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'मरती मां से मिलने के लिए पैरोल नहीं मिली': जीएन साईबाबा ने बताया जेल में कैसे गुजरे 10 साल?

डीयू के पूर्व प्रोफेसर को लगभग 3,600 दिन जेल में बिताने के बाद 7 मार्च को नागपुर सेंट्रल जेल से रिहा किया गया

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जीएन साईबाबा (GN Saibaba) जब नई दिल्ली के हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में अपनी व्हीलचेयर पर बैठे प्रेस कॉन्फ्रेंस हॉल में दाखिल हुए तो पत्रकारों की भीड़ में बैठे उनके कुछ दोस्तों ने अपनी मुट्ठी हवा में उठाई. साईबाबा तुरंत मुस्कुराए और बदले में उन्होंने भी अपनी मुट्ठी हवा में उठा दी.

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा ने लगभग 3600 दिन जेल में बिताए हैं. इसके बाद 7 मार्च 2024 को उन्हें नागपुर सेंट्रल जेल से रिहा किया गया. उनकी रिहाई अदालत के बरी किए जाने के आदेश के दो दिनों के बाद हुई.

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"दिल्ली की प्रेस मुझे जानती है, लेकिन सात साल बाद आज मैं खुद से सोचता हूं कि मैं कहां हूं? मैं समझ नहीं पा रहा क्योंकि मुझे अभी भी लग रहा है कि मैं अपने 'अंडा' सेल में हूं. मैं रिहा होने के 24 घंटे बाद भी वास्तविकता से उबर नहीं पा रहा हूं. मैं अपने आसपास से तालमेल बिठा नहीं पा रहा हूं."

प्रेस कॉन्फ्रेंस में जी साईबाबा ने शुरुआत में ये सब कहा. उन्होंने जेल में अपनी जद्दोजहद का जिक्र किया. पैनल में उनकी पत्नी वसंत कुमारी, सह-आरोपी हेम मिश्रा (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र), उनके पिता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी राजा, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नंदिता नारायण और करेन गेब्रियल तथा नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर द राइट्स ऑफ द डिसएबल्ड के महासचिव मुरलीधरन शामिल थे. 

बरी किए गए अन्य सह-आरोपियों में महेश करीमन तिर्की, पांडु पोरा नरोटे (अब इस दुनिया में नहीं हैं), प्रशांत राही (जिन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी) और विजय तिर्की (जिन्हें 2017 में एक विशेष अदालत ने 10 साल जेल की सजा सुनाई थी) शामिल हैं. 

11 मार्च को न्यायमूर्ति बीआर गवई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ महाराष्ट्र सरकार की ओर से बरी किए जाने के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई करेगी.

'मेरी अग्निपरीक्षा'

जीएन साईबाबा को 2014 में गिरफ्तार किया गया था और बाद में कथित माओवादी से जुड़ाव मामले में UAPA [गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम] के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. अक्टूबर 2022 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें आरोपमुक्त करते हुए तत्काल रिहा करने का आदेश दिया था. लेकिन इससे पहले की वह जेल से बाहर कदम रख पाते सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया था.

फिर अप्रैल 2023 में मामला वापस बॉम्बे हाईकोर्ट को भेज दिया गया. इस बार जीएन साईबाबा का मामला बॉम्बे हाईकोर्ट के किसी दूसरे बेंच के पास था लेकिन इस बेंच को भी उन्हें रिहा करने का कोई आधार नहीं मिला.

न्याय व्यवस्था की भूमिका पर बात करते हुए साईबाबा कहते हैं,

"अदालत द्वारा मुझे बरी किए जाने के बाद भी मुझे कोई राहत नहीं मिली. यह सीता की अग्निपरीक्षा की तरह था. हमें दो बार इससे गुजरना पड़ा. सीता को एक बार इसका सामना करना पड़ा था, हमें इसे दो बार करना पड़ा. यह मेरे लिए सिर्फ अग्निपरीक्षा नहीं थी, यह उच्च न्यायपालिका के लिए अग्निपरीक्षा बन गई. हमें बरी करने के लिए एक फैसला काफी नहीं था. अदालत ने न्याय दिया, लेकिन इसमें देरी हुई. एक पुरानी कहावत है कि न्याय में देरी का मतलब है न्याय न मिलना."

शायद साईबाबा की कैद का दो सबसे कठिन पहलू उनका स्वास्थ्य और उनकी बीमार मां से संबंधित था. प्रेस कॉफ्रेंस में 40 मिनट से ज्यादा वक्त तक बोलेने के बाद वह अपने आंसू रोक न सके. उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें अपनी मरणासन्न मां से मिलने की इजाजत नहीं दी गई.

जीएन साईबाबा कहते हैं, "एक विकलांग बच्चा होने की वजह से मेरी मां मुझे अपनी गोद में स्कूल ले जाती थी, ताकि उनका बच्चा शिक्षा पा सके. मैं उनसे उनके अंतिम समय से पहले मिल भी न सका. मेरा पेरोल खारिज कर दिया गया. उनके निधन के बाद, मुझे उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए भी पेरोल देने से इनकार कर दिया गया."

दरअसल बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने आपातकालीन पैरोल के लिए साईबाबा की याचिका को खारिज करते हुए कहा था, "नागपुर सेंट्रल जेल के अधीक्षक की ओर से एसपीपी को भेजे गए पत्र में कहा गया है कि साईबाबा को एक अलग विंग में एक हाई सिक्योरिटी सेल के भीतर रखा गया है और याचिकाकर्ता के बैंकग्राउंड को देखते हुए याचिकाकर्ता को आपातकालीन पैरोल पर रिहा करने का निर्देश देना सुरक्षित नहीं होगा."

साईबाबा के शरीर का 90 प्रतिशत हिस्सा अक्षम हैं और बचपन से पोलियो से संक्रमित होने के बाद से व्हीलचेयर पर हैं. उन्होंने कहा, "बचपन से मुझे जो पोलियो है, उसे छोड़कर, मैं बिना किसी स्वास्थ्य समस्या के जेल गया. लेकिन आज, मैं आपके सामने जीवित हूं, हालांकि मेरा हर अंग अब साथ छोड़ रहा है."

उन्होंने बताया कि कैसे उनके साथी कैदी को उन्हें बुनियादी कामों के लिए भी साथ ले जाना पड़ता था.

"मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मैंने गरीब लोगों की पीड़ा को अपनी पीड़ा मान लिया है. लेकिन जब मुझे जेल में डाल दिया गया, तो उन्होंने मेरी पीड़ा को अपना लिया. मेरे सेल तक कोई पहुंच नहीं सकता था, उसमें अलग से कोई शौचालय नहीं था. वहां एक सुराख थी लेकिन व्हीलचेयर की पहुंच वहां तक नहीं थी. ऐसे में दो आदिवासी लड़के (उनमें से एक सह-आरोपी पांडु नरोटे था, जिसकी मृत्यु बरी होने से पहले हो गई थी) मुझे स्नान कराने या हर बार शौचालय ले जाते थे. मैं एक गिलास पानी भी नहीं ले सकता था. व्हीलचेयर जेल की कोठरी में चल नहीं सकते थे. कोई कितने साल तक ऐसी जिंदगी जी सकता है?"
जीएन साईबाबा
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जेल अधिकारियों की लापरवाही

साईबाबा ने यह भी बताया कि कैसे अधिकारियों ने उनकी पत्नी द्वारा भेजी गई दवाओं को उन तक पहुंचने नहीं दिया और कैसे उन्होंने सरकारी डॉक्टरों द्वारा दिए गए किसी भी निर्देश का पालन नहीं किया.

उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा,  "डॉक्टरों ने कई चीजें तय की थीं, जैसे कि मेरे हार्ट को कैसे मॉनिटर करना है. चार साल हो गए हैं अभी तक ऐसा नहीं हुआ. एक दूसरे डॉक्टर ने स्लीप एपनिया (सोते वक्त सांस का टूटने लगना या बंद हो जाना) के जांच के लिए कहा था. लेकिन इसकी भी कोई जांच नहीं की गई. डॉक्टरों ने मेरे दर्द के लिए नसों और मांसपेशियों की सर्जरी की सलाह दी थी, लेकिन इस पर भी कोई चर्चा नहीं हुई या इसकी भी कोई योजना नहीं बनाई गई."

[नागपुर सेंट्रल जेल जीएन साईबाबा के आरोपों पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. अगर जेल प्रशासन की ओर से कोई प्रतिक्रिया दी जाती है तो इस स्टोरी में जोड़ दी जाएगी.]

इस बीच दो अन्य लोगों के जिक्र करना जरूरी है. पहले हैं जीएन साईबाबा की ओर से पेश हुए वकील सुरेंद्र गाडलिंग. इन्होंने ट्रायल कोर्ट में साईबाबा का बचाव किया था. लेकिन सुरेंद्र फिलहाल एल्गार परिषद मामले में जेल में हैं. 

जीएन साईबाबा कहते हैं, "आज वह जेल में हैं क्योंकि उन्होंने मेरा साथ दिया. उन्होंने मेरा केस सेशन कोर्ट में लड़ा. वह एक अनुभवी ह्यूमन राइट्स वकील हैं. उन्होंने अदालत के सामने इतनी अच्छी तरह से तर्क दिया कि मामले में कुछ भी नहीं बचा था. मुकदमे के दौरान कुछ पुलिस अधिकारियों ने उसे धमकी दी कि 'साईबाबा के बाद हम आपको देखेंगे. मेरी दोषसिद्धि के कुछ महीनों के भीतर सुरेंद्र को एक अन्य मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. वह अभी भी जेल में बंद है."

दूसरे हैं नरोटे. वह खेती-किसानी से जुड़े वर्कर थे. नरोटे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के एक अनुसूचित जनजाति के सदस्य भी थे. जेल में रहते हुए उन्हें स्वाइन फ्लू हुआ और अगस्त 2022 में जेल में ही उनकी मौत हो गई. आप यहां क्लिक कर उनके बारे में ज्यादा पढ़ सकते हैं.

जीएन साईबाबा कहते हैं, "7 मार्च 2017 को जब हमें एक कोठरी रखा गया था तो उन्होंने (नरोटे) मुझसे जो पहला सवाल पूछा, वह यह था कि 'जजमेंट' शब्द का मतलब क्या होता है. उन्हें कानून के बारे में कुछ भी पता नहीं था. वह एक बहुत ही पुराने जनजाति से थे. वह कभी अपने गांव से बाहर नहीं गए थे. उनकी मौत मेरी आंखों के सामने हो गई. हमारे कई बार कहने के बावजूद उन्हें अस्पताल नहीं ले जाया गया. उनके आंखों और पेशाब के रास्ते खून आ रहा था. मौत के कुछ मिनट पहले उन्हें अस्पताल ले जाया गया."
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प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान साईबाबा ने 'सच्चाई और तथ्यों' को सामने लाने के लिए  प्रेस का शुक्रिया अदा किया. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार रक्षक परिषद, विकलांग परिषद और यूरोपीय संघ मानवाधिकार आयोग को उनके समर्थन के लिए धन्यवाद दिया.

यह पूछे जाने पर कि क्या वह शिक्षण के पेशे में वापस लौटेंगे, साईबाबा ने कहा, "मैं हमेशा एक शिक्षक रहा हूं. छात्रों के बिना, शिक्षण के बिना, मैं जिंदा नहीं रह सकता. मैं केवल पढ़ाना जारी रखकर जिंदा रह सकता हूं."

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