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राफेल डील: किस तरह घाटे में डूबे अनिल अंबानी के जहाज को मिला सहारा

प्रधानमंत्री ने 11 अप्रैल को राफेल डील के फाइनल होने की जानकारी प्रेस को दी

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28 फरवरी 2017 को राफेल डील हासिल करने में कामयाब होने के बाद रिलायंस एडीए ग्रुप के चेयरमैन अनिल अंबानी पहली बार 80 चुनिंदा मार्केट एनालिस्ट से बात कर रहे थे. अनिल ने बड़े उत्साह से वहां बैठे लोगों को बताया था कि भारत के डिफेंस सेक्टर में आने वाले 15 साल में 15 लाख करोड़ रुपए पैदा करने का मौका है. उन 80 एनालिस्टों को ये बात समझ में आ रही थी कि शायद राफेल डील ने अनिल अंबानी की डूबती कंपनी को जीवनदान दे दिया है.

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2002 में धीरूभाई अंबानी की मौत के बाद उनके दोनों बेटों- मुकेश और अनिल में दूरियां बढ़ने लगी थीं. आखिरकार 2006 में अनिल ने अपने भाई मुकेश से अलग होकर नया बिजनेस ग्रुप खड़ा किया, जिसे उन्होंने नाम दिया रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप यानी रिलायंस एडीए ग्रुप.

अपने तड़क-भड़क वाले अंदाज में बिजनेस करने के लिए मशहूर हो चुके अनिल के नए कारोबार की शुरुआत भी इसी अंदाज में हुई. 2008 में जब वो अपनी कंपनी रिलायंस पावर का IPO लेकर आए, तो इंवेस्टर्स जैसे उन पर कुर्बान हो गए. महज कुछ मिनटों में अनिल अंबानी की नई नवेली कंपनी ने 300 करोड़ डॉलर जुटा लिए थे.

इस समय तक उनके ग्रुप की कुल संपति 4200 करोड़ डॉलर थी. यह रकम भारत के सालाना रक्षा बजट के डेढ़ गुने से भी ज्यादा थी. इसी साल छपी फोर्ब्स मैगजीन की लिस्ट के मुताबिक, अनिल दुनिया के छठे अमीरआदमी थे. लेकिन 2018 तक ये जायदाद सिकुड़कर 240 करोड़ डॉलर रह गई है.

ताजा आंकड़ों के मुताबिक, रिलायंस एडीए ग्रुप की चार कोर कंपनियों- रिलायंस इंफ्रा, रिलायंस कैपिटल, रिलायंस पावर और रिलायंस कम्युनिकेशंस पर कुल कर्ज 1 लाख करोड़ रुपए या 1500 करोड़ डॉलर से ज्यादा का है. यानी कंपनी की जायदाद से 6 गुना ज्यादा कर्ज उस पर है.

जिस रिलायंस पावर के लिए उन्होंने कुछ ही मिनटों में 300 करोड़ डॉलर या 15,000 करोड़ रुपए जुटाए थे, 2017 के अंत तक उसकी नेटवर्थ 21,000 करोड़ रुपए पर सिमट चुकी थी. ग्रुप की एक दूसरी कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशंस पर करीब 45,000 करोड़ रुपए का कर्ज जून 2017 तक था.

बैंकों की तरफ से दबाव बढ़ने पर अनिल अंबानी ने अपने बिजनेस का कुछ हिस्सा मुकेश अंबानी की कम्युनिकेशन कंपनी रिलायंस जिओ को बेचने का ऐलान किया. अगस्त 2018 में ये सौदा हुआ. लेकिन रिपोर्ट्स के मुताबिक इससे हासिल रकम रिलायंस कम्युनिकेशंस के कुल कर्ज का आधा भी नहीं है.

नया जीवनदान

1999 के कारगिल ऑपरेशन के बाद इंडियन एयरफोर्स के लड़ाकू विमानों के फ्लीट को अपडेट करने की जरूरत महसूस होने लगी थी. साल 2000 में पता चला कि एयरफोर्स के पास मौजूद कुल विमानों में से 40 फीसदी विमान रिटायरमेंट की उम्र में आ चुके हैं. ऐसे में आने वाले समय में एयरफोर्स को 126 नए लड़ाकू विमानों की जरूरत पड़ेगी.

इसके बाद तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने डिफेंस सेक्टर में 26 फीसदी विदेश निवेश को मंजूरी दी और भारतीय वायुसेना के लिए अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों की खरीद की प्रक्रिया शुरू हुई.

विमान खरीद के शुरुआती दौर में राफेल दूर-दूर तक कोई नाम नहीं था. इस समय तक भारत मिराज 2000 विमान लेने का मन बना चुका था. ये भी फ्रेंच कंपनी दसॉ का प्रोडक्ट था. उस समय की बीजेपी सरकार ने 10 नए मिराज 2000 विमानों की खरीद का ऑर्डर दसॉ को दे दिया. इस बीच दसॉ एक कमीशन विवाद में फंस गई और सौदा रद्द हो गया.

2004 में आई यूपीए सरकार ने 126 लड़ाकू विमानों की खरीद को नए सिरे से शुरू किया. इसके लिए सरकारने 42,000 करोड़ की रकम तय की. यह भारत का अब तक का सबसे बड़ा रक्षा सौदा था. अगस्त 2007 में भारत सरकार ने विमानों के लिए टेंडर मंगवाए और राफेल के टेंडर को सबसे किफायती पाया गया.

संयोग ये कि मिराज-2000 की ही तरह राफेल भी दसॉ का ही प्रोडक्ट था, लेकिन इसे अब तक कोई खरीदार नहीं मिल सका था. ऐसे में इतनी बड़ी डील दसॉ के लिए नई जिंदगी पाने जैसा था, लेकिन इस डील को अभी एक और कंपनी को ऑक्सीजन देनी थी.

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डूबते जहाज को तिनके का सहारा

दसॉ (Dassault) के साथ करार की शर्तें तय नहीं हो पाने की वजह से यूपीए सरकार राफेल डील फाइनल नहीं कर पाई थी. लिहाजा ये जिम्मा 2014 में आई बीजेपी सरकार पर था. पिछली सरकार में हुई डील के मुताबिक, दसॉ को 18 विमान फ्लाईअवे कंडीशन में भारत को देने थे और बाकी 108 विमान उसे भारतीय कंपनी के साथ साझेदारी में बनाने थे. ये भारतीय कंपनी एचएएल होगी, मार्च 2015 तक यही तय था. लेकिन 2015 के अप्रैल में सबकुछ बदल गया.

प्रधानमंत्री ने 11 अप्रैल को राफेल डील के फाइनल होने की जानकारी प्रेस को दी. इसके कुछ ही घंटों के बाद रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर समाचार चैनलों पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे. उन्होंने 17 साल बाद इस रक्षा सौदे के फाइनल होने पर अपनी सरकार को बधाई दी, हालांकि डील के डिटेल्स उन्हें नहीं मालूम थे. यहीं से संदेह पैदा होना शुरू हो गया.

भारत सरकार के साथ हुए नई डील के मुताबिक, दसॉ को सौदे की कुल रकम का 50 फीसदी हिस्सा भारत में निवेश करना था. यानी 60,000 करोड़ के रक्षा सौदे में से दसॉ को 30,000 करोड़ की रकम भारत में लगानी थी.

बुरी तरह कर्जे में फंसे अनिल अंबानी अप्रैल 2015 के फ्रांस दौरे के दौरान प्रधानमंत्री के साथ थे. उन्होंने इस सौदे के महज 13 दिन पहले ही रिलायंस डिफेंस लिमिटेड नाम से नई कंपनी का रजिस्ट्रेशन करवाया था. खास बात ये थी कि दसॉ के साथ हुए नए करार से एचएएल गायब हो चुकी थी और नई पार्टनर थी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड. दोनों कंपनियों ने मिलकर नया वेंचर खड़ा किया, 'दसॉ रिलायंस एरोस्पेस लिमिटेड', जिसकी मैन्युफैक्चरिंग फेसिलिटी का निर्माण नागपुर में शुरू हो चुका है.

इनपुट: Caravan magazine

(इस आर्टिकल के कुछ तथ्‍य Caravan magazine की कवर स्टोरी On A Wing And A Prayer से लिए गए हैं )

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