''हेमंत सरकार का जाना तो तय है''
सुबह के 7 बजे होंगे. चाय पीते हुए मेरे दोस्त ने ये कहा तो मैंने पूछा - ऐसा क्या हो गया भाई? तपाक से जवाब आया-'सरकार ने घाटों पर छठ पूजा की इजाजत नहीं दी है. लोग इसका जवाब जरूर देंगे.' मैंने समझाने की कोशिश की- ये तो आम जन की सुरक्षा के लिए ही है. उसने कहा कि जब उपचुनाव करा रहे थे तब लोगों की सुरक्षा का ख्याल नहीं आया?
ये बातचीत चल ही रही थी कि अखबार के फ्रंट पेज पर पहली खबर पर नजर पड़ी-झारखंड सरकार ने गाइडलाइन बदल दी- घाटों पर छठ पूजा की इजाजत दे दी थी.
जनता और नेता, दोनों का रवैया देख मेरे मन में यही बात आई- कोरोना से अब छठी मैया ही भक्तों को बचा सकती हैं.
घाटों पर पूजा की छूट मिली और भक्तों में जोश लौटा. लोग भर-भर के घाटों पर पहुंचे. सोशल डिस्टेसिंग की चिड़िया घाटों पर कहीं भी पर नहीं मार पाई.
दिल्ली में मार्च से लेकर नवंबर के पहले हफ्ते तक घर में बंद रहा. फिर ऐसी जरूरत पड़ी कि निकलना ही पड़ा. झारखंड पहुंचा तो लगा किसी दूसरे देश में पहुंच चुका हूं.
कोरोना को लेकर कोई खौफ नहीं. किसी के पास मास्क नहीं. दिवाली और छठ को लेकर बाजारों में पैर रखने की जगह नहीं. टोकने पर कहते- कोरोना का लेकर सिर्फ अफवाह है, यहां सब कुछ ठीक है. गरीब जांच कराने जाए तो निगेटिव, अमीर जाए तो पॉजिटिव.
एक से एक कॉन्सपिरेसी थ्योरी, बिना सिर पैर की. जिम्मेदार कौन है? वो पब्लिक जिन्हें चैनलों पर अब कोरोना को लेकर पहले जैसी गंभीरता नहीं दिखती, वो नेता जिनके भाषणों में पहले जैसी चेतावनी नहीं दिखती, वो सरकारी अमला जो अपनी हरकतों से दिखाता है कि संकट का टल गया है.
दिल्ली से रांची ट्रेन से गया था. स्टेशन पर वैसी ही भीड़. जिस सोशल डिस्टेंसिंग की अपील की गई थी वो कहीं नजर नहीं आई. न पब्लिक की तरफ से, न रेलवे की तरफ से. हर कम्पार्टमेंट में, हर सीट बुक. दो दिन में एक ट्रेन के बजाय एक दिन में दो ट्रेन चलाने में क्या दिक्कत है?
इतने बड़े संकट में भी बैलेंसशीट की चिंता है? साफ सफाई की भयानक कमी. किराया राजधानी ट्रेन का, सुविधाएं आम ट्रेन से भी बदतर. क्या संकट के समय सवारियों की मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं?
उस मित्र का संदेह तो वाजिब है. अगर कोरोना का प्रकोप पहले जैसा होता तो सरकार की तरफ से ऐहतियात न बरती जाती? दिल्ली से सोशल डिस्टेंसिंग की सलाह देंगे और बिहार की चुनावी रैलियों में जमकर भीड़ जुटाएंगे तो क्या संदेश जाता है?
वापसी में फ्लाइट का वही हाल. इतने सालों में पहली बार एंट्री गेट पर इतनी भीड़ देखी. इतने सालों में पहली बार सेक्योरिटी चेक में इतनी भीड़ देखी. पूछा- वजह क्या है? पता चला ढेर सारी फ्लाइटें शाम को ही शेड्यूल हैं. सिक्योरिटी चेक से आगे बढ़ा और मुड़ कर देखा तो सन्नाटा. यानी भीड़ एक बार आई, और फिर एकांत. क्या फ्लाइटों को इस तरह शेड्यूल नहीं कर सकते थे कि भीड़ एकबारगी जमा न हो?
दिल्ली एयरपोर्ट से कैब ली तो ड्राइवर से गुजारिश करनी पड़ी- भाई मास्क लगा लो. इस सबके बीच सच क्या है? सच ये है कि देश के कई हिस्सों में कोरोना का सेकंड अटैक हो चुका है. कई राज्यों में दोबारा लॉकडाउन की चर्चा है. नाइट कर्फ्यू है. मार्च से नवंबर आ गया, हमारा स्वास्थ्य सिस्टम अब भी तैयार नहीं है. और ऊपर से नीचे तक ये लापरवाही. बेरोजगारी और आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि फिर से बड़े लॉकडाउन की तरफ बढ़ सकते हैं.
ऊपर से जो छाती पीट-पीटकर कहा गया है कि हमने गजब के फैसलों से गजब का कोरोना कंट्रोल किया है, उसके कारण बड़ी सख्ती करने में भी झिझक भी होगी. झूठ पकड़ी जाएगी. वैक्सीन पर रोज नए दावे हैं लेकिन नजदीक कुछ दिखता नहीं. ऐसे में अब छठी मैया से ही मदद की उम्मीद है. लेकिन समझाने वाले ये भी समझाते हैं - भगवान भी उन्हीं की मदद करता है जो खुद की मदद करते हैं. पूरी सावधानी बरतिए, सेफ रहिए.
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