देश की माली हालत ‘एक्ट ऑफ गॉड’ के भरोसे
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि वित्त मंत्रालय में अब अगले बजट की तैयारी शुर होने वाली है और स्थिति इतनी बुरी है जितनी इससे पहले कभी नहीं थी. बीते दो साल में राजस्व में जो बढ़ोतरी हुई है वह नॉमिनल जीडीपी (जीडीपी में वास्तविक वृद्धि और मुद्रास्फीती के योग) से कम है. वे लिखते हैं कि जीडीपी के अनुपात में ऋणमुक्त राजस्व निश्चित रूप से तीसरे साल भी गिरेगा. बढ़ता सरकारी खर्च संकट बना हुआ है और यह भविष्य में बढ़ने ही वाला है. खर्च में कटौती की उम्मीद बेमानी है.
नाइनन लिखते हैं कि सरकार के पास राजस्व बढ़ाने के उपाय भी सीमित हैं. कंपनियों के लिए टैक्स की दरें घटा दी हैं. व्यक्तिगत आयकर का चरम बिन्दु अगर देखें तो 5 करोड़ की आय पर 43 प्रतिशत तक जा पहुंचा है. यहां भी आयकर बढ़ाने की गुंजाइश नहीं है. टैक्स खाचे में खामियां दूर कर कुछ गुंजाइश बनायी जा सकती है.
राजस्व बढ़ाने के लिए कॉरपोरेट संपत्ति या कुल संपत्ति पर टैक्स शुरू किया जा सकता है. मगर, इससे जो कंपनी सबसे बड़ी होगी उसे सबसे ज्यादा टैक्स देना होगा. इससे अलग प्रचलन ही शुरू हो जाएगा कि कंपनियां इक्विटी जारी करने के बजाए वह कर्ज लेने को प्राथमिकता देगा ताकि संपत्ति का कुल आकार घटता जाए. जीएसटी की दरें बढ़ाना सरकार के लिए मुश्किल फैसला होगा. अब राज्यों का हिस्सा कम करके केंद्र की माली हालत सुधारी जाने का विकल्प ही बचता है जिसके लिए वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह की रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा है. एक तरह से अब ‘एक्ट ऑफ गॉड’ ही देश की माली हालत को सुधार सकता है.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए लड़ने-भिड़ने का समय
द इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए उठ खड़े होने का वक्त आ गया है. फ्रांस में एक शिक्षक सैमुअल पैटी का सिर कलम कर देना अभिव्यक्ति की आजादी पर बड़ा हमला है. इसी तरह तीन और लोगों की हत्या भी निंदनीय है. ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. मलेशिया, तुर्की और पाकिस्तान जैसे गैर-लोकतांत्रिक देश इस्लाम की रक्षा के बहाने अलग रुख दिखा रहे हैं. लेकिन कोई भी तर्क इन हत्याओं को सही साबित नहीं करता. फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए जो आवाज बुलंद की है, वह बिल्कुल सही है.
मुहम्मद साह का कैरीकेचर बनाना या उनके बारे में लिखना अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ मान लिया गया है. मगर, इससे पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी को नुकसान पहुंचा है.
भानु प्रताप मेहता लिखते हैं कि लकीर के फकीर मुसलमान हों या इस्लामोफोबिया का प्रोपेगेंडा चलाने वाले लोग हों, दोनों अभिव्यक्ति की आजादी को कमजोर कर रहे हैं. आक्रामक भाषण देना अभिव्यक्ति की आजादी नहीं होती. ऐसी कोशिशों का बचाव नहीं होना चाहिए. पिछड़ों पर हमलों के विरोध में भी उदारवादी उठ खड़े होते रहे हैं. अल्पसंख्यक समूहों के लिए आजादी का उपयोग करना मुश्किल हो चुका है. किसी समुदाय का होने की वजह से किसी को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए. उदार देशों को यह अधिकार है कि हिंसा के साजिशकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई करे. हिंसा के वातावरण के फलने-फूलने से वे चिंतित होते हैं. उदारवाद ही लोगों को एकजुट रखता है. यह समय है जब जटिल राजनीति को छोड़ा जाए और स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धांत की रक्षा की जाए.
भारतीय चुनाव में अहमयित रखता है नौकरी का मुद्दा?
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि भारतीय सियासत में यह अनसुलझी पहेली है कि राजनीतिक दल जो वित्तीय प्रबंधन और रोजगार सृजन को लेकर अपना ट्रैक रिकॉर्ड रखते हैं, उसका उनके चुनावी प्रदर्शन से कोई नाता है भी या नहीं. राष्ट्रीय स्तर पर यह सवाल और अधिक प्रासंगिक हुआ है. 2019 के चुनाव को याद करें तो उस वक्त अर्थव्यवस्था गिरती जा रही थी, जीएसटी की वजह से छोटे फर्म्स बर्बादी की ओर बढ़ रहे थे, मैन्युफैक्चरिंग से जो उम्मीदें थीं, टूट रही थीं. फिर भी बीजेपी को सत्ता में लौटने में दिक्कत नहीं हुई.
चाणक्य पूछते हैं कि तेजस्वी यादव की आरजेडी और बीजेपी ने रोजगार देने के जो वायदे किए हैं, उसके मायने क्या यह निकाले जाएं कि आर्थिक सच्चाई और राजनीति की वास्तविकता में जो फर्क था, वह अब मिटने वाला है?
सभी राजनीतिक दलों को पता है कि भारत में रोजगार पाना और सम्मानजनक वेतन पाना सबसे बड़ी चुनौती है. बीते दो दशकों में सेवा आधारित विकास पर जोर रहा है. वाजपेयी सरकार ने बुनियादी क्षेत्र में नौकरी बनाने की कोशिशें कीं तो मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकारों में मैन्युफैक्चरिंग की ओर इस उम्मीद से देखा गया. यूपीए सरकार में मनरेगा तो मोदी सरकार में रूरल हाऊसिंग, शौचालय निर्माण, गैस सिलेंडर, जनधन खाते, सीधे बैंक अकाउंट में ट्रांसफर जैसे लोकलुभावन बातें आजमायी गईं. राजनीति में एक और चीज आजमायी जा रही है, और वह है पहचान की सियासत. वास्तव में वोटर भावनात्मक आधार पर अधिक वोट करते हैं. यही वजह है कि असल मुद्दे पीछे रह जाते हैं.
धीमे जहर से मारा जा रहा है लोकतंत्र
द इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम लिखते हैं कि उदार लोकतंत्र की धीमे जहर से हत्या की जा रही है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना है. कई लोगों ने इसे नहीं पढ़ा होगा और न ही इसके प्रभाव को समथे होंगे. फिर भी चुनिंदा प्रावधानों को लेकर वे सावधान होंगे. इनमें बुनियादी अधिकार, आर्टिकल 32 या आपातकाल शामिल हैं.
प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘सभी नागरिकों के लिए सुरक्षा’ जरूरी है. इनमें न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी और भ्रातृत्व जरूरी है. भारतीय लोकतंत्र उदार लोकतंत्र का उदाहरण है.
फ्रांसीसी क्रांति को याद करते हुए चिदंबरम लिखते हैं स्वतंत्रता, बराबरी, भ्रातृत्व या मृत्य जैसे शब्द इसी क्रांति की दे हैं. राष्ट्रपति मैक्रों उसकी ही याद दिला रहे हैं. वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए हर संभव लड़ाई लड़ने का संकल्प ले रहे हैं. कई देशों में इन शब्दों की बहुत अहमियत हुआ करती थी, लेकिन अब लगातार ऐसे देशों की संख्या कम होती चली गई है. चिदंबरम लिखते हैं कि हाल में टाइम मैगजीन ने जिन 100 प्रभावशाली लोगों के नाम सामने आए हैं, उनमें नरेंद्र मोदी और ट्रंप ही ऐसे नेता हैं जिनके देश में चुनावी लोकतंत्र है.
लेखक बताते हैं कि लोकतंत्र अभियक्ति की स्वतंत्रता वाले देश का पर्याय नहीं है. लोकतंत्र बहुत जल्द ही अनुदार हो जाता है.
भारत उदाहरण है जहां करोड़ों लोगों की नागरिकता संदेह के घेर में आ गई, अभिव्यक्ति की आजादी कम कर दी गई, मीडिया को डरपोक बना दिया गया, प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गयी... आदि... आदि. चिदंबरम कहते हैं कि बगैर वोट के संसद में विधेयक पारित हो, कई महीने जेल में रहने के बावजूद आरोपपत्र तक दायर ना हो, बुद्धिजीवियों पर राजद्रोह के मुकदमे लगाए जा रहे हों...आदि उदाहरण हैं जो बताते हैं कि व्यक्तिगत आजादी भारत में भी सुरक्षित नहीं है.
सुपरपावर के साथ कदमताल जारी रखे भारत
द टाइम्स ऑफ इंडिया में इंद्राणी बागची कहती हैं कि भारत और अमेरिका ने 1998 में साझा सफर शुरू किया था जब जसवंत सिंह और स्ट्रोब टॉलबोट मिले थे. वह सफर अब एक मुकाम पर पहुंचा है जब बेसिक एक्सचेंज एंड को-ऑपरेसन एग्रीमेंट (बीईसीए) पर दोनों देशों ने हस्ताक्षर किए हैं. वास्तव में भारत अमेरिका में नयी सरकार बनने से पहले यह समझौता करने मे सफल रहा है. यह समझौता ऐसे समय में हुआ है जब भारत और चीन के बीच गतिरोध बना हुआ है.
इंद्राणी बागची लिखती हैं कि विदेश मंत्री एस जय शंकर ने चीन को आगाह किया था कि वे अमेरिकी लेंस से भारत को न देखे. भारत ने अघोषित चीनी वीटो से भी खुद को अलग कर दिखाया है. ऑस्ट्रेलिया के साथ नए क्वॉड मालाबार अभ्यास के जरिए सैन्य अभ्यास नए दौर में पहुंचा है. डोनाल्ड ट्रंप जीतकर लौटें या न लौटें, लेकिन एक बात जरूर कहनी पड़ेगी कि चीन को लेकर ट्रंप की नीति एकसमान बनी रही. बाइडेन के वरिष्ठ सलाहकार बिल बर्न्स के विचार चीन को लेकर थोड़ा अलग जरूर है, लेकिन उनके विचार में उभरते हुए भारत को साथ लेकर एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में खुद को मजबूत करना प्रमुख है.
संभव है कि मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के मामले में बाइडेन प्रशासन भी सख्त रुख दिखलाए. सुपरपावर के साथ चलना आसान नहीं होता और हमारे लिए भी मुश्किल ही रहने वाला है. रूस से एस-400 मिसाइल लेने पर अमेरिकी प्रतिबंध पर भी 2021 में विचार होना है. थोड़ी और गहराई में सोचें तो रूस और अमेरिका 21वीं सदी में आर्म्स कंट्रोल एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने वाले हैं, जिसका मकसद चीन को भी अपने साथ लाना है. निश्चित रूप से भारत पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा.
राजनीतिक-धार्मिक तनाव से पता चलता है देश की राजनीतिक स्थिति
द टेलीग्राफ में मुकुल केसवान ने लिखा है कि किसी देश में राजनीतिक और धार्मिक समुदाय के बीच तनाव की स्थिति से देश को समझा जा सकता है. यह न केवल इजराइल और पाकिस्तान जैसे बहुसंख्यकवादी देशों के संदर्भ में सही है बल्कि उन देशों के संदर्भ में भी सही है जो बहुसंख्यकवादी नहीं हैं. ब्रिटेन में यहूदी-विरोध पर हंगामा बरपा हुआ है. लेबर पार्टी में जेरेमी कॉरबिन इसलिए निलंबित है क्योंकि उन्होंने एक जांच में पाया है कि उनके कार्यकाल में यहूदी विरोध की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया. अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी की सियासत सांस्कृतिक और दार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित है, तो फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने कह दिया है कि देश का गणतंत्र जेहादियों से घिर गया है.
चीन में उईघर मुसलमानों के साथ ज्यादती हो रही है, जबकि भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बहुलवादी भारत सैद्धांतिक रूप से हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा है.
मुकुल केसवान लिखते हैं कि अमेरिका, फ्रांस और चीन में धार्मिक मतभेद नस्लवाद के कारण बढ़े हैं. यहूदी विरोध हमेशा से धार्मिक कट्टरता की वजह रहा है. यही वजह है कि ब्रिटेन में नस्लवाद विरोधी प्रतिबद्धताओं के कारण वाम झुकाव रखने वाली लेबर पार्टी गर्व महसूस करती है. अमेरिका में धार्मिक कट्टरता से अधिक नस्लवाद गंभीर संकट है. यहां यहूदी नेता बर्नी सैंडर्स राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में होते हैं, तो सोमालियाई मुस्लिम महिला मिन्नेसोता जिले का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहां 63 प्रतिशत श्वेत और अधिसंख्य मुस्लिम आबादी है. मैक्रों के फ्रांस में नस्लीय और धार्मिक विविधता और धर्मनिरपेक्षता की डींगें मारने के बावजूद यहां धार्मिक कट्टरता चरम पर है. लेखक बताते हैं कि भारत में चुनाव होते हैं जब हमें पता चलता है कि अल्पसंख्यकों का दमन किया जा रहा है. फ्रांस की दक्षिणपंथी ताकत की तुलना भारतीय सियासत में भी ढूंढी जा सकती है.
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