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असमानता से भरे समाज में हाशिये पर खड़ी महिला को समानता पाने में लगेंगे 195 वर्ष

समान नौकरी के लिए पुरुषों की 33.3 हजार आमदनी की तुलना में महिलाओं की आमदनी 23.1 हजार है

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सुमति का इंटरव्यू चल रहा है, उससे पूछा जाता है आपका अनुभव और योग्यता इस पद से कहीं ज्यादा है फिर आपने यहाँ क्यों अप्लाई किया ! सुमति ने बताया उसे इस वक्त एक अदद नौकरी की सख्त जरूरत है इसलिए, वह निचले पद और कम तनख्वाह पर भी काम कर लेगी. साक्षात्कार कर्ताओं को लगता है सुमति अभी ज्वाइन कर भी लेगी तो अपनी योग्यता के मुताबिक नौकरी मिलते ही यह नौकरी छोड़ देगी, इसलिए वे सुमति को नहीं चुनते. सुमति फिर से नयी जगह नौकरी की संभावना तलाशने में लग जाती है, पिछले तीन माह से वह यही कर रही है.

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महामारी के चलते सुमति को अपने गांव जाना पड़ा और अपनी नौकरी गँवानी पड़ी. अन्य अभिभावकों की तरह उसका परिवार भी समझता है कि सुमति की आर्थिक सुरक्षा शादी कर देने में है. जबकि सुमति ने घर पर पिता और भाइयों के काम से लौटने के बाद उन्हें मिलने वाले विशेष आदर और मां के दिन-भर के काम के निरादर को महसूस करते हुए ठान लिया था कि वह नौकरी करके पैसा और आदर कमाएगी. हांलाकि मां का कहना है नौकरी करो या ना करो, घर का काम तो औरत को ही करना पड़ता है. ये हालात सिर्फ भारत के किसी गांव की सुमति और उसकी मां के नहीं हैं.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ILOकी रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 41 करोड़ मर्दों की तुलना में 606 करोड़ औरतें पूरे समय घर के काम, बच्चों की देखभाल, बुजुर्गों की सेवा आदि कार्य करती हैं, जिसके बदले उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता है. महिलाओं से सेवा, देखभाल और गृह कार्य मुफ्त में करवाया जाना ऐतिहासिक है और इस पर एक लम्बी बहस और विरोध बरसों से जारी है. जहाँ एक ओर लैंगिक असमानता की उपस्थिति को नकारने वाले हैं, तो वहीं इसे ईश्वर प्रदत्त बताने वालों की भी कमी नहीं है.

गैर-बराबरी के क्या हैं कारण

संसाधनों या कार्यों के बंटवारे को अगर मौद्रिक मूल्य की दृष्टि से तौला जाए तो अधिक मौद्रिक मूल्य वाले सभी संसाधन पुरुषों के हिस्से में हैं. पुरुषों को पावरफुल यानि ताकतवर बनाने की कवायद में, संसाधनों पर कब्जा करना, पितृसत्ता की रणनीति का एक हिस्सा रहा, जिसमें बेहतर मौद्रिक मूल्य वाले संसाधन या काम पुरुषों द्वारा हथिया लिए गए. इन्हीं संसाधन सम्पन्न पुरुष-समूहों में सबसे अधिक संसाधनवान समूह; उच्च जाति, उच्च धर्म, उच्च वर्ग में तब्दील होते गए. यहाँ जाति, धर्म, वर्ग और लिंग के बीच अन्तर्सम्बन्ध को समझना बहुत जरूरी है. जाति, धर्म, वर्ग उच्च हों या निम्न हों दोनो जगह, पुरुष प्रधान है, स्त्री दोयम है, अन्य लिंग जैसे ट्रांसजेंडर आदि तो सबसे निचले पायदान पर हैं. इसका अर्थ है कि पुरुष के अलावा सभी लिंगों को आत्मनिर्भरता, निर्णय के अधिकार, समृद्धि, नेतृत्व और ताकत से महरूम रखने के लिए सोच-समझ के साथ संसाधनहीन रखा गया.

महिलाओं एवं अन्य लिंगों के मनुष्यों को उन कार्यों में लिप्त रखा गया जिनका मौद्रिक मूल्य बहुत कम था या मौद्रिक मूल्य था ही नहीं अथवा यूँ कहें कि जब उनसे कार्य करवाए गए तब उसका मूल्य बेहद कम आँका गया या मूल्य आँका ही नहीं गया. इसे एक उदाहरण से समझते हैं- घर के काम, जैसे खाना पकाना, कपड़े धोना, बर्तन, साफ़-सफाई, बुजुर्गों और बीमारों की सेवा आदि अवैतनिक रूप से करना महिला की जिम्मेदारी तय की गयी, आम तौर पर पुरुष यह काम घर पर नहीं करते जिसकी तस्दीक अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन सहित कई संगठन कर चुके हैं.
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यही काम जब व्यावसायिक स्तर पर किया जाता है, यानि जब इसका मौद्रिक मूल्य मिलता है तब पुरुष न सिर्फ ये सभी काम आपको करते नजर आयेंगें, बल्कि पारम्परिक रूप से 'स्त्रियोचित' घोषित इस कार्य में पुरुष, स्त्रियों से अधिक संख्या में, अधिक वेतन या पारिश्रमिक के साथ प्रबल रूप से उपस्थित हैं.

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लैंगिक असमानता को मापने का क्या है पैमाना

स्कूल, दफ्तर, सोशल मीडिया पर चंद महिलाओं की उपस्थिति, लैंगिक समानता को मापने या असमानता को नकारने का कोई आधार नहीं है. आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक उपलब्धि, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, और राजनीतिक अधिकारिता, ये चार प्रमुख आयाम वैश्विक लैंगिक असमानता को मापने के लिये तय किये गए हैं. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वैश्विक जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार 156 देशों से लिए गए डेटा ये साबित करते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता में लैंगिक असमानता बेहद कम होने और प्रशिक्षित महिलाओं की संख्या बढ़ने के बावजूद महिला और पुरुष के बीच आमदनी का बड़ा अंतर है, कम आमदनी वाले कामों में महिलाओं की संख्या अधिक है जबकि अधिक आमदनी वाले काम पुरुषों के हिस्से ज्यादा आये हैं.

समान नौकरी के लिए पुरुषों की 33.3 हजार आमदनी की तुलना में महिलाओं की आमदनी 23.1 हजार है. केवल 27 प्रतिशत महिलाएं वरिष्ठ प्रबंधन पदों पर आसीन हैं. गैर-लाभकारी संस्थाओं से लेकर व्यावसायिक सेवाओं, मनोरंजन, टूरिजम, मीडिया, कम्युनिकेशन,उपभोक्ता सेवाओं आदि सभी प्रमुख क्षेत्रों में महिलाओं की नियुक्ति में गिरावट है. भविष्य की नौकरियों में भी महिलाओं के लिए कम दरवाजे खुल रहे हैं. तकनीकी नौकरियों जैसे क्लाउड कम्प्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में महिलाओं हिस्सेदारी 14 से 32 प्रतिशत तक सिमटी हुई है, जो काफी कम है.
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महिलाओं की राजनैतिक भागीदारी का आयाम भी भारी असंतुलन जाहिर करता है. 156 देशों के निचले सदन में कुल 26.1 प्रतिशत यानी 35,500 महिलाएं उपस्थित हैं, तो केवल 22.6 प्रतिशत यानि 3,400 महिलायें मंत्री पद पर हैं. दुनिया में 81 देश ऐसे हैं जहाँ आज तक कोई महिला, राज्य-प्रमुख नहीं बन पायी है.

महामारी का महिलाओं पर असर

स्वास्थ्य और सामाजिक कार्य क्षेत्र में 70.4 प्रतिशत कार्यकर्ता महिलाएं हैं जिन्होंने इस महामारी में अग्रिम पंक्ति में रहकर कार्य किया. महिलाओं के साथ शारीरिक, मानसिक, यौनिक, आर्थिक सभी प्रकार की हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है. महिलाओं को पुरुषों की तुलना में प्रति सप्ताह लगभग 15 घंटे अतिरिक्त अवैतनिक कार्य करना पड़ रहा है. दिनचर्या के बदलाव से 57 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 63 प्रतिशत महिलाओं को तनाव हुआ. घर और दफ्तर के काम के बीच संतुलन ना बैठ पाने से 53 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 61 प्रतिशत महिलाओं को तनाव झेलना पड़ा है. भोजन और रोजगार असुरक्षा के तनाव से पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक संख्या में तनाव हुआ. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, लिंक्डइन, IPSOS और यू एन डी पी की जेंडर विशेषज्ञ की रिपोर्ट्स ये ख़ुलासा कर रही हैं कि 3.9 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 5 प्रतिशत महिलाओं का रोजगार कोविड महामारी के चलते छिन गया है.

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वैश्विक जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार पूरे विश्व में 64 करोड़ महिलाओं का रोजगार महामारी की भेंट चढ़ गया है. पिताओं और बिना बच्चों के साथ वाली महिलाओं की तुलना में बच्चों के साथ वाली माताओं को रोजगार मिलने की संभावना क्षीण हो गयी है.
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आर्थिक भागीदारी और आर्थिक अवसर में महिलाओं के लगातार निचले पायदान पर जाने के क्या हैं परिणाम

आर्थिक भागीदारी, आर्थिक अवसर और राजनैतिक अधिकारिता में महिलाओं के पिछड़ते जाने से लैंगिक समानता को पाटने का सपना पूरा होने में अब 195 वर्ष से भी अधिक का समय लग जाएगा. जिसका अर्थ है कि अभी भविष्य की कई पीढ़ियों को इन्हीं हालातों गुजरना होगा. जहाँ एक ओर महिलाओं के अवैतनिक कार्यों में जुटे रहने के कारण वे अपने लिए व्यक्तिगत समय नहीं निकाल पाती हैं, वहीँ घरेलू जिम्मेदारियों में परिवार के मन मुताबिक काम ना होने पर वे बड़ी संख्या में हिंसा की शिकार होती हैं.

आइसलैंड एक मात्र ऐसा देश है जहाँ पिछले 12 वर्षों से कोई लैंगिक असमानता नहीं है. वहीँ भारत, लैंगिक असमानता में विश्व में 140 वें पायदान पर है और दक्षिण एशिया में बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव्स जैसे छोटे देशों से भी नीचे 6 वें स्थान पर अपने पड़ोसी पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के नजदीक खड़ा है.
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अवैतनिक सेवा कार्य में महिलाओं की अधिकता और आमदनी एवं वित्तीय अवसरों में महिलाओं के घटते प्रतिनिधित्व से सिर्फ़ महिलाओं के हालात बदतर हो रहे हैं ऐसा नहीं है. इसका एक पक्ष यह भी है जिसकी चर्चा कम होती है कि यह पुरुषों के लिए भी हमेशा कमाते रहने का दबाव बढ़ाता है. पुरुष चाहें भी तो वे घर रहकर घरेलू-कार्य करने पर उपहास और प्रताड़ना के शिकार होते हैं.

ऑक्सफैम के अनुसार महिलाओं के साल भर के अवैतनिक काम का मूल्य 10.8 ट्रिलियन डॉलर है. इस अवैतनिक कार्य से सिर्फ़ महिला को नहीं अर्थव्यवस्था को भी नुक्सान पहुँच रहा है.

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महामारी ने लैंगिक असमानता और अर्थव्यस्था दोनों को बेहद चिंताजनक स्थिति में ला दिया है. यही वजह है कि विश्व के 6 बड़े संस्थानों-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय सेंट्रल बैंक, यूरोपीय आयोग, विश्व व्यापार संगठन, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइन्स, संयुक्त राष्ट्र के अवर महासचिव और अफ्रीका के आर्थिक आयोग के सचिव ने, जून माह में एक संयुक्त जेंडर स्टेटमेंट जारी कर सभी राष्ट्रों की सरकारों से कहा है कि लैंगिक असमानता के घाव को सड़ते रहने देने के कारण महामारी ने हमें अधिक पीड़ा पहुंचायी है.

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महामारी से निपटने के उपाय करते समय सभी सरकारों को तीन पॉलिसी एरिया में फोकस करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए की सभी प्रोत्साहन-प्रयास, पैसा और सामाजिक सुरक्षा योजनायें सीधे महिलाओं के हाथ में पहुंचें, सभी सरकारें अपने देश में लैंगिक असमानता को ख़त्म करें और बेहतर सार्वजनिक नीति बनाने के लिए मॉनिटरिंग और डाटा प्रणाली को मजबूत करें साथ ही सरकारें यह भी सुनिश्चित करें कि महिलाओं के उपर अवैतनिक कार्य का बोझ कम हो और महिलाओं के श्रम-बल की सहभागिता मजबूत करने के लिए बच्चों की देखभाल के बेहतर प्रबंध किये जाएँ.

अब देखना ये है कि सरकारों की नीतियों में ये नीतिगत सुझाव फ़ौरन स्थान बना पायेंगें या इन्हें 195 वर्षों का इंतजार करना होगा.

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