‘लंदन की तरफ देखना और टोक्यो से बात करना’..दरअसल बचपन में किसी तिरछी नजर वाले के लिए इस मेटाफर का इस्तेमाल खूब होता था लेकिन कभी किसी ने सोचा नहीं होगा कि नए जमाने के भारत और उसकी विदेश नीति को बताने के लिए ये मेटाफर मुफीद होगा. आज भारत की विदेश नीति खासकर IPEF जिसमें अभी अभी भारत को शामिल किया गया है, उसके लिए ‘बीजिंग पर नजर, टोक्यो में बातचीत और वाशिंगटन की सुनना’ सबसे सटीक बात बन गई है.
अभी तक, IPEF कागजों पर ही है, जिसका लक्ष्य चीन को कंट्रोल करना है जिसने ब्लू सी (Blue Sea) और उसके आगे अपना विस्तार करके 21वीं सदी की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्विता को जन्म दे दिया है. भारत और 12 अन्य देश निश्चित रूप से अमेरिका के नेतृत्व में आईपीईएफ का गठन कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य "भारत-प्रशांत क्षेत्र में लचीलापन, स्थिरता, समावेशिता, आर्थिक विकास, निष्पक्षता और प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने" के लिए आर्थिक संबंधों को मजबूत करना है.
अमेरिका ने अपना इरादा जगजाहिर कर दिया है
क्वॉड यानि ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान, यूएस को मिलाकर जो सगंठन बनाया गया है, उसके इरादे के बारे में अब सब कुछ साफ हो गया है. भले ही ये संगठन दिखने में आर्थिक लगे लेकिन ये साफ है कि IPEF अनिवार्य रूप से स्पेशल पर्पस व्हीकल है जहां ट्रेड का इस्तेमाल निश्चित तौर पर अंकल सैम के जियोपॉलिटिकल इरादे को पूरा करने के लिए किया जाएगा. पर इसको ठीक से देखना और समझना जरूरी है.
भारत के लिए इसमें क्या है? क्या इससे भारतीयों के लिए ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जाने के लिए वीजा लेना आसान होगा? क्या ट्रेड टैरिफ जिनसे दोनों देशों में कारोबार में मजबूती आएगी उसमें कटौती होगी? क्या भारत को एक मैन्युफैक्चरिंग का बेस मानकर अमेरिका, जापान अपना पसंदीदा निवेश डेस्टिनेशन भारत को बनाएगा ताकि सस्ते गुड्स के सप्लाइर के तौर पर चीन पर लगाम लगाई जा सके?
अभी इनमें से सब कुछ काफी दूर की कौड़ी लगती है लेकिन हमे जियोपॉलिटकल इरादे को जरूर देखना चाहिए.
जापान के पास मनी पावर है तो अमेरिका के पास टेक्नोलॉजिकल ताकत और ऑस्ट्रेलिया के पास लोकेशन. लेकिन ये सिर्फ भारत ही है जिसके पास मैन पावर है. कोई यहां ब्लूकॉलर और सॉफ्टेवयर प्रोफेशनल की बात नहीं कर रहा है, सब सैनिकों की बात कर रहे है.
भारत के लिए आईपीईएफ का सदस्य होने का एक मतलब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट का जो लंबे समय से भारत का सपना है जिसे ग्लोबल डिप्लोमेसी में अहम माना जाता है उसका सदस्य होना होगा या फिर मिलिटरी डिप्लोमेसी के लिए बॉडी शॉपिंग हो सकता है. नई दिल्ली को अपने कदम पर नजर रखनी होगी जहां कारोबारी मिठास की आड़ में सैन्य इरादा छिपा हो सकता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कुछ भी नहीं छिपाया है. उन्होंने सुझाव दिया था कि चीन ताइवान के साथ वही कर सकता है जो रूस के व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के साथ कर रहे हैं. मतलब एक संप्रभु क्षेत्र पर दावा ठोक कर कब्जा करने की कोशिश. बीजिंग ने अमेरिका के इस रुख पर कड़ी नाराजगी जताई. लेकिन ताइपे की तनी इसकी मिसाइलें इतनी ही असली हैं जितनी की डोकलाम में ड्रैगन के पैर के निशान. जहां पिछले साल ही भारत और बीजिंग के बीच सैन्य झड़पें हुई थीं.
अफगानिस्तान को अमेरिका ने कैसे छोड़ा याद है ना?
हो सकता है कि हम अपनी कल्पनाओं को खुला छोड़ दें लेकिन हमें किसी भी तरह की अनहोनी या नतीजों के लिए पहले से ही तैयार रहना चाहिए. क्योंकि अमेरिकी बाज बहुत सुरक्षित दूरी पर बैठकर भारतीय हाथी और चीनी ड्रैगन में कुश्ती देखना चाहता है. अफगानिस्तान याद है ना? पश्चिम ने अपना बोरिया बिस्तर समेट कर सबकुछ तालिबान के हाथों कैसे छोड़ दिया?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टोक्यो में जापानी अधिकारियों और निवेशकों के साथ कुछ व्यावहारिक बातें कीं क्योंकि उन्होंने भारत को एक नया ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग केंद्र होने की बात कही है. प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को चीन का एक विकल्प बताते हुए भारत में "Resillient Supply Chain" का जिक्र किया.
पश्चिमी बाजारों के लिए तेजी से तरक्की करता हुआ चीन न केवल महंगा हो रहा है, बल्कि COVID (शंघाई लॉकडाउन) के बाद इसकी जरूरत भी बढ़ गई है कि मैन्युफैक्चरिंग के वैश्वीकरण के लिए ‘एक प्लान बी’ हो. यहीं से भारत के लिए मौका बनता है. और अगर नया मंच 'मेक इन इंडिया' की मजबूती में मदद करता है तो क्वॉड का आईपीईएफ भारत के लिए एक बहुत अच्छी स्थिति है.
लेकिन अभी ये बहुत शुरुआती दिन हैं. आईपीईएफ, अभी एक ऐसा विचार है जिसके सपनेभर ही देखे जा सकते हैं. अभी इसको लेकर ये भी सवाल पूछा जाना है और उसका जवाब मिलना जरूरी है कि WTO में IPEF के क्या मायने होंगे?
दो साल पहले, भारत ने ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) से बाहर होने का विकल्प चुना था, जो 16 देशों के बीच एक बड़ा व्यापारिक समझौता है जिसमें दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संघ (ASEAN) और ऑस्ट्रेलिया, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान और न्यूजीलैंड शामिल हैं. IPEF के नए क्लब में भारत को शामिल करना वाशिंगटन का एक नया तरीका हो सकता है.
अभी हमें यह देखने की जरूरत है कि अभी भी आरसीईपी समूह में शामिल देश जापान और ऑस्ट्रेलिया/न्यूजीलैंड भारत को IPEF में शामिल किए जाने के क्या मायने लगाती हैं?
IPEF के 13 शुरुआती भागीदार देश चार क्वाड सदस्य हैं जिनमें न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया और सात आसियान देश शामिल हैं. ये देश सामूहिक रूप से दुनिया की जीडीपी का 40 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते हैं.
अगर जो कुछ कहा जा रहा है उसको ठीक से देखें तो अभी ये भी समझना होगा कि आखिर WTO में इन देशों के बीच में कैसे रिश्ते रहेंगे. लेकिन हम आर्थिक सहयोग के जिन डायग्राम को देख रहे हैं या जिन पर विचार कर रहे हैं वो निश्चित तौर पर खराब नहीं तो बहुत साफ भी नहीं दिख रहे हैं.
एक कठिन डगर
चीन की कम्युनिस्ट-पार्टी समर्थित ग्लोबल टाइम्स ने यह साफ कर दिया है कि पैसिफिक में बीजिंग "कलह और टकराव" नहीं चाहता है क्योंकि यह अमेरिका के नेतृत्व वाले 'इंडो-पैसिफिक' बनाम चीनी नेतृत्व वाला 'एशिया-पैसिफिक' ब्लॉक को समझता है. हालांकि ग्लोबल टाइम्स कहता है कि IPEF भी NATO की तर्ज पर एक "आर्थिक ब्लॉक" हो सकता है.
यह याद रखने योग्य है कि भारत आठ देशों के यूरेशियन समूह, शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का भी सदस्य है, जिसका उद्देश्य मध्य एशिया और उसके बाहर सुरक्षा को मजबूत करना है, और चीन भी एससीओ का एक हिस्सा है.
भारत भले ही आर्थिक क्षेत्र में चीन का प्रतिद्वंदी हो और पैसिफिक की जियोपॉलिटिक्स में अमेरिका का भागीदार हो, लेकिन अगर बात मध्य एशिया में तालिबान या इस्लामी चरमपंथ की हो तो यह 'हिंदी-चीनी भाई भाई' की तरह लगने लगता है.
SCO यानि शंघाई सहयोग संगठन के घोषित लक्ष्य हैं ऊर्जा, व्यापार और परिवहन. IPEF और भारत के लिए इसके क्या मायने होंगे अभी इस पर सवाल हैं.
कूटनीतिक ‘टेढ़ी नजर या मायोपिया’?
हालांकि, भारत ने चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) से किनारा कर लिया है, जिसमें 70 देशों के इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश शामिल है. यह इस बात का संकेत है कि एशियाई क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग ठीक है लेकिन भारत बीजिंग के आर्थिक वर्चस्व को स्वीकार करने के मूड में नहीं है.
कनेक्ट सेंट्रल एशिया" भारत के डिप्लोमैटिक टार्गेट में से एक है और इसी तरह का टार्गेट "लुक ईस्ट" भी है. अभी IPEF के आने के बाद भारत की कूटनीति को लेकर सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर हम क्यों भेंगापन यानि सीधे देखने के बजाए तिरछी नजर की नीति अपना रहे हैं . कुछ लोगों को तो ये नीति मायोपिया (जिसे पास का नहीं दिखाई पड़ता) जैसा लग सकता है.
जापान में रजनीकांत की फिल्में उतनी ही बड़ी हिट और वास्तविकता हैं जितनी पूर्व सोवियत संघ में राज कपूर की फिल्में थी. हालांकि, इस साल यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद भारत के लिए चीजें जटिल हो गई हैं. इसलिए नहीं कि संयुक्त राष्ट्र ने कूटनीतिक नैतिकता खो दी है, बल्कि इसलिए भी एक उदार लोकतंत्र के रूप में वाजिब और दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने वाली इकोनॉमी के रूप में, इसका पश्चिम का भागीदार बनना समझ में आता है लेकिन जब बात सुरक्षा की हो तो फिर अलग तरह से सोचना पड़ता है ..चाहे वो रूस से डिफेंस सप्लाई की जरूरत हो या फिर इस्लामी चरमपंथ से मुकाबला.
भारत को IPEF में अपना जुड़ाव बढ़ाने से पहले इसके फाइन प्रिंट को ठीक से देखना और समझना चाहिए. इसे ये भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कहीं भारत की स्थित पूरब और पश्चिम की कूटनीति में सैंडविच की तरह ना बन जाए.
दरअसल यह बहुत चुनौतीपूर्ण है. जब आप हिंद महासागर में रहकर अटलांटिक को लुभा रहे हैं और पैसिफिक के साथ सहयोग बढ़ा रहे हैं तो आपको इसका नफा नुकसान अच्छे से समझना चाहिए. भारत को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि जहां शार्क घूमते हैं, क्या वो वहां अच्छी तरह तैरना जानता है या नहीं?
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