ADVERTISEMENTREMOVE AD

Heatwave: क्या सचमुच गर्मियां औरतों के लिए ज्यादा खतरनाक है?

जलवायु परिवर्तन के जेंडर आधारित राष्ट्रीय आंकड़े इकट्ठा करना सबसे पहले जरूरी है.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (Oxford University Press) की एक मैगजीन सिग्निफिकेंस (Signcifance) में अप्रैल में एक फीचर छपा जिसका टाइटिल था, क्या हीटवेव्स (Heatwave) औरतों के लिए ज्यादा घातक हैं? इस रिसर्च पेपर में ढेरों दलीलें थीं, जो साबित करती थीं कि मौसम की मार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिए ज्यादा खतरनाक होती हैं.

बेशक, देश में हीटस्ट्रोक से मरने वालों का कोई जेंडर डेटा जारी नहीं हुआ है लेकिन यह भी सच है कि 2005 के बाद से गर्मी के कारण महिला मृत्यु दर में बढ़ोतरी हुई है, और पुरुषों की मृत्यु दर में गिरावट हुई है, जैसा कि सिग्निफिकेंस का पेपर बताता है. हालांकि देश में जलवायु परिवर्तन के लैंगिक आयाम को समझने के लिए राष्ट्रीय आंकड़े मौजूद नहीं हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

काम पर असर, आय पर असर

औरतें ज्यादा प्रभावित कैसे होती हैं, इसका पूरा विश्लेषण मौजूद है. लेकिन सबसे पहले यह समझना भी जरूरी है कि औरतों पर मौसम की मार का कितना असर होता है. देश और दुनिया में अनौपचारिक क्षेत्र में औरतों का हिस्सा सबसे ज्यादा है.

जैसे दुनिया में होम बेस्ड वर्कफोर्स में 65% औरतें हैं, और भारत में ऐसी सवा चार करोड़ औरतें हैं. ये सभी अपने घर के पास, या घर पर ही वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करती हैं.

दक्षिण एशिया में भीषण गर्मी का इन पर सबसे ज्यादा असर होता है, और एक्सपर्ट्स का कहना है कि अगर उनका रोजगार प्रभावित होता है, तो भारत में गरीबी उन्मूलन, खाद्य और आय सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में हुई प्रगति पर भी असर हो सकता है.

और, औरतों से ज्यादा कोई समूह इससे ज्यादा प्रभावित नहीं होता.

होम बेस्ड वर्कर्स के एक क्षेत्रीय नेटवर्क होमनेट साउथ एशिया की एक रिपोर्ट कहती है कि भीषण गर्मी के कारण 43% महिलाओं को आय का नुकसान हुआ और उनका केयरगिविंग का काम बढ़ा है. 2014 के एक नॉन प्रॉफिट जनरल प्लॉस की रिपोर्ट भी बताती है कि अहमदाबाद में पारा 47.8 डिग्री सेल्सियस होने पर महिलाओं की मौत अधिक संख्या में हुई.

  • ऑक्सफोर्ड के पेपर में इस बात का कारण बताया गया है. इसमें कहा गया है कि भले ही एक निश्चित मात्रा में तापमान अधिक होने पर सभी जेंडर के लोगों के लिए इससे निजात पाना मुश्किल होता है, लेकिन महिलाएं गर्मी से बचने की कोशिश कम करती हैं.

  • जब तक तापमान 32 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होता, तब तक महिलाएं किसी तरह का उपाय नहीं करतीं, जबकि पुरुष इससे बचने की कोशिश तभी से करने लगते हैं, जब पारा 28 या 29 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच जाता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

चूंकि चुप्पी ही उनकी सांस्कृतिक विशेषता मानी जाती है

यूं अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के साथ दूसरी सामाजिक दिक्कतें भी हैं. काम करने की जगहों का हवादार न होना और शौचालयों की कमी के कारण भी महिलाएं पानी पीने से बचती हैं, जो गर्मी दूर करने का सबसे आसान तरीका है. इस बारे में बात करने से बचा जाता है, क्योंकि हमारे यहां चुप्पी ही महिलाओं की सांस्कृतिक विशेषता मानी जाती है. उन्हें सिखाया जाता है कि उनमें हर विपरीत स्थिति को सहने की ताकत होनी चाहिए. इसी से उन्हें यह एजेंसी नहीं मिलती कि वे खुद के लिए ठंडक का बंदोबस्त कर सकें.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अभी पिछले महीने कोलकाता में इंडो ग्लोबल सोशल सर्विस सोसायटी ने अनौपचारिक क्षेत्र के 100 से ज्यादा लोगों के साथ एक वर्कशॉप की थी. उसमें एक महिला कंस्ट्रक्शन वर्कर ने बताया कि उन्हें गर्मियों में वही काम करने में 10 घंटे लगते हैं, जो वे आम तौर पर सात से आठ घंटे में कर लेती है. लेकिन काम के घंटे बढ़ने के बावजूद मजदूरी नहीं बढ़ती.

पुरुषों के मुकाबले उन्हें मजदूरी भी कम मिलती है. एक घरेलू कामगार ने कहा कि वह पानी पीने से बचती है क्योंकि जिन घरों में वह काम करती है, वहां उसे शौचालय इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता. कूड़ा बीनने वाली एक महिला ने कहा कि गर्मियों में कूड़ा बहुत बदबूदार हो जाता है, और वह कम कूड़ा बीन पाती है. जाहिर बात है, कम कूड़ा तो कम पैसे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जेंडर आधारित भूमिका औरतों को संवेदनशील बनाती है

बीना अग्रवाल जैसी अर्थशास्त्री इसे इकोफेमिनिस्म कहती हैं. उनके अनुसार, पर्यावरण के साथ महिलाओं का संबंध सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से परिवर्तनशील है. खासकर गरीब ग्रामीण महिलाएं पर्यावरणीय क्षरण की सबसे ज्यादा शिकार होती हैं. दरअसल प्रकृति के साथ मानवीय संबंध, उनकी भौतिक वास्तविकता में निहित होता है.

  • चूंकि श्रम का विभाजन और संपत्ति और ताकत का वितरण लिंग, वर्ग, जाति और नस्ल आधारित है इसलिए यह प्रवृत्ति प्रकृति के साथ लोगों के संबंधों की संरचना तैयार करती है. और इसी से तय होता है कि पर्यावरणीय परिवर्तन या क्षरण का सबसे अधिक असर किस पर होगा.

  • गरीब परिवार अपने जीविकोपार्जन के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं. इसीलिए वे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. औरतों की जेंडर आधारित भूमिका उन्हें और संवेदनशील बनाती है क्योंकि उन पर पानी, खाने और ईंधन का बंदोबस्त करने की जिम्मेदारी होती है.

  • इस कामों में पर्यावरणीय क्षरण और बढ़ते तापमान का सबसे ज्यादा महसूस किया जा सकता है. होम नेट की रिपोर्ट कह चुकी है कि गर्मियों में महिलाओं को केयरगिविंग और घरेलू काम में रोजाना दो घंटे ज्यादा बिताने पड़ते हैं. इससे उनका वर्क टाइम कम हो जाता है, जिसका सीधा असर आमदनी पर पड़ता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जेंडर आधारित हिंसा और बढ़ता तापमान

अब हर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का असर जेंडर आधारित हिंसा का कारण बन जाता है. जामा साइकैट्री की एक रिपोर्ट में दक्षिण एशिया में बढ़ते तापमान और महिलाओं के साथ इंटिनेट पार्टनर की हिंसा के बीच भयावह संबंध बताया गया है. इंटिमेट पार्टनर, यानी पति या प्रेमी. 2023 की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में इसका सबसे गंभीर असर देने को मिलेगा.

इस स्टडी में भारत, नेपाल और पाकिस्तान की 15 से 49 साल के बीच की करीब दो लाख महिलाओं से बातचीत की गई. इस बातचीत से पता चला कि सिर्फ औसत एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से भी घरेलू हिंसा में करीब 4.5% की वृद्धि हो जाती है.

इससे भी खतरनाक यह है कि असीमित कार्बन उत्सर्जन की स्थिति में 2090 तक इंटिमेट पार्टनर की हिंसा में करीब 23.5% की वृद्धि की आशंका है. चूंकि निम्न आय वाले और ग्रामीण परिवारों पर इस पर्यावरणीय स्थिति का दबाव गैर आनुपातिक रूप से पड़ेगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

एक्सपर्ट्स का मानना है कि जलवायु संबंधी चुनौतियों के कारण आर्थिक संकट आएगा और तनाव बढ़ेगा. कृषि उत्पादकता और रोजगार के अवसर कम होंगे. हीटवेव तो बढ़ेंगी ही, जो इस क्षेत्र में नजर आ ही रहा है. इससे औरतों का वर्कलोड बढ़ेगा और पुरुषों में परिवारों के लिए पर्याप्त संसाधन न जुटाने की हताशा और गुस्सा और बढ़ेगा. इसका असर सीधा महिलाओं पर ही होगा.

इसके अलावा महिलाओं की गायनकोलॉजिकल हेल्थ पर भी हीटवेव्स का असर होता है. यूटीआई और यीस्ट इंफेक्शन का खतरा बढ़ता है. तापमान के बदलते रहने के कारण खान-पान में परिवर्तन से पीरियड्स का साइकिल बदलता है.

सिर्फ गर्मी ही नहीं, दूसरे पर्यावरणीय परिवर्तनों से भी औरतें प्रभावित होती हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण औरतों के गर्भपात के मामलों में मैदानी इलाकों में रहने वाली औरतों के मुकाबले 1.3 गुना बढ़ोतरी हो जाती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

नीतिगत स्तर पर प्रतिनिधित्व बढ़ाने की जरूरत

सबसे पहले तो जेंडर आधारित आंकड़े इकट्ठा करने की जरूरत है. फिर नीतिगत स्तर पर महिलाओं की नुमाइंदिगी बढ़ने की भी जरूरत है. यूरोपियन जनरल ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी के 2019 के अध्ययन में कहा गया है कि राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व से अधिक कठोर जलवायु नीतियां अपनाई जा सकती हैं, और इसके परिणामस्वरूप कम उत्सर्जन होता है.

दरअसल महिलाएं न केवल जलवायु परिवर्तन का शिकार होती हैं, बल्कि उसे कम करने में बड़ी भूमिका भी निभाती हैं. कृषि जैवविविधता का संरक्षण इसका उदाहरण है.

2003 में ओडिशा की एक महिला ने धान की स्थानीय प्रजाति के संरक्षण और कोरापुट के किसानों को प्राकृतिक तरीके से खेती करने के लिए प्रोत्साहित करने पर इक्वेटर इनीशिएटिव अवार्ड जीता था. अफ्रीका में सोलर सिस्टर्स नाम का एक कलेक्टिव सोलर ग्रिड्स तैयार करके, ऊर्जा दक्षता बढ़ा रहा है. यानी जो शिकार है, वही इस प्रतिकूल स्थिति से निकलने का रास्ता भी तैयार कर सकता है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×