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ये यूपी की सबसे बड़ी समस्या के समाधान का रोडमैप है!

सरकार होम बायर्स की समस्या सुलझाना चाहती है, लेकिन जो रास्ता अपना रही है उससे समाधान मिलना आसान नहीं है, ऐसे में...

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भारत
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उत्तर प्रदेश के सबसे चमकते शहर भयानक अवसाद में दिख रहे हैं. अवसाद से घिरे ये शहर, उत्तर प्रदेश के तीनों नए बने औद्योगिक शहर हैं. इन शहरों में रहने वाले लाखों घर खरीदारों के लिए ये सबसे मुश्किल समय है. खरीदारों को घर नहीं मिल रहा है या घर मिल भी गया है, तो उसके अधिकृत मालिक बनने का रास्ता बंद दिख रहा है. सरकारी खजाने को भी तगड़ी चोट लग रही है. कुल मिलाकर देश-दुनिया के निवेशकों के लिए उत्तर प्रदेश के सबसे चमकते शहरों पर दिख रही दरार बड़े संकट की ओर इशारा कर रही है. इस बात अंदाजा उत्तर प्रदेश में ताजा बनी योगी सरकार को भी अच्छे से है. यही वजह है कि सरकार ने 3 मंत्रियों की एक समिति बना दी है, जो नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेसवे में पिछले डेढ़ दशक में बिल्डर-अथॉरिटी के गंदे गठजोड़ की वजह से उपजी समस्या का समाधान खोज रही है.

यह समस्या कितनी बड़ी है पहले इसको समझ लेते हैं. ग्रेटर नोएडा के कुल 203 हाउसिंग प्रोजेक्ट में से 82 बेहद गम्भीर हालत में हैं. इन प्रोजेक्ट के बिल्डर पर सरकार का 7200 करोड़ रुपए बकाया है. नोएडा में ऐसे करीब 90 प्रोजेक्ट हैं, जिनसे सरकार को 10125 करोड़ रुपए वसूलना है और यमुना एक्सप्रेसवे अथॉरिटी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले 13 बिल्डर ऐसे हैं, जिन पर करीब 3000 करोड़ रुपए की देनदारी बनती है.

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समस्या सुलझाने के प्रति गंभीर है सरकार

सरकार के लिए खजाने पर तगड़ी चोट करने वाले इन प्रोजेक्ट में घर पाने के इंतजार में लाखों ग्राहक बरसों से राह तक रहे हैं. घर खरीदारों की रकम भी गई है और नियमित तनाव की वजह से उनकी निजी जिंदगी की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. सरकार इस मुश्किल को सुलझाने में गंभीर है, इस पर मुझे संदेह नहीं है.

खरीदारों, अथॉरिटी के साथ मीटिंग में उद्योग मंत्री सतीश महाना ने साफ कहा कि- “यह समिति समाधान खोजने के लिए बनी है, जिससे खरीदारों को राहत मिल सके और खरीदारों को घर दिलाने या फिर रिफंड दिलाने का रोडमैप दिए बिना हम वापस नहीं जाएंगे. उद्योग मंत्री सतीश महाना की अगुवाई में बनी इस समिति में शहरी विकास सुरेश खन्ना और गन्ना विकास राज्य मंत्री सुरेश राणा शामिल हैं.

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इस समस्या का समाधान आसान नहीं

सतीश महाना का मकसद सही है लेकिन, मुझे सबसे बड़ी मुश्किल ये दिख रही है कि सरकार इसे सुलझाने के लिए पारंपरिक रास्ते पर ही है, जिससे इस जलेबी की तरह उलझी हुई समस्या का समाधान मिलने से रहा. सरकार इस मुश्किल को सिर्फ इस तरह से देख रही है कि यह समस्या सरकारी खजाने के नुकसान और ग्राहकों को कब्जा न मिलने तक है. इसीलिए सरकार दिवालिया हुए जेपी के खरीदारों को भरोसा दिला रही है.

यमुना एक्सप्रेसवे अथॉरिटी के सीईओ अरुणवीर सिंह ने कहाकि- “3367 से ज्यादा जेपी के खरीदारों को हम किसी भी कीमत पर रिफंड दिलाएंगे. इसमें जेपी के 6 प्रोजेक्ट के खरीदार शामिल हैं.”

सरकार बार-बार कह रही है कि खरीदारों का हक सुरक्षित रखने के लिए जरूरत पड़ी, तो दिवालिया हो रही कंपनियों की सारी संपत्ति बेचकर भरपाई की जाएगी. लेकिन, सरकार को ये समझना होगा कि बिल्डरों ने खरीदारों से, बैंकों से पैसे लेकर और सरकारी खजाने में रकम न देकर अपनी निजी संपत्ति बनाई है. क्या उस पर सरकार किसी तरह की कार्यवाही कर सकती है?
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समाधान के लिए पहले समस्या को समझना होगा

यहां सरकार को मेरी सलाह है कि इस समस्या को पहले 4 हिस्सों में बांटकर उसका समाधान खोजने की तरफ बढ़ना चाहिए.

पहली श्रेणी में जेपी जैसी कंपनियों के प्रोजेक्ट आते हैं, जो दिवालिया घोषित हो चुकी कंपनी है और एनसीएलटी के तहत तय प्रक्रिया से सरकार, अथॉरिटी के साथ मिलकर ग्राहकों को उनका हक दिलाने का रास्ता खोज रही है. इसके लिए एनसीएलटी के तय प्रावधानों में थोड़े बदलाव के साथ खरीदारों के हित को सबसे ऊपर रखने की जरूरत है. क्योंकि, अभी किसी कंपनी के दिवालिया होने की स्थिति में खरीदार का हित सबसे नीचे आता है.

जेपी के उदाहरण से समझें, तो जेपी की संपत्तियां बेचने के बाद सबसे पहले बैंक और नोएडा अथॉरिटी के बीच बंटेगी. दूसरे नंबर पर हक बनता है श्रम विभाग और दूसरी ऐसी देनदारियों का. तीसरे नंबर पर जेपी के वेंडर और ठेकेदार आते हैं और सबसे आखिर में बची रकम ग्राहकों को दी जाएगी. जाहिर है, इसमें हमेशा खरीदार ही घाटे में रहेगा. और सिर्फ खरीदार घाटे में नहीं रहेगा, प्रदेश की अर्थव्यवस्था के साथ बैंकों की अर्थव्यवस्था भी चरमरा जाएगी.

इसीलिए जरूरी है कि सरकार सबसे पहले खरीदारों को घर दिलाए. क्योंकि, खरीदारों को घर मिलने से सरकार को अलग-अलग मदों से मिलने वाली नियमित आमदनी शुरू होगी और ऊपर के तीनों के हित खरीदारों के साथ सुरक्षित हो सकते हैं. अधिकांश मामलों में बैंक जिस बिल्डर को कर्ज देते हैं, ज्यादा खरीदार भी उन्हीं बैंकों से कर्ज लेते हैं. इस लिहाज से खरीदार को घर मिलने से महीने की ईएमआई के साथ संपत्ति को सुरक्षित रखा जा सकता है.

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ताकि, बिल्डर न ले सकें नया कर्ज

दूसरी श्रेणी उन हाउसिंग प्रोजेक्ट की है, जहां बिल्डर दिवालिया होने के रास्ते पर है. इसमें प्रमुख रूप से आम्रपाली जैसी कंपनियां आती हैं.

आम्रपाली जैसी कंपनियों के पास बहुत बड़ा लैंडबैंक है, जिसे नोएडा अथॉरिटी के पुराने सीईओ रमारमण ने सिर्फ 10 प्रतिशत रकम जमाकर बिल्डर को दे दिया था. ऐसे ढेर सारे बिल्डर हैं, जिसमें आम्रपाली प्रमुख है. ऐसे प्रोजेक्ट को चिन्हित करके बिल्डर की खाली पड़ी जमीनों पर सरकार को कब्जा तुरंत करना चाहिए, जिससे कि ऐसी कंपनियां उस जमीन के आधार पर गुपचुप किसी तरह का नया कर्ज न ले सकें या कोई सौदेबाजी न कर सकें.

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नियम विरुद्ध हो रही है बिजली-पानी और मेनटेनेन्स के लिए वसूली

तीसरी श्रेणी उन हाउसिंग प्रोजेक्ट की है, जिन्होंने बिना प्रोजेक्ट पूरा किए खरीदारों को घर रहने के लिए दे दिया और कम्प्लीशन सर्टिफिकेट न मिलने से खरीदारों के घर की रजिस्ट्री नहीं हो पा रही है और बिल्डर नियमों के विरुद्ध जाकर बिजली, पानी और मेनटेनेन्स की वसूली कर रही है और वो भी रकम पूरे तौर पर सरकारी खजाने में नहीं जा रही है.

ऐसी श्रेणी के ही एक हाउसिंग प्रोजेक्ट आम्रपाली प्लैटिनम में मैं खुद रहता हूं. 14 नवंबर 2013 को जब प्रोविजनल सर्टिफिकेट के आधार पर मैंने वहां रहना शुरू किया था, तब भी वो प्रोजेक्ट लगभग पूरा था. पिछले 2 साल से ज्यादा समय से उस प्रोजेक्ट में कोई नया काम नहीं हुआ है. अथॉरिटी में ये प्रोजेक्ट 90 प्रतिशत से ज्यादा पूरा है. लेकिन, अथॉरिटी की बड़ी देनदारी (जिसमें देरी की वजह से जुड़ी पेनाल्टी भी जुड़ती जा रही है) की वजह से उसको कम्प्लीशन सर्टिफिकेट नहीं मिल रहा है.

कमाल की बात ये कि कम्प्लीशन सर्टिफिकेट के बिना पजेशन नहीं दिया जा सकता और पजेशन प्रोविजनल दिया भी गया, तो मेनटेनेन्स नहीं वसूला जा सकता. लेकिन, आम्रपाली बिजली, पानी से लेकर हर सुविधा के लिए खरीदारों से सवा 2 रुपए प्रति वर्गफुट का मेनटेनेन्स वसूल रही है. बिजली प्रीपेड है. लेकिन, फिर भी बिजली विभाग को पूरी रकम नहीं दी जा रही है.

 सरकार होम बायर्स की समस्या सुलझाना चाहती है, लेकिन जो रास्ता अपना रही है उससे समाधान मिलना आसान नहीं है, ऐसे में...

ऐसे मामले में सबसे सीधा रास्ता ये है कि अथॉरिटी खरीदारों की रजिस्ट्री करे, जो घर ऐसे प्रोजेक्ट में नहीं बिके हैं, उन पर कब्जा करे. रजिस्ट्री होने से सरकारी खजाने में एक बड़ी रकम आएगी. बिजली विभाग और दूसरे सरकारी बिल समय पर जमा होंगे. ऐसी सोसाइटी में सरकार चुनी हुई एसोसिएशन को मेनटेनेन्स का काम सौंप सकती है. बिल्डर ने जो रकम पहले से वसूली है और जमा नहीं की है, उसके लिए सरकारी खजाने को चोट पहुंचाने और धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया जाना चाहिए.

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कंपनियों के निदेशकों की संपत्ति का होना चाहिए ऑडिट

चौथी श्रेणी उन हाउसिंग प्रोजेक्ट की है, जहां खरीदारों ने बुकिंग करा ली है लेकिन, उस प्रोजेक्ट पर अभी बहुत कम काम हुआ है या लगभग ना के बराबर हुआ है. ऐसे प्रोजेक्ट को एक साथ मिलाकर देखने की जरूरत है. सबसे पहले एक बिल्डर के कई प्रोजेक्ट को मिलाकर एक प्रोजेक्ट करने की कोशिश होनी चाहिए. कहीं पर एक बिल्डर के कई प्रोजेक्ट नहीं हैं, तो छोटे-छोटे बिल्डरों के प्रोजेक्ट एक साथ जोड़कर खरीदारों को घर दिया जा सकता है.

 सरकार होम बायर्स की समस्या सुलझाना चाहती है, लेकिन जो रास्ता अपना रही है उससे समाधान मिलना आसान नहीं है, ऐसे में...

ये रास्ते सरकार के लिए प्रदेश की एक बहुत बड़ी समस्या के समाधान का रोडमैप हो सकता है. साथ ही सरकार को पिछले एक दशक में ऐसी कंपनियों के निदेशकों की निजी संपत्ति का भी ऑडिट करवाना चाहिए. नोटबंदी से आयकर रिकॉर्ड में अचानक दर्ज हुई इनकी बढ़ी संपत्तियों पर भी कार्रवाई की जा सकती है.

नरेंद्र मोदी की सरकार को आउट ऑफ द बॉक्स फैसलों के लिए जाना जा रहा है. अगर नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ एक तय समय में इस बड़ी समस्या को सुलझाकर लाखों खरीदारों के साथ बैंकों और सरकार खजाने की सेहत सुधारना चाहते हैं, तो इस रास्ते पर चलकर ही इसे हासिल किया जा सकता है. इसके लिए मंत्रियों की समिति बनाना बेकार है. किसी वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में सर्वाधिकार प्राप्त वैधानिक समिति बनानी चाहिए, जो आदेश भी पारित कर सके.

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