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कश्मीर ने साबित कर दिया, अब भी कमजोर नहीं पड़ा विपक्ष

विपक्ष मजबूत हो या कमजोर, वो सरकार की नाक में दम करने के लिए पर्याप्त होता है

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दुनिया के हर लोकतंत्र में सरकारें निडर होने का दावा करती रही हैं. हालांकि, ये दावे झूठे होते हैं. दरअसल, सरकार स्वभाव से ही बेहद डरपोक होती है. उसे हर वक्त जनता की नाराजगी का डर सताता है. बहादुर से बहादुर सरकार भी अपने विपक्ष से खौफ खाती है.

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सत्ता में मौजूद पार्टियां हमेशा चाहती हैं कि वो तो हर बात का राजनीतिक फायदा उठाती रहें, लेकिन विपक्ष किसी भी मुद्दे पर राजनीति न करे. राजनीतिक फायदे को सत्तारूढ़ पार्टियां अपना कॉपीराइट मानना चाहती हैं. विपक्ष का राजनीतिक रोटियां सेंकना सत्ता में मौजूद पार्टियों को नागवार लगता है. 
विपक्ष मजबूत हो या कमजोर, वो सरकार की नाक में दम करने के लिए पर्याप्त होता है

सच्चाई तो ये है कि मोदी सरकार को आर्टिकल 370 बेअसर करना था और उसने ऐसा कर दिया. उसका तरीका सही था या गलत, ये सुप्रीम कोर्ट ही तय करेगा. संविधान ने सिर्फ उसे ही इसका हक दिया है. वो जब भी तय करेगा, तब की तब देखी जाएगी. तब तक तो जिसकी लाठी उसकी भैंस.

रही बात इस मामले पर आलोचना की, तो इसकी परवाह किसे है? सरकार ने अगर आलोचना की परवाह की होती, अगर आम सहमति का रास्ता पकड़ा होता तो फिर वो कभी अपने मकसद को हासिल नहीं कर पाती. सरकार ये दिखाना चाहती है कि वो बेहद बहादुर है. उसे चुटकियों में कड़े से कड़े फैसले लेना आता है. सरकार दिन-रात दावा कर रही है कि उसने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया है. इसीलिए अगर विपक्षी नेताओं को जम्मू-कश्मीर में जाने दिया गया, अगर गिरफ्तार नेताओं को रिहा कर दिया जाए तो फिर ये कैसे साबित होगा कि उसने चमत्कार कर दिखाया है? सरकार का एक ओर तो दावा है कि वो कश्ती को तूफान से निकाल रही है. वहीं दूसरी ओर अघोषित तौर पर ये भी बता रही है कि हालात कांच की तरह नाजुक हैं. जरा सी चूक हुई नहीं कि कांच हुआ चकनाचूर.

सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस की कुल संख्या के लिहाज से देखें तो जम्मू-कश्मीर में सात लाख से ऊपर सुरक्षाकर्मी हैं. इसमें से अगर सौ-सवा को विपक्षी नेताओं के आगे-पीछे लगाना भी पड़े तो यकीन जानिए, किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता. इसीलिए सरकार की सारी दलीलें कमजोर और सच्चाई से परे हैं.

दरअसल सरकार नहीं चाहती कि उससे नाराजगी या असहमति रखने वाले लोगों की बातें विपक्ष और मीडिया के जरिए देश-दुनिया तक पहुंचे. सरकार को डर है कि विपक्षी नेताओं के सामने एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं पहुंचेगा जो सरकार की तारीफों के पुल बांध दे, जो कहे कि ‘वाह, मोदी सरकार, तुमने तो कमाल कर दिया. ऐसा इतिहास रचा कि हमें जन्म-जन्मान्तर की जुल्म-ज्यादती से छुटकारा मिल गया.’

सरकार को अगर जरा भी उम्मीद हो कि विपक्षी नेताओं को उसकी वाहवाही भी सुनाई दे सकती है तो फिर वो विपक्ष का रास्ता रोके ही क्यों? फिर तो विपक्ष का स्वागत होना चाहिए. उन्हें विशेष मेहमान का दर्जा मिलना चाहिए. खूब मान-सत्कार होना चाहिए. मगर कश्मीर में हालात बिल्कुल उलटे हैं. विपक्ष को अच्छी तरह पता है कि सरकार के दावे खोखले हैं. कश्मीर के कई विपक्षी नेता गिरफ्तार या नजरबंद हैं. इसलिए नहीं कि मोदी सरकार को कोई नया शौक चर्राया है, बल्कि इसलिए कि वो डरती है कि विपक्षी नेता अपने बचे-खुचे जनाधार की बदौलत उसके तमाम वादों-इरादों की कलई खोल देंगे. कलई खुलते ही सरकार की छीछालेदर होगी. लोगों का गुस्सा फट पड़ेगा. सरकार को जनता का गुस्सा हजम नहीं होता. यानी ‘न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी’.

सरकारें खुद अपनी छीछालेदर करवाने में भले ही कोई कसर नहीं छोड़ें, लेकिन विपक्ष के योगदान से पनपने वाली छीछालेदर उनके लिए अछूत जैसी होती है. वरना जरा सोचिए कि जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक को राहुल गांधी को कश्मीर आकर हालात देखने की चुनौती देने की क्या जरूरत थी. अरे, कहने देते उन्हें, जो भी वह कह रहे थे. क्या उन्हें राजनीति करने का अधिकार नहीं है? क्या उनकी पार्टी का उस राज्य में कोई वजूद नहीं है? 

क्या कल को जब हालात सामान्य होंगे तो उनकी पार्टी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होगी, चुनाव नहीं लड़ेगी? क्या तब उनके समर्थक उनसे नहीं पूछेंगे कि भाई, तब कहां थे, जब हमें हुकूमत ने ‘नजरबंद’ कर रखा था? स्कूलों-कॉलेजों पर ताला लटका था. अस्पताल जाना मुहाल था. फोन-इंटरनेट-अखबार-टीवी बंद पड़े थे. CrPC की धारा 144 की आड़ में अघोषित कर्फ्यू का आलम था.

विपक्ष मजबूत हो या कमजोर, वो सरकार की नाक में दम करने के लिए पर्याप्त होता है

सरकार की दलील है कि एहतियात के नाते ये सारे प्रतिबंध जरूरी थे. अब कुछ प्रतिबंधों में ढील दी गई है, आगे भी दी जाएगी. सरकार को पूरा हक है कि वो हालात के मद्देनजर जान-माल की हिफाजत के लिए जो सही समझे, वो करे. मगर यही हक विपक्ष को क्यों नहीं है? वो भी ऐसे विपक्ष को, जिस पर ‘आजाद भारत के सबसे कमजोर विपक्ष’ का ठप्पा लगाया जाता है. अब अगर ऐसे ‘कमजोर’ विपक्षी नेताओं का जम्मू या श्रीनगर पहुंचना भी सरकार को डरा सकता है, तो इसके कई मायने हैं. पहला, संसद में विपक्ष की संख्या भले ही कम हो, लेकिन राजनीति के अखाड़े में वो कमजोर नहीं है, 'बहादुर' सरकार को भी उसका डर तो सताता ही है. दूसरा, कश्मीर में हालात सामान्य होने का सरकार चाहे जितना दावा करे, लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि हालात इतने असामान्य और तकलीफदेह हैं कि सरकार उनको विपक्ष की नजरों से छिपाना चाहेगी.

सरकारों को संवेदनशील जगहों पर विपक्षी नेताओं का जाना कभी बर्दाश्त नहीं हुआ. जो पार्टियां आज विपक्ष में हैं, वो जब सत्ता में थीं तो उन्होंने भी कई बार ऐसा ही किया है. ऐसी सैकड़ों मिसालें हैं जब विपक्ष को नागवार ताकतों को उकसाने वाला माना गया. लगभग हर पार्टी ने सरकार में रहते हुए यही संस्कार अपनाया. फिर चाहे बात किसी हिंसा या संघर्ष की हो या फिर दैवीय आपदा की. अब सवाल ये है कि सरकारों को ऐसा क्यों लगता है कि हालात की संवेदनशीलता को समझने और उससे निपटने का कौशल सिर्फ उसी के पास है और विपक्ष का काम खेल बिगाड़ने का है. लोकतंत्र न जाने कब इतना परिपक्व होगा, जब सत्ता में मौजूद पार्टियां ये यकीन करने लगेंगी कि विपक्ष को भी उसी जनता ने ही सरकार पर नजर रखने का जिम्मा सौंपा है, जिसने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया है.

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