मैं आर्थिक अपराध बीट का रिपोर्टर था. हर्षद मेहता ने मुझे आर्थिक विषयों का पत्रकार बना दिया. मैं कभी ये दावा नहीं करता कि मैं आर्थिक पत्रकार हूं लेकिन वो कहते हैं ना- ऑन द जॉब ट्रेनिंग, शायद उसी वजह से कुछ लोग मुझे आर्थिक पत्रकार मान लेते हैं.
इस घोटाले की जांच की मैंने. जम कर रिपोर्टिंग की थी. तब मैं नवभारत टाइम्स में था और बाद में बिजनेस स्टैंडर्ड के लिए काम करता था.
हंसल मेहता की वेब सीरीज ‘हर्षद मेहता स्कैम 1992’ के बारे में पहले मैं एक रिपोर्टर के रूप में अपनी यादें और नजरिया शेयर करता हूं और उसके बाद सीरीज की समीक्षा करूंगा, हालांकि ये समीक्षा वाला काम मेरे ‘पे ग्रेड’ के बाहर का है.
हर्षद मेहता कांड की रिपोर्टिंग
सबसे गहरी याद ये है कि जिस दिन CBI के संयुक्त निदेशक के. माधवन को इस घोटाले की जांच सौंपी गई, मैं उसी दिन उनसे मिलने पहुंचा. माधवन बोफोर्स घोटाले की जांच के लिए अपनी निडरता और हिम्मत के लिए देश में जाना माना नाम हो गये थे. उन दिनों में घोटाले की लंबाई-चौड़ाई-गहराई और मोडस ऑपरेंडी पर सैकड़ों गुत्थियां थीं. हम लोग समझने की कोशिश ही कर रहे थे. मुझे जो थोड़ा बहुत समझ में आया, उस आधार पर मैंने माधवन से कुछ पूछा और कुछ बताया. लेकिन मैंने एक बड़ी धृष्टता भी की.
बड़ी विनम्रता से मैंने उन्हें सावधान किया कि ये घोटाला संगीन है और हो सकता है कि वो जांच पूरी न कर पाएं! मेरी काली जुबान! बात सही निकली. हर्षद ने राम जेठमलानी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव के घर एक करोड़ रुपए कैश पहुंचाने का आरोप लगाया. इसके बाद हालात तेजी से बदले और माधवन से जांच वापस ले ली गई.
दूसरी बड़ी याद संयुक्त संसदीय समिति की जांच के बारे में है. तब अखबार रात बारह बजे तक छपने चले जाते थे. लेकिन अक्सर ऐसा होता था कि समिति की बैठक रात दो-तीन बजे तक चलती थी. हमारे लिए यह घोटाला नहीं था. थ्रिलर था. इसको कवर करने का नशा ही अलग था.
इसीलिए हम उतनी रात तक ब्रीफिंग को सुनने के लिए पार्लियामेंट एनेक्सी में डटे रहते थे. हालांकि, ब्रीफिंग की खबर हमें समाचार एजेंसियों से अगले दिन मिल जाती लेकिन तब भी ऐसा बहुत कम हुआ कि हमने कभी इसकी ब्रीफिंग छोड़ी हो.
भारत के संसदीय इतिहास में ये समिति कई मायनों में अभी तक अभूतपूर्व है. इसमें देश के दिग्गज, ईमानदार, दबंग (और कुछ चालू पुर्जे) की भरमार थी. कांग्रेस के रामनिवास मिर्धा इसके अध्यक्ष थे. निर्मल चटर्जी, गुरुदास दासगुप्ता, जॉर्ज फर्नांडीस, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, मणिशंकर अय्यर, एस जयपाल रेड्डी, एस एस अहलूवालिया, मुरली देवड़ा और हरिन पाठक जैसे अनुभवी सांसद इस समिति के सदस्य थे. समिति ने लोगों की जिज्ञासा और दबाव को देखते हुए फैसला किया कि प्रेस को इसकी बकायदा ब्रीफिंग की जाएगी वरना आम तौर पर समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं और सिर्फ फाइनल रिपोर्ट ही सार्वजनिक की जाती है.
मेरी रिपोर्टिंग का फोकस आर्थिक अपराध, बिजनस-पॉलिटिक्स गठजोड़ और भ्रष्टाचार रहा, लेकिन ये मौका ऐसा था जहां पत्रकारिता और एक्टिविज्म की सीमाएं कहीं-कहीं मिल जाती थीं.
अब आप इसे सही कहें या गलत लेकिन एकाध मौके ऐसे भी आए, जहां सत्य की खोज के चक्कर में मैंने बाईलाइन की फिक्र छोड़कर खबर छापने के पहले कुछ सूचनाएं इस समिति के एकाध प्रतिष्ठित सदस्यों के साथ शेयर कीं ताकि समिति उसकी पड़ताल करे. मिसाल के तौर पर एक बड़े विदेशी बैंक के करीब 90 कर्मचारियों की एक लिस्ट हाथ लगी थी जो किसी नेता या बड़े अफसर के रिश्तेदार थे.
रिपोर्टरों की SIT
इसकी रिपोर्टिंग करते वक्त हम कुछ सम विचारी पत्रकारों ने, जिनमें कोई आपसी टकराव नहीं था, अपना “कार्टल” बना लिया था. हमने इसको नाम दिया था - SIT यानी संजय, सबीना इंद्रजीत (टाइम्स ऑफ इंडिया) और परंजॉय गुहा ठाकुरता (पायनियर). समिति की बैठकों के बाद हम आपस में सांसदों का बंटवारा कर लेते कि कौन किससे मिलेगा और फिर जानकारी शेयर कर लेते. एक्सक्लूसिव हो तो अपना-अपना.
सैकड़ों गवाहियां हुईं. समिति की सुनवाई महीनों तक चली. इस विषय पर मिर्धा साहब की पकड़ जबरदस्त थी. हम सबको आशा बंधी थी कि गलत और गैर कानूनी काम करने वालों को सजा दिलाने का पक्का काम होगा लेकिन क्लाइमैक्स वैसा ही हुआ जैसा भारत का रिवाज है. आलोचना लायक सारी बातें कहीं गयीं लेकिन कार्रवाई के नाम पर जो अंतिम निचोड़ था वो इतना ही कि यह घोटाला सिस्टम की कमजोरियों के कारण हुआ है और सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए दर्जनों उपाय सुझा दिए गए.
निष्कर्ष एक लाइन का है पिछले 28 वर्षों में भारत के आर्थिक और वित्तीय सिस्टम में कितना कुछ बदला है लेकिन दरअसल कुछ नहीं बदला है. तब हर्षद मेहता था और अब नीरव मोदी है.
आर्थिक सुधारों के ऐलान के दौरान ही ये बैंकिंग शेयर सिक्युरिटीज का तिकोना घोटाला हुआ था. तब भारत का वित्तीय सिस्टम बाबा आदम के जमाने का था. हर्षद कांड की जांच के बाद आखिर में यह बात सामने आई कि रेगुलेशन और निगरानी की कमी थी. कुछ सरकारी बैंकों के छोटे मुलाजिम और बड़े गैर सरकारी घोटालेबाज बड़ा कांड कर सकते थे.
हर्षद का दौर एनालॉग का था और बैंक रजिस्टर में फर्जी इंट्री या बैंक रसीद जैसे कागज बनाकर बैंक से पैसे की हेरा-फेरी हो सकती थी. 2000 तक सिस्टम थोड़ा दुरुस्त हुआ. स्टैट्यूटरी रेगुलेटर आ गए. तब भी केतन पारेख का शेयर स्कैम हुआ.
अब हम ग्लोबल हैं. डिजिटल और कनेक्टेड दुनिया में हैं, तब भी एक नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक में निगरानी से दूर दो छोटे कर्मचारियों को पकड़कर बिना कोलैटरल रखे लेटर ऑफ अंडरस्टैंडिंग ले सकता है और बैंक को करोड़ों का चूना लगा सकता है. डीएचएफएल एक सहकारी बैंक को अपना पालतू बना सकता है. आईएल एंड एफएस बिना पकड़ाए एक लाख करोड़ रुपए उड़ा सकता है.
जांच एजेंसियां तब भी पिंजरे में बंद तोता थीं. अब भी तोता हैं.
'हर्षद मेहता कांड' का रिव्यू
तो अब आते हैं वेब सीरीज की समीक्षा पर. ये सीरीज औसत है. 10 एपिसोड बनाने के चक्कर में कहानी धीमी रफ्तार से बढ़ती है. दरअसल यह छह एपिसोड में बनती तो ज्यादा असरदार होती. चूंकि ये फिक्शन है इसलिए असली और नकली कहानी में थोड़ा घालमेल किया गया है. लेकिन चूंकि फिक्शन है इसलिए आप शिकायत नहीं कर सकते. इसमें किसी को न तो पूरी तरह से पाक साफ बताया है न ही खलनायक. तो यह भी हर्षद मेहता का सही चित्रण नहीं है. उसने बेहद सनसनीखेज अपराध किया था. उसके प्रति सिर्फ इसलिए हमदर्दी नहीं हो सकती कि सिर्फ वो पकड़ा गया, 'सूली' पर चढ़ा दिया गया और दूसरे बच गए.
मेहता शानदार फिल्मकार हैं. उन्होंने अलीगढ़ और ओमेरटा जैसी फिल्में बनायी हैं. वो इस सीरीज को ‘वूल्फ ऑफ वॉल स्ट्रीट’ या ‘न्यूजरूम’ जैसे क्लासिक स्तर पर ले जाने का माद्दा रखते हैं लेकिन ट्रेंड सेट करने का मौका चूक गए. दोष उनका नहीं शायद बजट का है.
मेरी एक और बड़ी शिकायत है कि मास अपील के चक्कर में स्कैम की पेचीदगी और प्रक्रियाओं को समझाने में कहानी काफी जगह बोझिल हो गई है. अगली शिकायत- यह मान लिया गया है कि हिंदी के नॉन मेट्रो, छोटे शहरों के दर्शक भदेसपन पसंद करते हैं. इसीलिए इसमें बेमतलब के मुहावरों की बौछार है. ऐसा लगता है कि डायलॉग राइटर ने मुहावरे लिखने के लिए ही स्क्रिप्ट लिख दी है.
वेब सीरीज खुला और नया आसमान है. इसे बॉलीवुड के फॉर्मूलाबाजों से बचाना जरूरी है. इस सीरीज के दूसरे एपिसोड में एक पात्र का डायलॉग है, जिसे मुंबई के फॉर्मूलाबाजों को जरूर याद रखना चाहिए-'तू भैंस के मुहावरे मारना बंद कर!'
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