प्रिय पाठकों,
भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था उदासीनता, खिन्नता और बेइंसाफी से बेहाल है. द क्विंट के इस लेख में कोशिश की गई है कि इस व्यवस्था की त्रासदियां सिर्फ आंकड़ों तक सीमित न रह जाएं. इसमें अर्चना की आपबीती है जोकि आठ घंटे का सफर तय करती है और कतार में घंटों खड़ी रहती है ताकि जेल में बंद अपने भाई विनोद से 5-7 मिनट के लिए बात कर सके. इसमें सहबा की कहानी है जिनके पार्टनर गौतम किसी दूसरे शहर की जेल में अंडरट्रायल कैदी हैं लेकिन उन्हें फोन पर गौतम से बात नहीं करने दी जाएगी. कैदखानों की सलाखों ने कितने ही परिवारों को टुकड़ों टुकड़ों में बांट दिया है लेकिन व्यवस्था कभी यह सोचती-विचारती नहीं है कि आखिर में उसका ताल्लुक इंसानी जिंदगियों से है. कृपया मेंबर बनकर हमें सपोर्ट करें ताकि हम भारतीय आपराधिक (अ)न्याय व्यवस्था की कथाओं को आप तक पहुंचा सकें.
शुक्रिया
वकाशा सचदेव
सुबह पौ फटने से पहले वह घर से निकलेगी.
पहले वह ट्रेन से कुर्ला जाएगी. फिर वहां से थाने के लिए दूसरी ट्रेन लेगी है. थाने से तीसरी ट्रेन पकड़कर पुणे जाएगी. पुणे से वह रिक्शे से यरवदा जाएगी.
चार घंटे के सफर का मतलब यह था कि रजिस्ट्रेशन का पहला विंडो उसे नहीं मिलेगा जो सुबह साढ़े आठ से दस बजे के बीच खुलता है. उसे साढ़े 12 बजे तक इंतजार करना पड़ेगा ताकि रजिस्ट्रेशन फिर से शुरू हो. इसके लिए वह लंबी कतार में खड़ी होगी ताकि किसी तरह एक टाइम स्लॉट लपक सके.
अब एक नया इंतजार शुरू होग, उसे कई घंटों तक अपनी बारी का इंतजार करना पड़ेगा. वह लगातार उस दर्द और तकलीफ को नजरंदाज करेगी जो दुर्घटना और ऑपरेशन से पहले ही उम्र के साथ उस पर हावी होने लगा है.
आखिर में उसकी बारी आएगी. वह अपने भाई के सामने बैठी होगी. दोनों के हाथों में फोन रिसीवर होगा. वह कुछ कहेगी, लेकिन भाई को सुनाई नहीं देगा. वह जवाब में कुछ कहेगा, लेकिन बहन कुछ सुन नहीं पाएगी. फोन हमेशा की तरह सही से काम नहीं करेगा.
ऊंची आवाज में बोलने की कोशिश करेंगे लेकिन एक को भी समझ नहीं आएगा कि दूसरा क्या बोल रहा है. फोन डिवाइस को थामे हुए अभी कुछेक मिनट ही हुए होंगे, लेकिन हालचाल पूछने से पहले ही समय खत्म हो जाएगा.
अब घर जाने का वक्त हो चुका है. फिर से चार घंटे का सफर- साथ ही टैक्सी का फालतू भाड़ा ताकि थककर चूर होने के बाद आधी रात को घर की चौखट तक आसानी से पहुंचा जा सके. पूरा दिन खाली जाएगा. करीब हजार रुपए खर्च होंगे. वह भी सिर्फ पांच से सात मिनट की टूटी-फूटी बातचीत के लिए.
यह अर्चना की आपबीती है. करीब 50 साल की गृहिणी की. उसकी आय का कोई स्रोत नहीं. वह हर हफ्ते अपने भाई विनोद से मिलने यरवदा सेंट्रल जेल जाती थी. विनोद की उम्र 60 साल है और वह यरवदा में एक अंडरट्रायल कैदी है. यरवदा की सेंट्रल जेल महाराष्ट्र की सबसे बड़ी जेल है. यह कोविड 19 से पहले की कहानी है.
लेकिन पिछले 18 महीनों में महामारी ने सब कुछ बदलकर रख दिया. जेलों में व्यक्तिगत रूप से कैदियों से मिलने का रिवाज खत्म हो गया. इसकी बजाय हर 15 दिनों में एक बार फोन कॉल की इजाजत दी जाने लगी.
करीब एक महीने पहले जेलों में यह व्यवस्था की गई कि मुलाकाती कैदियों से फोन पर बात कर सकते हैं. हर कॉल को एक पुलिस ऑफिसर वैरिफाई करता, और वह कॉल सिर्फ पांच से सात मिनट की होती.
यह बहुत अच्छा तो नहीं था. वकील के साथ केस प्लानिंग के समय इसका कोई फायदा नहीं होता था. वह विनोद को देख नहीं पाती थी. लेकिन इससे यह जरूर पता चल जाता था कि वह दुरुस्त है.
वैसे अब यह सिलासिला रुक गया है. जेल प्रशासन ने विनोद से कुछ हफ्ते पहले कहा कि महामारी काबू में है और जेलों में कोरोनावायरस प्रोटोकॉल से पहले का रिवाज शुरू हो जाएगा. बाहरी दुनिया से संपर्क का मौका मिलने लगेगा- वे चिट्ठियां लिख पाएंगे- मुलाकातियों से मिल पाएंगे.
यानी अर्चना के लिए फिर वही रगड़ शुरू जाएगी. सुबह पौने पांच बजे उठना. आठ घंटों का सफर. घंटों का इंतजार. फिर रात साढ़े 11 बजे वापसी. इस सफर का दाम, भाई की मामूली सी पेंशन से चुकाया जाता है. वह भी पांच से सात मिनट की बातचीत के लिए.
भारतीय जेलों के पुराने नियम
2021 में कुछ ऐसा ही हुआ. फोन सस्ते में और आसानी से उपलब्ध हैं, और जेलो को लगा कि महामारी के प्रतिबंधों के दौरान इसका बंदोबस्त किया जा सकता है, लेकिन बुनियादी फोन कॉल सभी कैदियों को मुहैय्या नहीं कराया जा सकता.
असल समस्या यह है कि भारतीय जेलों में कैदियों की जिंदगी पर राज करने वाले जेल नियमों और जेल मैनुअल्स को अपडेट नहीं किया गया है. जेलों का प्रबंधन करने वाला कानून है, 1894 का प्रिजन्स एक्ट जोकि कई मूल सिद्धांतों को तय करता है. इसके बाद इस कानून को लागू करने के लिए हर राज्य के पास नियम और मैनुअल्स बनाने की शक्ति है.
हालांकि कई नियमों को अपडेट किया गया है (कई राज्यों ने नए नियम बनाए भी हैं) लेकिन ज्यादातर की जड़ें अतीत के गर्तों में धंसी हुई हैं- जैसे कैदी अपने परिवार के लोगों और वकीलों से किस तरह संवाद करेंगे.
दिल्ली के 2018 के नए जेल नियमों के अलावा, द क्विंट को किसी दूसरे राज्य या केंद्र शासित प्रदेश से जेल नियमों का एक भी सेट या जेल मैनुअल नहीं मिला है, जो स्पष्ट रूप से कैदियों को फोन का उपयोग करने का विकल्प देता हो.
बाहरी दुनिया से संपर्क करने के सिर्फ दो ही तरीके इन नियमों और मैनुअल्स में दर्ज हैं- चिट्ठियां और फिजिकल विजिट. ऐसी हालत तब है, जब 2016 में गृह मामलों के मंत्रालय ने नए मॉडल प्रिजन मैनुअल को छापा था. इसमें साफ कहा गया था कि कैसे कैदियों को
"भुगतान करने पर पर टेलीफोन या कम्यूनिकेशन के इलेक्ट्रॉनिक साधनों के इस्तेमाल की अनुमति दी जाए ताकि वे राज्य पुलिस के हिसाब से समय-समय पर अपने परिवार और वकीलों से संपर्क कर सकें."
यह मॉडल प्रिजन मैनुअल कोई ऐसा डॉक्यूमेंट नहीं है जिससे कोई नावाकिफ हो. यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के हिसाब से जारी किया गया है, और इसके लिए एक्सपर्ट्स औऱ अलग-अलग राज्यों से सलाह-मशविरा किया गया है. यह राज्यों के लिए एक तरह का टैंपलेट है ताकि वे सुनिश्चित करें कि कैदियों के मौलिक अधिकारों का हनन न हो.
दुर्भाग्य से राज्यों को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं कि जेलों पर अपने नियमों और मैनुअल्स को अपडेट करें, इसके बावजूद कि वहां अब भी पुरानपंथी तौर-तरीके अपनाए जाते हैं.
जैसे दिसंबर 2020 में द वायर में सुकन्या शांत ने राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और पश्चिम बंगाल के जेल मैनुअल्स के बारे में लिखा था. इन मैनुअल्स के हिसाब से जेलों में कैदियों को अब भी जाति के आधार पर काम सौंपे जाते हैं. इस रिपोर्ट के आने के बाद हाई कोर्ट्स को इस मामले में दखल देनी पड़ी ताकि यह सुनिश्चित हो कि इन तौर तरीकों से छुटकारा पाने के लिए मैनुअल्स में संशोधन किए जाएं.
जहां तक फोन कॉल्स की बात आती है, लगभग सभी राज्यों (महाराष्ट्र सहित, जहां विनोद बंद है) ने संवाद के इस तरीके को अपनाने के लिए अपने नियमों और मैनुअल्स को अपडेट करने की जरूरत महसूस नहीं की है.
हालांकि मैनुअल को अपडेट न करने की वजह सिर्फ उदासीनता या आलस नहीं हो सकता. वरिष्ठ मानवाधिकार वकील और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में जेलों की पूर्व स्पेशल मॉनिटर माजा दारूवाला के मुताबिक, इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि कैदी बाहरी दुनिया से आसानी से संवाद न कर पाएं. इस तरह वे भीतर के हालात की शिकायत नहीं कर पाएंगे.
यह भी बताना जरूरी है कि हालांकि कुछ राज्यों ने अपने मैनुअल्स को अपडेट तो नहीं किया लेकिन कैदियों को रिश्तेदारों और वकीलों से फोन पर बात करने का विकल्प दिया है. उदाहरण के लिए हरियाणा और कर्नाटक, दोनों राज्यों में कैदी पैसे चुकाकर फोन कर सकते हैं. हरियाणा में रोजाना, और कर्नाटक में वे हफ्ते में एक बार दो नंबरों पर.
इमोशनल टॉर्चर
भीमा कोरेगांव के आरोपी गौतम नवलखा की पार्टनर सहबा हुसैन के लिए यह फैसला बहुत बड़े झटके की तरह है कि महाराष्ट्र की जेलों में अब सिर्फ चिट्ठियों और शारीरिक मुलाकात से ही कैदियों से संपर्क किया जा सकता है.
भीमा कोरेगांव मामले में नवलखा का जेल जाना पहले ही कम बड़ा झटका नहीं था. जबकि संहेदास्पद सबूतों पर सवालिया निशान लगाए गए, पेगासेस स्पाईवेयर के आरोप लगे और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने पुलिसिया जांच पर जुदा राय दी.
हालात बदतर हो गए और नवलखा को अप्रैल 2020 में सरेंडर करने का आदेश दिया गया. वह भी तब, जब कोविड फैल रहा था और अदालतें आदेश दे रही थीं कि जेलों से कैदियों की भीड़ को कम किया जाए. नवलखा को जेल तक हुई, जब उन्हें कोविड संक्रमण का बहुत जोखिम था.
लेकिन सहबा अब नवलखा से फोन पर बात नहीं कर पाएंगी. महामारी के चलते नियम बदले और जब से नवलखा कस्टडी में हैं, सबा उसने फोन पर ही बातचीत करती रही हैं. अब पुराने नियमों के लागू होने से सहबा को बहुत बड़ा धक्का लगा है.
"हम इस झटके से कैसे उबरेंगे? हमें कैसे पता चलेगा कि वे लोग उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं" वह दुखी भाव से पूछती हैं. "मैं नहीं जानती कि वो कैसे हैं. परिवार के लोगों, दोस्तों, यहां तक कि अपने वकील से बात करने का कोई विकल्प नहीं है. वहां उनसे मिलने के लिए 7-8 घंटे लाइन में खड़ा रहना बहुत मुश्किल है, उनकी बहनें 75 साल से ऊपर की हैं और मुंबई में रहती हैं.
सहबा दिल्ली में रहती हैं और मुंबई में तालोजा जेल जाना बहुत मुश्किल है. उनके पास अकेला एक विकल्प है, कि वह नवलखा से चिट्ठियों के जरिए बातचीत करें. इसका मतलब यह है कि उनकी सेहत और हालत की जानकारी हर तीन हफ्ते या उससे भी लंबे समय बाद मिलेगी.
नवलखा की उम्र 70 साल है औऱ उन्हें कई मेडिकल बीमारियां हैं. इस मामले के कई दूसरे आरोपी भी जेल में मुकदमा शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं जबकि उनकी सेहत लगातार बिगड़ रही है.
तेलुगू कवि-एक्टिविस्ट वरवर राव को ऐसी गंभीर समस्याएं हो गई थीं कि मुंबई हाई कोर्ट ने मेडिकल बेल पर उन्हें छोड़ने के आदेश दे दिए. इसी मामले में कस्टडी में रहने के दौरान 84 साल के स्टेन स्वामी की मौत हो गई.
"यह बात बहुत परेशान करने वाली है कि मुझे पता नहीं चलेगा-गौतम कैसे हैं. यह एक तरह का इमोशनल टॉर्चर है," सहबा कहती हैं. यह टॉर्चर है क्योंकि वह जानती हैं कि यह सब बहुत लंबा चलने वाला है, मुकदमे की कोई तारीख तय नहीं है और आरोपी को बुनियादी सुविधाओं के लिए भी बार बार अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ता है.
जेल बदनाम है कि उसने फादर स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए सिपर कप देने से इनकार कर दिया था जबकि उन्हें पार्किन्सन जैसी बीमारी थी. इसी तरह जब नवलखा का चश्मा खो गया था और सहबा ने उनके लिए दूसरा चश्मा भेजा था, तब जेल प्रशासन ने शुरू में वह चश्मा लेने से इनकार कर दिया था.
दिसंबर 2020 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मामले में दखल दी थी. अदालत ने तालोजा जेल अधिकारियों से कहा था कि उन्हें अपने कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए वर्कशॉप्स चलानी चाहिए, चूंकि “इनसानियत सबसे अहम है, बाकी सभी कुछ बाद में आता है.” लेकिन बदकिस्मती से वर्कशॉप्स इस मामले में काम नहीं आईं.
गरीबों की कौन पूछेगा
सहबा कहती हैं कि कम्यूनिकेशन की समस्या सिर्फ नवलखा और भीमा कोरेगांव के दूसरे आरोपियों की नहीं है. यूएपीए जैसे कठोर कानूनों के तहत आरोपी बनाए गए लोगों के लिए भी हालात बदतर हैं. "इन सबकी हालत भी एक सी है. इसके अलावा दूसरे शहरों के कैदियों के लिए भी बहुत दिक्कत है, क्योंकि उनके परिवार वाले इतनी आसानी से वहां नहीं पहुंच सकते." वह कहती हैं.
सीनियर वकील संजय हेगड़े कहते हैं कि जिन जेलों में फोन कॉल्स की इजाजत नहीं, वहां भी फोन कॉल्स करने के तरीके निकाल लिए गए हैं, और यह बात कोई दबी-छिपी हुई नहीं है. पैसे और रसूख वाले कैदियों के पास मोबाइल होते हैं या वे गार्ड्स की मदद से इनका बंदोबस्त कर लेते हैं. लेकिन यह कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसका फायदा हर कोई उठा सकेगा.
"बहुत गरीब लोगों को, जब तक वे जेल में बहुत बड़ा कद न हासिल कर लें, मोबाइल फोन की सुविधा नहीं मिल सकती." संजय कहते हैं. गरीब और निरक्षर होने पर तो लोग संपर्क करने के परंपरागत तरीकों, यानी चिट्ठी लिखना और मुलाकात, से भी हाथ धो बैठते हैं. "इसलिए गरीब लोग का तो सालों तक किसी से संपर्क नहीं हो पाता. क्योंकि आदमी अंदर होता है, और उसकी बीवी गांव में. यहां तक आने के लिए बहुत सारा पैसा खर्चना पड़ता है, जोकि वे लोग नहीं कर सकते."
मानवाधिकार वकील वृंदा ग्रोवर भी यही दोहराती हैं. "ज्यादातर मामलों में, गाज गरीबों पर गिरेगी. उनके परिवारों के लिए उनसे मिलने आना मुश्किल होगा. ऐसे प्रवासी होंगे, जिन्हें गिरफ्तार किया जाएगा. महाराष्ट्र या उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के भीतर भी लोगों के लिए मुलाकात करना बहुत तकलीफदेह होगा," वह कहती हैं.
पैसे या रुतबे वाले लोगों का छिप-छिपकर मोबाइल का गैर कानूनी तरीके से इस्तेमाल करना, बताता है कि व्यवस्था खुद नाइंसाफी करती है.
सितंबर 2021 में दिल्ली पुलिस ने पाया था कि यूनिटेक प्रॉपर्टी घोटाले के लिए तिहाड़ जेल में बंद चंद्रा भाई अपना कारोबार चलाने के लिए जेल सुपरिंटेडेंट के सरकारी लैंडलाइन का इस्तेमाल कर रहे थे और अपने पर्सनल कॉल्स के लिए उनके पास मोबाइल फोन्स उपलब्ध थे.
दूसरी तरफ अर्चना जैसे लोगों को अपनों की खैरख्वाह लेने के लिए जेल तक की लंबी और महंगी यात्राएं करनी पड़ेंगी.
यह गैर बराबरी उस व्यवस्था का नतीजा है जोकि कैदियों को अपने परिवार के सदस्यों के साथ फोन पर बातचीत करने के अधिकार को आधिकारिक रूप से मान्यता देने से इनकार करती है.
क्या कैदियों को परिवार के सदस्यों, वकीलों को फोन कॉल करने का कानूनी अधिकार है?
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एसोसिएट जज, जस्टिस थुरगुड मार्शल की कही हुई बात का हवाला हमारा सुप्रीम कोर्ट कई बार दे चुका है. उन्होंने कहा था, “एक कैदी जेल में जाने से पहले जेल के दरवाजे पर अपने बुनियादी संवैधानिक अधिकारों को छोड़ नहीं देता.”
सत्तर के दशक के बाद से कई मामलों, जैसे चार्ल्स शोभराज मामले, सुनील बत्रा मामले, फ्रांसिस कोरालिन मुलिन मामले वगैरह में एपेक्स कोर्ट ने बार-बार कहा है कि अनुच्छेद 14 (समानता), 19 (बोलने की आजादी आदि) और 21 (जीवन) के तहत कैदियों, यहां तक कि दोषियों के भी मौलिक अधिकार बरकरार रहते हैं.
जेल में रहने के दौरान इन अधिकारों पर कुछ पाबंदी जरूर लग जाती है लेकिन वे खत्म नहीं हो जाते.
1983 में जस्टिस एएन मुल्ला ऑल इंडिया कमिटी ऑन जेल रिफॉर्म्स ने साफ कहा था कि कैदियों को भी मर्यादा और प्राइवेसी, बाहरी दुनिया से कम्यूनिकेट करने और कानूनी प्रतिनिधित्व हासिल करने का हक है. अपने परिवार के लोगों और वकीलों से नियमित रूप से बातचीत करते रहने का हक भी इन्हीं अधिकारों में शामिल है.
चूंकि कैदी अलग अलग तरह के होते हैं. कोई गरीब होता है तो कोई पढ़ा लिखा नहीं होता, किसी के परिवार वाले दूसरे शहरों में रहते हैं. ऐसे में अगर सिर्फ चिट्ठियों और शारीरिक रूप से मुलाकात के रिवाज को अपनाया जाएगा तो उन्हें अपने मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल करने में परेशानियां आएंगी. इसलिए फोन कॉल का इस्तेमाल कानूनी अधिकार का मामला है. माजा दारूवाला कहती हैं कि कानूनी स्थिति साफ है.
"इस देश का न्यायशास्त्र यह स्पष्ट करता है कि कैदियों के पास अधिकार हैं, उन्हें आसानी से ये अधिकार मिलने चाहिए और उन्हें अनुचित रूप से इनसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए. आपको यह कहने के लिए बड़े कानूनी या नीतिगत दखल की जरूरत नहीं है कि कैदियों को फोन का इस्तेमाल करने दिया जाए ताकि वे अपने वकीलों, अपने परिवारों से बात कर सकें."माजा दारूवाला
दारूवाला बताती हैं कि फोन के इस्तेमाल की इजाजत देकर हम कोई उन पर एहसान नहीं कर रहे. यह उनका बहुत मामूली अधिकार है और अगर उन्हें यह अधिकार उनसे छीना जाता है तो उनके मौलिक अधिकारों का हनन होगा.
यह सिर्फ अंडरट्रायल्स पर लागू नहीं होता. हालांकि अगर उन्हें इस अधिकार से महरूम रखा जाता है तो उनका नियमित संवाद संभव नहीं हो पाता. चूंकि दोषी साबित होने तक उन्हें निर्दोष ही माना जाता है.
यह अधिकार तो दोषियों को भी मिलना चाहिए. जैसा कि दारूवाला कहती हैं, “इसकी कोई वजह नहीं कि कैद में रहने की वजह से आपको फोन या किताबें या दवाएं या मनोरंजन नहीं मिलना चाहिए. जब राज्य आपको सजा देता है तो इसका मतलब यह है कि आपकी आजादी छीन लेता है. लेकिन इरादा बदला लेना हो और इसलिए तरह तरह के अभाव दिए जाएं तो तकलीफें और बढ़ जाती हैं.”
सीनियर वकील मिहिर देसाई भी मानवाधिकार कानूनों के विशेषज्ञ हैं. वह कहते हैं कि कैदियों को फोन कॉल का विकल्प न देकर, या एडहॉक या असमान तरीके से इसकी इजाजत देने से न सिर्फ उनके, बल्कि उनके परिवार के सदस्यों के अधिकारों का भी हनन होता है.
देसाई कहते हैं, “कैद का पूरा मकसद सुधार करना है, न कि सजा देना. इसलिए मुझे लगता है कि ऐसी कोई वजह नहीं कि इसकी इजाजत न दी जाए.”
यह एक हक है, इससे इनकार करने की क्या वजह हो सकती है
“एक फोन कॉल की इजाजत देने से सिस्टम को क्या नुकसान होगा, जिसके जरिए आप अपने परिवार को सिर्फ अपनी खबर और अपडेट्स देते हों,” वृंदा ग्रोवर पूछती हैं. “आपको सिर्फ यह जानना है कि व्यक्ति दुरुस्त है. और अगर उन्हें कानूनी सहायता चाहिए तो अपने वकील से बात की जा सकती है.”
द क्विंट ने जितने लीगल एक्सपर्ट्स से बातचीत की, सभी इस बात से सहमत थे कि देश के सभी जेल प्रशासन, जोकि फोन की सुविधाएं नहीं देते, या सीमित सुविधा देते हैं, इसकी एक ही वजह बताते हैं. वह वजह है जेल में सुरक्षा. कई यह भी कहते हैं कि इससे उन पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा.
वे यह भी मानते हैं कि इनमें से कोई भी कारण इतना पुख्ता नहीं कि कैदियों को फोन कॉल का अधिकार नहीं दिया जाए. यानी इन कारणों का कोई तर्क नहीं है.
वृंदा कहती हैं, “ऐसा नहीं है कि किसी को फोन पर बात करने की इजाजत देने से समाज में कोई तबाही मच जाएगी. दरअसल कोविड के दौरान करीब डेढ़ साल तक यह तरीका अपनाया जा चुका है और इससे कोई अपराध नहीं हुआ, न ही जेलें तोड़ी गईं. अगर हम इसे प्रयोग के तौर पर मानें तो इससे जेलों या कैदियों की सुरक्षा पर असर नहीं हुआ, न ही इसकी वजह से कोई अपराध हुआ.”
दारूवाला कहती हैं, "यह कहना काफी नहीं है कि जोखिम है; आपको इसे मापना होगा और फिर सिर्फ ऐसे प्रतिबंध लगाने होंगे जिनके जरिए चुनौतियों का सामना किया जा सके. पूरी तरह पाबंदी न लगाएं. एक ऐसे सिस्टम की खोज करें जिसमें फोन का उपयोग किया जाए और साथ ही सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को हल किया जाए."
वृंदा की तरह हेगड़े भी कहते हैं कि महामारी के दौरान हमें यह पता चला कि यह कैसे काम करेगा और सुरक्षा एवं लॉजिस्टिक्स की दिक्कतें भी दूर की गईं. इसके लिए एक जबरदस्त वैरिफिकेशन प्रोसेस हो सकता है जिसे महामारी के दौर में अपनाया गया था. एक समय सीमा तय की जा सकती है. कोविड के समय जितनी कॉल्स की इजाजत थी, उससे कम कॉल्स की इजाजत दी जा सकती है.
वह कहते हैं, “चूंकि ये अधिकार पहले दिए जा चुके हैं, तो उन्हें वापस नहीं लिया जाना चाहिए.”
क्या इस समस्या को हल करने का कोई तरीका है
चूंकि ज्यादातर राज्य फोन कॉल्स के अधिकार को मान्यता नहीं देते, ऐसे में अर्चना और विनोद, और सहबा और गौतम जैसे लोगों के पास एक ही रास्ता है. वह यह कि संबंधित हाई कोर्ट्स में एप्लिकेशन फाइल करें और उनसे प्रशासन को यह निर्देश देने को कहें कि इन कॉल्स की इजाजत दी जाए.
वैसे आदर्श स्थिति तो यही है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्यों के मानवाधिकार आयोग कैदियों और उनके परिवारों के अधिकारों की पैरवी करें, चाहे इसके लिए राज्य सरकारों से गुहार लगानी पड़े या अदालतों से. बदकिस्मती से ज्यादातर एक्टिविस्ट्स और वकीलों को आयोगों से बहुत उम्मीद नहीं है. नाम न छापने की शर्त पर उनमें से एक कहते हैं “एनएचआरसी अपना काम करने का इच्छुक नहीं है. वह खुद को राज्य का नुमांइदा मानता है, वॉचडॉग नहीं.”
समस्या बड़ी है, और इसे हल करने के दो तरीके हैं.
पहला ज्यादा व्यावहारिक है. राज्यों पर इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि वे 2016 के मॉडल प्रिजन मैनुअल को लागू करें. यह सबसे आसान रास्ता यह है कि इसके लिए अदालतें पहल करें.
इसके लिए किसी नए मामले को दायर करने की भी जरूरत नहीं- इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में आवेदन किया जा सकता कि वह अपने 'री-इनह्यूमन कंडीशंस इन 1382 प्रिजन्स' मामले के संबंध में निर्देश दे.
2018 में सुप्रीम कोर्ट जज अमिताव रॉय की अध्यक्षता में एक विशेष समिति बनाई गई थी. इस समिति को बनाने का मकसद यह था कि 2016 के मॉडल प्रिजन मैनुअल को लागू करने पर नजर फिराई जाए.
समिति ने फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपी. लेकिन रिपोर्ट को सार्वजनिक किया ही नहीं गया और अदालत ने अब तक इस सिलसिले में कोई निर्देश जारी नहीं किया है- इस पर आसानी से दोबारा गौर किया जा सकता है क्योंकि अदालत में मामले की सुनवाई जारी है.
दूसरा, सरकार ही नहीं, नागरिक समाज को भी अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है. हम ऐसा कुछ क्यों नहीं देना चाहते जोकि सामान्य समझ के हिसाब से, नैतिकता के आधार पर इतना बुनियादी है (सिर्फ कानूनी लिहाज से नहीं).
माजा दारूवाला कहती हैं, “सबसे अहम सवाल यह है कि यह क्यों नहीं दिया जा रहा? जेल प्रशासन की संस्कृति में ऐसा क्या है जो लोगों को उनके मूलभूत बुनियादी जरूरतों से महरूम रखता है.”
वृंदा ग्रोवर कहती हैं, “हम सलाखों के पीछे बंद लोगों को भूल गए हैं. चूंकि एक्टिविस्ट्स वहां हैं, इसलिए ये बातें सामने आ रही हैं.” वह कहती हैं कि सहबा हुसैन ने नियमों के बदलने को लेकर एक प्रेस रिलीज जारी की है, इसलिए कोविड के बाद यह मामला सामने आया है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)