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गिग वर्कर्स का दर्द सुनाती कविता: 'ऑर्डर' करना है फिर आज...'

"गिग वर्कर" उसे कहा जाता है जो ऊबर, जोमैटो जैसी जगहों पर अस्थायी कार्य करता है.

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भारत
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नए साल पर पार्टी हो या हो कोविड के दौरान आपके घर खाने का ऑर्डर, डिलिवरी बॉय ऑर्डर के साथ आपके लिए खुशियां लेकर आया. लेकिन कभी सोचा है कि वो किन हालात में काम कर रहा है. इन्हें गिग वर्कर भी कहा जाता है. हकीकत ये है कि ये काम के ज्यादा घंटे और कम कमाई पर भी बाइक दौड़ाते रहने को मजबूर हैं. न कानून इनकी पूरी सुरक्षा करता है और न ही समाज. ये कम वेतन वाले, अस्थिर और थकाऊ काम के पैटर्न में फंस गए हैं. इन्हीं का दर्द मेघा बहल अपनी इस कविता में बयां कर रही हैं.

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“ऑर्डर” करना है कुछ आज?

टेस्टी, इग्जाटिक, सात्विक!

राष्ट्रीय अखबार के मुख्य पृष्ठ पर रंगीन इश्तिहार

लगाता उपभोगताओं से गुहार.

पर नहीं बताता वह इश्तिहार...

कि “ऑर्डर” करना है फिर आज...

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एक वर्ग के नौजवानों को

दूसरे वर्ग की खिदमत में

तीसरे वर्ग की हुकूमत में

कि “ऑर्डर” करना है फिर आज...

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बाइकनुमा मजदूरों को

अतिव्ययी वर्ग की विलासिताओं की पूर्ति के लिए.

क्योंकि जब तक धुँध-धूप में फेरी लगा-लगाकर

केक, कबाब और सलाद नहीं करेंगे “डिलिवर”

तब तक नहीं सुलगेंगे रातों में चूल्हे खुद के घर.

“ऑर्डर” करना है फिर आज...

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कि हाजिर हों मजदूरों की फौज

अपने ही खर्च पर

उन कम्पनियों के मुनाफे के लिए

जिनकी लागत है केवल एक सॉफ्टवेर,

न कोई दफ्तर, न पगार

और जो मुलाजिमों को मज़दूर मानने से ही करती हैं इनकार.

कि “ऑर्डर” करना है फिर आज...

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ऐसे मजदूरों का श्रम

जिनसे सरकार को नहीं कोई सरोकार

जिन्हें प्राप्त नहीं कोई कानूनी सुरक्षा

बस कौशल विकास जैसी खोखली योजनाओं का भ्रम.

नहीं बताता राष्ट्रीय अखबार के मुख्य पृष्ठ पर छपा रंगीन इश्तिहार,

क्या “ऑर्डर” करना है फिर आज.

मेघा बहल

(मेघा बहल दिल्ली में वकालत करती हैं, आप उनसे इस ई-मेल एड्रेस पर कॉन्टैक्ट कर सकते हैं- postboxmegha@gmail.com)

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