ये कोई एक दिन का संघर्ष नहीं था, जिसके अपने एक मतलब हों. ये एक हुंकार थी, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ. ऐसी बगावत, जिसका नेतृत्व कोई विशेष दल नहीं, विशेष मानस नहीं, बल्कि वे सभी कर रहे थे, जिनको अपने मुल्क में, उस खुले मैदान में रहना था, जो रणभूमि न हो, बल्कि उस रमणीक मैदान हो, जहां वो खेल सकें. बढ़ सकें, अच्छी तालीम पा सकें, हुकूमत को अपने ऊपर नहीं, अपने लिए बैठा सकें.
जो उनके खुलेपन के लिए काम करे, जो उनकी आजादी के लिए काम करें.
यहीं से निकलकर आई ‘आजादी की अवधारणा’. इसने तमाम उन अवधारणाओं को कुचल दिया, जिनका मंसूबा ‘ब्रिटेन फॉर इण्डिया’ का था.
आज हम आदी हो चुके हैं आजादी के. अब हमारे लिए इसके मायने भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मुद्दे तक की ही सीमित हैं. हां, कभी-कभी कुछ प्रबुद्ध लोगों के समूह का उन लोगों के लिए 'विस्मरण समारोह' का आयोजन भी शामिल होता है, जिसके कोशिशों की बदौलत हमने आजादी पायी थी.
कुछ लोगों के लिए आजादी अभी बिल्कुल ही नई है, जिसको वे उत्सुकता से मना रहे हैं. लेकिन इनकी आजादी भारत के संविधान के निर्माण के बाद पैदा हुई है, तो इन्हें इसमें थोड़ा खतरा दिखता है. दरअसल आजादी के इतने साल बाद भी हम आजाद नहीं हैं.
आजादी के अपने भी कुछ आजाद मतलब हैं. हर शख्स आजाद है, ये तो है आजादी की अवधारणा. हम अपने देश के संविधान और अपने धर्मग्रंथ के अधीन अपनी अधिकतम स्वतंत्रता से रहें, ये आजादी के हमारी अपनी अवधारणा है.
लेकिन अधिकतम स्वतन्त्रता की दीवार पर पैर रखना बहुत ही खतरनाक है, क्योंकि अगर पैर फिसला, तो फिर हम आजादी के अधिकार को भी लांघ जाते हैं. इसलिए अच्छा तो यही होगा कि अपने पैर को थोड़ा-सा अन्दर ही रखा जाय, ताकि हम भी आजाद रहें, देश भी आजाद रहे और आजादी भी आजाद रह सके. इसी से मुल्क की खूबसूरती भी है.
अब इतना बड़ा लेख हमने लिखा है, तो इसमें भी हमारी लिखने की आजादी ही है...
जय हिन्द
(ये लेख हमें निशांत तिवारी ने भेजा है.)
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