ने मस्जिद को नुकसान पहुंचाने और उसे ध्वस्त करने समेत कानून के शासन का उल्लंघन करने, विध्वंस करने के गंभीर आरोपों को माफ कर दिया. यही नहीं, कोर्ट की ओर से इस स्थान पर जबर्दस्ती गैरकानूनी तरीके से मूर्ति रखे जाने की अपनी व्यवस्था के बाद भी फैसले में तीन गुंबद और बरामदे पर मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति के अधिकार को स्वीकार करने को भी याचिका में गंभीर त्रुटि बताया गया है.
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