अयोध्या भूमि विवाद पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक नाम फिर से चर्चा में आ गया है. ये नाम है गोपाल सिंह विशारद का. सुप्रीम कोर्ट ने अपने 1045 पेज के फैसले में गोपाल सिंह विशारद का भी जिक्र किया और उन्हें रामलला की पूजा का अधिकार दिया है. इसमें भी सबसे खास बात ये है कि विशारद को ये हक उनकी मृत्यु के 33 साल बाद मिला है.
लेकिन विशारद को अलग से पूजा की इजाजत क्यों? इसके लिए गोपाल सिंह विशारद के बारे में जानना जरूरी है.
गोपाल सिंह विशारद इस मामले के सबसे पहले मुद्दई थे. ये दावा किया जाता रहा है कि 22-23 दिसंबर, 1949 की रात अभय रामदास और उनके कुछ साथियों ने मस्जिद की दीवार फांदकर वहां राम-सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां रख दी थीं. इसके बाद गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की सिविल अदालत में केस दर्ज किया था. यही इस भूमि विवाद का सबसे पहला केस था और विवाद के 4 सूट में से एक था.
बीबीसी के मुताबिक गोपाल सिंह विशारद ने जनवरी 1950 में को सरकार, जहूर अहमद और अन्य मुसलमानों के खिलाफ दायर इस केस में कहा था कि ‘जन्मभूमि’ से इन मूर्तियों को न हटाया जाए. इसके साथ ही विशारद ने अपने मुकदमे में मांग की थी कि उन्हें रामलला के दर्शन और पूजा करने से रोका न जाए.
सिविल जज ने इस मुकदमे पर स्टे ऑर्डर लगा दिया था, जिसके बाद इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी चुनौती दी गई थी. इस तरह से इस पूरे विवाद का सबसे पहला सूट बना था.
गोपाल सिंह विशारद लगातार इस केस को लड़ते रहे. हालांकि 1986 में विशारद की मौत हो गई. इसके बाद से उनके बेटे राजेंद्र सिंह इस केस को आगे बढ़ाते रहे.
राजेंद्र सिंह की ओर से ही सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने भी पैरवी की थी. साल्वे ने ही मांग की थी कि इस केस को 3 जजों की बेंच से लेकर 5 जजों की बेंच के पास नहीं दिया जाना चाहिए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग को नहीं माना.
आखिर, 9 नवंबर 2019 को इसी 5 जजों की बेंच ने अयोध्या पर अंतिम फैसला दिया, जिसमें न सिर्फ विवादित जमीन का मालिकाना हक रामलला को दिया बल्कि इस पूरे विवाद के सबसे पहले मुद्दई यानी गोपाल सिंह विशारद को भी पूजा करने का अधिकार देने का ऐलान किया.
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