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कृषि विधेयकों पर हरसिमरत का इस्तीफा: क्या NDA छोड़ेगा अकाली दल?

हरसिमरत का इस्तीफा हैरान करने वाला है क्योंकि अकाली दल ने पहले इन विधेयकों पर केंद्र का बचाव किया था

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भारत
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बीजेपी की सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर ने फूड प्रोसेसिंग के केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है. कौर का इस्तीफा नरेंद्र मोदी सरकार के खेती से संबंधित विधेयकों के खिलाफ हुआ है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कौर का इस्तीफा मंजूर कर लिया है.

इन विधेयकों का पंजाब और हरियाणा में जमकर विरोध हो रहा है. किसान आशंका जता रहे हैं कि ये कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) व्यवस्था को हटाने की तरफ एक कदम है.

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हरसिमरत का इस्तीफा हैरान करने वाला है क्योंकि अकाली दल ने पहले इन विधेयकों पर केंद्र का बचाव किया था.

यहां तीन सवाल महत्वपूर्ण हैं:

  • अकालियों ने अपना रवैया क्यों बदला?
  • क्या NDA छोड़ना अगला कदम होगा?
  • फरवरी 2022 में होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव के समीकरण बदल सकते हैं?

अकाली दल का यू-टर्न

एक महीने से भी कम समय पहले अकाली दल के कार्यकारी अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी पर किसानों को गुमराह करने का आरोप लगाया था. बादल का कहना था कि दोनों पार्टियां किसानों से कह रही हैं कि ये विधेयक MSP खत्म कर देंगे. बादल ने उस लेटर को भी सार्वजानिक किया, जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि MSP को छुआ भी नहीं जाएगा.

तो क्या बदल गया?

विरोध-प्रदर्शन बड़े हो गए

लेकिन तब से अब तक पंजाब में प्रदर्शन तेज हो गए हैं. कुछ गांवों ने ऐलान कर दिया है कि जो पार्टी विधेयकों का समर्थन करेंगी, उनके नेताओं की एंट्री बंद कर दी जाएगी.

किसानों के प्रदर्शनों को पंजाबी समाज के कई वर्गों का समर्थन मिल गया है. यहां तक कि एक्टर-सिंगर दिलजीत दोसांझ ने भी किसानों का समर्थन किया है.

विपक्ष ने नेतृत्व किया

अकाली दल परेशान इस बात से भी है कि इन विधेयकों के खिलाफ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बढ़-चढ़कर बोल रही हैं. अकालियों पर सवालों की बौछार हो रही थी और वो इनका जवाब नहीं दे पा रहे थे कि हरसिमरत कौर ने कैबिनेट में इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई.

अस्तित्व बचाने का मुद्दा

अकाली दल को मुख्य रूप से ग्रामीण सिख वोटरों का समर्थन रहता है. लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में किसानों ने अकालियों के खिलाफ निर्णायक रूप से वोट किया. बठिंडा, मनसा और बरनाला जैसे कॉटन-बेल्ट जिलों में गुस्सा सबसे ज्यादा था.

ये जिले मालवा क्षेत्र के हिस्से हैं. ये क्षेत्र सतलज के दक्षिण और यमुना नदी के उत्तर में पड़ता है. मालवा पारंपरिक रूप से मौजूदा प्रदर्शन समेत किसान आंदोलनों का गढ़ रहा है.

अकाली दल इस क्षेत्र में फिर से खुद को मजबूत करना चाहता है. केंद्र के विधेयकों के खिलाफ जाना इसका ही हिस्सा लगता है.

ध्यान भटकाने की तरकीबें

हरसिमरत कौर के इस्तीफे के पीछे एक वजह और हो सकती है. एक मर्डर और किडनेपिंग केस में फंसे पूर्व डीजीपी सुमेध सैनी के मामले में भी अकाली दल की आलोचना हो रही है. सैनी को बादल का करीबी माना जाता है और उन्हें बरगाड़ी अपवित्रीकरण और बहबल कलां फायरिंग मामले के मुख्य विलेन के तौर पर देखा जाता हैं. पंजाब में सैनी की गिरफ्तारी की मांग तेज हो गई है और बादल परिवार पर दबाव था. इस इस्तीफे की वजह विश्वसनीयता वापस पाना हो सकता है.

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अकाली-बीजेपी गठबंधन में दिक्कतें

शिवसेना के निकलने के बाद अकाली दल बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी बची है. दोनों पार्टियों का गठबंधन 1997 से है, जब दोनों ने मिलकर पंजाब में सरकार बनाई थी. नरेंद्र मोदी उस समय बीजेपी के राज्य इंचार्ज थे और गठबंधन बनाने में उनकी भूमिका अहम रही थी.

लेकिन ये गठबंधन पिछले कुछ समय से दिक्कत में है. और ये सुखबीर सिंह बादल के पार्टी कमान संभालने के बाद और ज्यादा बढ़ गया है. दोनों पार्टियां कई मुद्दों पर आमने-सामने आ चुकी हैं:

  • अकाली दल ने बीजेपी के साथ दिल्ली का चुनाव नहीं लड़ा था. बीजेपी ने अकालियों की छह सीटें और अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने की दो अहम शर्तें नहीं मानी थीं. अकाली दल ने बाद में बीजेपी को समर्थन का ऐलान कर दिया था, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था.
  • अकाली दल ने नागरिकता संशोधन कानून का विरोध किया था. पार्टी ने कहा था कि ये मुस्लिमों के साथ भेदभाव करता है. हालांकि, संसद में अकालियों ने इसका समर्थन किया.
  • दोनों पार्टियों ने हरियाणा का चुनाव अलग-अलग लड़ा.
  • महाराष्ट्र में बीजेपी की सत्ता के दौरान नांदेड़ में हुजूर साहिब के आंतरिक मसलों में कथित हस्तक्षेप को लेकर अकाली दल और बीजेपी आमने-सामने आ चुकी थीं.
  • अकाली दल के साथ गठबंधन के बावजूद बीजेपी विद्रोही अकाली नेताओं का समर्थन करती आई है. मोदी सरकार ने सुखदेव सिंह ढिंडसा को पद्म भूषण से सम्मानित किया. अकाली दल ने इसे सुखबीर बादल के नेतृत्व को कम आंकने की कोशिश के रूप में देखा. ढिंडसा बादल के आलोचक हैं.
  • पंजाब उन कुछ राज्यों में से है जो 2014 और 2019 में मोदी लहर से प्रभावित नहीं हुआ था. बीजेपी का 'अल्पसंख्यक-विरोधी' पार्टी समझा जाना भी उसके खिलाफ गया है. अगर इसी के साथ 'किसान-विरोधी' का तमगा भी जुड़ गया तो नतीजे भयानक होंगे और अकाली दल को भी सजा मिलेगी.

हालांकि, अकाली दल NDA छोड़ेगा या नहीं, इस बारे में कुछ भी कोर कमेटी की बैठक के बाद ही कहा जा सकता है.

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2022 के विधानसभा चुनाव की तैयारी

खेती संबंधी विधेयक चुनाव से पहले पंजाब के राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं.

BJP के लिए परेशानी

बीजेपी के ग्रामीण पंजाब में पैठ बनाने के सपने को भारी झटका लग सकता है. अल्पसंख्यक-विरोधी' और 'किसान-विरोधी' तमगा मिलने से बीजेपी पर सिर्फ शहरी हिंदू वोटों तक सिमटने का खतरा है. अगर 2017 का चुनाव देखें तो सिर्फ इस वोट बैंक के सहारे भी नहीं बैठा जा सकता है. मौर मंडी ब्लास्ट के बाद इस वोट बैंक का कांग्रेस की तरफ पलायन देखने को मिला था.

बीजेपी अकाली दल के साथ अपने समीकरण बदलने और ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के सपने देख रही थी, लेकिन इस कदम से ये भी दिक्कत में आ गया है.

कांग्रेस में उहापोह

मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का कार्यकाल ठीकठाक ही रहा है. सिंह की सरकार पर बरगाड़ी अपवित्रीकरण और बहबल कलां फायरिंग में कुछ न करने के आरोप लगे हैं. शुरुआत में सरकार ने किसानों के मुद्दे पर कुछ अच्छा काम किया था लेकिन अब वो भी नहीं भुनाया जा सकता है.

केंद्र के विधेयकों के खिलाफ गुस्सा कांग्रेस के लिए अच्छा मौका है. लेकिन इसमें भी पार्टी में तकरार चल रही है कि नेतृत्व कौन करेगा. अभी तक अमरिंदर सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन फतेहगढ़ साहिब के विधायक कुलजीत नागरा ने विधेयकों के खिलाफ इस्तीफा देकर आगे आने की कोशिश की है. वो पार्टी हाई कमांड के भी करीबी हैं.

AAP की दोबारा जिंदा होने की कोशिश

AAP इन विधेयकों के खिलाफ काफी मुखर हो रही है. 2017 में पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें कृषि संकट से जूझ रहे मालवा क्षेत्र से मिली थीं.

इस समय संगरूर के सांसद भगवंत मान विधेयकों के मुद्दे पर पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं.

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