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गणपति बप्पा मोरया: आस्था की कितनी बड़ी कीमत चुकाता है मुंबई?

गणेश चतुर्थी के संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक महत्व के चलते राज्य सरकारें भी कड़े कदम उठाने से बचती रही हैं.

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भारत
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हर साल अनंत चतुर्दशी की अगली सुबह मुंबई शहर उत्सव की खुमारी में सोया रहता है. उधर गणपति के स्वागत सत्कार, पूजा-पाठ, विदाई के शानदार उत्सव और पवित्रता में डूबे दस दिन के बाद मुंबई के समंदर किनारों का मंजर जंग के बाद पसरी तबाही सा नजारा पेश करता है. अगरबत्तियां, नारियल, फूल-पत्तियां, जूट बांस और कपड़ों के कीचड़ में भगवान गणेश की लाखों मूर्तियां गलने के इंतजार में पड़ी रहती हैं.

सड़क किनारों पर खाने और दूसरी चीजों से भरे प्लास्टिक बैग यहां-वहां बिखरे पड़े रहते हैं जिनपर मच्छर और मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं. कई समंदर किनारों पर लहरें भी नहीं आती जो इन चीजों को बहाकर ले जाए.

दिक्कत कहां शुरू होती है?

इसी साल 5 से 15 सितंबर के बीच अकेले मुंबई शहर में ही सवा दो लाख गणपति की मूर्तियां विसर्जित की गईं. इनमें 25 विशालकाय मूर्तियां शामिल हैं जिनका वजन टनों में था और जो 20-30 फुट की थी. इन मूर्तियों को विशाल पंडालों में ऊंचे-ऊंचे सिंहासनों पर बिठाया गया. ये प्रसिद्ध मंदिरों और बॉलीवुड के सेट्स के तर्ज पर तैयार की गईं.



गणेश चतुर्थी के संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक महत्व के चलते राज्य सरकारें भी कड़े कदम उठाने से बचती रही हैं.
(फोटो: Reuters)

जबकि घरेलू और छोटे पंडालों की गणपति की लाखों मूर्तियां अलग-अलग साइज और आकार में तैयार की गई. इनमें सत्रह हजार से ज्यादा मूर्तियां अकेले 9 सितंबर को ही समंदर में विसर्जित की गईं.

पीओपी का धड़ल्ले से इस्तेमाल

गणपति की इन हजारों मूर्तियां को बड़े पैमाने पर बनाने का काम महीनों पहले शुरू हो जाता है. हजारों मूर्तिकारों को इस काम में लगाया जाता है. ये मूर्तिकार मूर्तियों को बनाने में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं.



गणेश चतुर्थी के संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक महत्व के चलते राज्य सरकारें भी कड़े कदम उठाने से बचती रही हैं.
(फोटो: Reuters)

प्लास्टर ऑफ पेरिस सस्ता भी है, आसानी से मिल भी जाता है और काम आसान बना देता है. खासकर बड़ी मूर्तियों को बनाने में इसका इस्तेमाल होता है. पीओपी को जब पानी में मिक्स किया जाता है तो ये मुलायम, सफेद, चिपचिपे जिप्सम में बदल जाता है. ये अपनी हार्डनेस के चलते पानी में काफी धीरे-धीरे घुलता है. इसके पार्टिकल्स करीब 17 साल तक पानी में डिकम्पोज होते हैं और पानी में तैरते रहते हैं.

खतरा कितना बड़ा है?

जरा सोचिए, 2005 में जो गणेश मूर्तियां अरब सागर में प्रवाहित की गई थीं, जिन प्रतिमाओं को 11 साल पहले विदा किया जा चुका था वो अब भी समंदर के किसी कोने में तैर रही हैं, गलने का इंतजार कर रही हैं. ये प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाएं पूरे पर्यावरण के ऊपर बोझ हैं. मिट्टी से बेहद बारीकी और सावधानी से बनाई गईं गणेश मूर्तियों की जगह धीरे से प्लास्टर ऑफ पेरिस की इन मूर्तियों ने ले ली है.

पहले जिन गणेश मूर्तियों का साज-श्रृंगार ऑर्गेनिक रंगों से किया जाता था अब उसकी जगह लेड और आर्सेनिक वाले मेटालिक पेंट्स ने ले ली है. यहां भी वजह वही है. ये सिंथेटिक रंग सस्ते हैं, आसानी से मिल जाते हैं और प्रतिमाओं में आसानी से चमक पैदा कर देते हैं. इसमें मिले होते हैं हैवी मेटल मसलन लेड, आर्सेनिक, मरकरी, कैडियम, जिंक ऑक्साइड और क्रोमियम. ये मेटल पानी में ऑक्सीजन, कार्बन डाई ऑक्साइड का लेवल घटा देते हैं जो पानी में मछलियों और दूसरे जीव-जतुंओं के जीवन के लिए खतरनाक साबित होते हैं. ये चमकीले रंग, उनमें डाला गया तेल और ग्रीज मिलकर पानी को जहरीला बना देते है.



गणेश चतुर्थी के संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक महत्व के चलते राज्य सरकारें भी कड़े कदम उठाने से बचती रही हैं.
(फोटो: Reuters)
मरकरी की एक बूंद 20 एकड़ की झील में पल रही सभी मछलियों, पक्षियों और जीव-जंतुओं की जान के लिए खतरा बन सकती है. गणपति की मूर्तियों में लगाए गए इस पेंट्स में शामिल हैवी मेटल पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही साथ ही अगर एक बार समंदर में मिल जाएं तो फूड चेन को भी जहरीला बना सकते हैं. ये न्यूरोटॉक्सिक और नेफ्रोटॉक्सिक भी होते हैं यानि सूंघने, आंखों या स्किन के जरिए शरीर में पहुंच जाएं तो नर्वस सिस्टम और किडनियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं.


गणेश चतुर्थी के संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक महत्व के चलते राज्य सरकारें भी कड़े कदम उठाने से बचती रही हैं.
(फोटो: Reuters)

ईश्वर का वजूद है या नहीं – ये वाद विवाद और निजी चुनाव का मुद्दा हो सकता है. लेकिन ईश्वर में विश्वास करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वो अपने विश्वास की इतनी घातक कीमत चुकाने को तैयार हैं. धार्मिक उत्सव की मौजूदा शक्ल के चलते पर्यावरण पर मंडरा रहे विनाश के खतरे से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.

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सरकार का सुस्त रवैया

2010 में देश के कई हिस्सों खासकर महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में गणेशोत्सव के दौरान और उसके बाद पर्यावरण नुकसान को लेकर मचे हंगामे के बाद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नींद टूटी.

बोर्ड ने गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन की गाइडलाइंस जारी की.

इनमें ऐसे तालाबों और झीलों की पहचान करने की बात शामिल की गई जहां मूर्तियों का विसर्जन नहीं किया जा सकता.

  • कृत्रिम टैंक बनाने की बात कही गई जहां मूर्तियों को प्रवाहित किया जाए.
  • प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों की जगह मूर्तियां बनाने में मिट्टी के इस्तेमाल और हर्बल रंगों को बढ़ावा देने की बात कही गई.
  • गाइडलाइंस में कहा गया कि विसर्जन के 48 घंटे के भीतर साफ-सफाई की जाए ताकि मिट्टी में होने वाले प्रदूषण को रोका जा सके.
  • हर राज्य में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पुलिस, एनजीओ और धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की एक निगरानी समिति बनाने की बात कही गई.


कदम उठाने से बचती है सरकार

इन गाइडलाइंस को जारी हुए 6 साल हो चुके हैं. गाइडलाइंस जस की तस हैं. ना कोई सजा का प्रावधान है ना कोई जुर्माना. गणेश चतुर्थी के संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक महत्व के चलते राज्य सरकारें भी कड़े कदम उठाने से बचती रही हैं. सरकारों को धर्म की ताकत का सही अंदाजा है.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइंस के बाद गुजरात सरकार ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां बनाने पर बैन लगाया और मूर्तिकारों से प्राकृतिक चीजों से मूर्तियां बनाने को कहा . मूर्तिकारों ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में इस फैसले को चुनौती दी और उनके हक में फैसला दे दिया गया.

भयानक हो सकते हैं परिणाम

हाल ही में कर्नाटक ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी मूर्तियों पर प्रतिबंध लगाया. एक सर्वे में खुलासा हुआ है कि इस साल अकेले बंगलुरू शहर में ही 30 हजार से ज्यादा प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी गणेश मूर्तियों की बिक्री हुई और पूरे कर्नाटक में 70 हजार से ज्यादा ऐसी मूर्तियां बेची गईं.

अगर धार्मिक उत्सव का पैमाना और भावनाएं सरकारों के लिए इतनी बड़ी हैं कि वो दखल देने से बचती हैं तो पर्यावरण विनाश उससे कहीं बड़ा और भयानक है जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.

अगर छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शनों के डर से इन चीजों को खुला छोड़ दिया गया तो हम अपने नदी-तालाबों और समंदर के पानी के भारी नुकसान को बढ़ावा दे रहे होंगे. वहीं पानी जिसके जरिए भगवान गणेश कैलाश तक की अपनी स्वर्गारोहण की यात्रा तय करते हैं.

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