वाकई उनकी जान बारीक डोर से ही बंधी हुई थी. फिर भी हमने खुद को विश्वास दिला रखा था कि वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगे, फिर से गति में आएंगे और कैमरे पर लौटेंगे- देश में भी और दुनिया में भी. कोई बीमारी, अंत या ऐसा कुछ भी इस कलाकार को छू नहीं सकता था. कैसे यह सब हुआ? वे पर्दे पर कई-कई बार मर सकते थे, इस पर विश्वास किया जा सकता था. वास्तविक जिन्दगी में वे नहीं मर सकते थे. किसी तरीके से नहीं.
वे हमारे थे. ऐसा नहीं हो सकता कि आपने अपनी उंगलियां खोलीं और वे हथेलियों से उड़ गये. फिर भी, तमाम विपरीत परिस्थितियों के रहते उन्होंने अंग्रेजी मीडियम में अपनी मुख्य भूमिका पूरी की. इस दौरान घर और लंदन की चक्कर लगाते रहे. हमने उन्हें कोई गलत कदम उठाते नहीं देखा. न ही वे एक बच्ची के पिता के तौर पर कभी कमजोर नजर आए. कभी उन्होंने ऐसा भाव नहीं दिखाया मानो वे अस्पताल की बेड से उठकर किसी प्रोजेक्ट को पूरा करने इसलिए आए हों कि उन्हें अपना वादा पूरा करना था. और, यह शेरदिल हमेशा अपने वादे पर खरा रहा.
हमें छोड़कर जा चुका यह अद्वितीय कलाकार बीते हफ्ते अपनी मां सईदा बेगम के अंतिम संस्कार में नहीं जा सका. लॉकडाउन रहते हुए उन्होंने अपने आंसू जरूर बहाए होंगे. अगर यही तनाव और बेबसी थी, जो उन्हें मुंबई में कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी हॉस्पिटल तक अफरातफरी में ले गयी, तो इस बात को हम कभी नहीं जान पाएंगे. उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर फैल रही थी.
यह बात भी उठी कि उनकी पत्नी डॉक्टरों से कहा था कि उनकी पीड़ा को अधिक लंबा खिंचने न दें. अगर उन्हें जाना ही है तो प्लग निकाल लिया जाए. यह वक्त आज सुबह आ पहुंचा.
इरफान खान की कहानी बहुत आम थी मगर बड़ा फर्क यह था कि स्टारडम का सपना आंखों में संजोए यह व्यक्ति संघर्ष करता रहा. शहर के अंधेरी-ओशिवारा एनक्लेव में रहते हुए हजारों महत्वाकांक्षी अपनी वो जगह नहीं बना पाते जिसकी बॉलीवुड की विशाल दुनिया में चर्चा हो. वे थोड़े समय तक तो चलते हैं. टीवी सीरीज़ की दुनिया में उतरते हैं और फिर एडिटिंग के दौर से गुजरते हुए वे मिट जाते हैं. इरफान इससे कहीं अधिक कठिन रास्ते से होकर गुजरे.
आशाएं टिमटिमाने लगी थीं जब उन्होंने मीरा नायर की सलाम बॉम्बे (1988) के लिए बैरी जॉन की ओर से आयोजित कार्यशाला में हिस्सा लिया! और थोड़े समय के लिए वे सड़क किनारे पत्र लेखक के तौर पर नजर आए.
OTT के जमाने से पहले टीवी सीरियलों में आना-जाना उनकी जीविका का हिस्सा बन गया. उनके सहयोगी कलाकारों में सबी मसानी उन्हें याद करते हैं,
“वे लम्बे से लम्बे डायलॉग भी एक टेक में कर लिया करते थे जो उस टीम के लिए बहुत जरूरी था जो जबरदस्त दबाव में निश्चित समय पर दूरदर्शन के लिए एपfसोड पूरा किया करती थी. मेरी जुबान लड़खड़ा जाती, वे उसी जगह सुधार करते और आम स्क्रिप्ट को एक नयी ऊंचाई दे डालते.”
शुरुआती दौर में इरफान के पास कलात्मक फिल्म की एक हाई प्रोफाइल प्रोजेक्ट थी गोविन्द निहलानी की दृष्टि (1990). इसमें वे डिम्पल कपाडिया और शेखर कपूर के साथ थे. त्रिकोण के तीसरे हिस्से को सक्रिय करते हुए- एक अर्ध शास्त्रीय संगीतकार जो शादी में बाधक बनता है-वह बेचैन था कि उसका काम अनदेखा रह गया.
जब मैंने उनसे पहली बार साक्षात्कार का प्रस्ताव रखा था और उन्होंने बहुत विनम्रता से आग्रह किया, “कृपया मुझे खलनायक नहीं बनाना. नहीं तो मैं खास भूमिका में बंधकर निराश हो जाऊंगा.” और उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “कम से कम मुझे एक मौका मिला है. अब यह इस पर निर्भर करता है कि ‘दृष्टि’ समझदार दर्शकों के साथ जुड़ती है या नहीं.”
वास्तव में ‘दृष्टि’ काफी हद तक प्रतीकात्मक रूप से घर और घर से बाहर संबंध की दुविधापूर्ण स्थिति को बयां करती है.
करीब एक दशक बाद जब उनका करियर आगे बढ़ने लगा, उन्होंने अपने नाम के साथ खान हटा लिया और क्रेडिट लाइन में केवल इरफान के नाम से आगे बढ़े. इरफान में एक अतिरिक्त ‘आर’ जोड़ा गया जो शायद अंकशास्त्रीय कारणों से था. मुंबई में ऐसा करना आम संस्कार है.
यह बड़ी विडम्बना है लेकिन - साहिबजादे इरफान अली खान - नाम उन पर आज बहुत सटीक बैठेगा. वे एक मुस्लिम पठान परिवार में पैदा हुए थे. कोई भी किसी कलाकार के धैर्य और दृढ़संकल्प को लंबे समय तक दबाकर नहीं रख सकता. बीच रेजिडेन्सी से मढ आइलैंड अपार्टमेंट तक उन्होंने जगह बदले और ओशिवारा के एक शांत आंतरिक सजावट वाले कमरे तक पहुंच गये.
साहिबजादे कभी स्टारडम के जाल में नहीं फंसे. हमेशा वक्त के मुताबिक और विनम्र बने रहे. जब एक फोटोग्राफर ने उन्हें रे-बैन्स पहनने को कहा और फोटो सेशन का अवसर बनाया तो वे हंसे,
“अरे, मुझे एक हीरो की तरह पोज देने को कहा जा रहा है. मैं बस एक अभिनेता हूं. अगर आप बुरा न मानें तो स्वाभाविक रूप से एक मोमबत्ती ले लें.”इरफान खान
मढ आइलैंड में डायरेक्टर सुधीर मिश्रा और केतन मेहता और दीप्ति नवल उनके पड़ोसी थे. एक अन्य पड़ोसी प्रोड्यूसर-डायरेक्टर अंजली भूषण उन्हें इस रूप में याद करते हैं, “उनमें कोई झिझक नहीं थी. सोसायटी की बैठकों में वह अक्सर समझदारी की बातें कहते. दो बातों में वे बिल्कुल नियमित थे- एक पूल में नियमित स्वीमिंग और अपने परिवार को समय देना.”
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दिल्ली में साथ-साथ ग्रेजुएशन करने वालीं सुतापा सिकदर से उन्होंने शादी की. उनके दो बेटे हैं. बड़े बेटे बाबिल ने 'करीब-करीब सिंगल' में बतौर कैमरा असिस्टेंट काम किया था.
निश्चित रूप से यह कलाकार अपनी पहचान के लिए भूखा दिखा. अपने जीवन के करीब 80 फीचर फिल्मों के समूह में उन्हें 2001 में ब्रिटिश शॉर्ट फिल्म द वैरियर से सफलता मिली, जिसकी निर्देशिका आसिफ कपाड़िया थीं.
अपने देश में तिग्मांशु धूलिया की हासिल (2003) से उन्हें बड़ी सफलता मिली, जिसमें इरफान ने एक खलनायक की भूमिका को बड़े पर्दे पर जीवंत कर दिया, फिल्म में इरफान ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के एक छात्र नेता की भूमिका निभाई थी. एक ऐसा छात्र नेता जो यूनिवर्सिटी के छात्र संघ अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोलता है.
किस्मत बदलने वाले एक वाकये के बाद उनकी मार्केट वैल्यू बढ़ गई. बॉलीवुड के जो कॉर्पोरेट उनकी लीड रोल वाली फिल्मों में पैसा नहीं लगाते थे, उन्हें अब स्ट्रेटेजी बदलनी पड़ी. ये जानते हुए कि वो एक ऐसा फैक्टर बन जाएंगे जिसका मुकाबला करना पड़ेगा, इरफान बार-बार प्रोजेक्ट में पार्ट-प्रोड्यूसर बनने की बात रखने लगे. लेकिन जैसे कि पता है, अगर एक हिंदी फिल्ममेकर के पास शानदार स्क्रिप्ट है, तो वो अपनी पूरी फीस जाने देता है.
साहिबजादे को ऐसा मौका भी मिला जब वो अपनी चमक बिखेर सकते थे- मीरा नायर की द नेमसेक (2006). इरफान प्रोफेसर अशोक गांगुली और तबु उनकी पत्नी के आसिमा के किरदार में थीं. दोनों ही अपनी भूमिकाओं में परफेक्ट नजर आए. इस कास्टिंग को हॉलीवुड कास्टिंग एजेंट समझ चुके थे और एंग ली की फिल्म लाइफ ऑफ पाई (2012) में दोनों फिर साथ नजर आए.
शुरुआत में इरफान को बासु चटर्जी (कमला की मौत, 1989), तपन सिन्हा (एक डॉक्टर की मौत, 1990) और मणि कॉल (द क्लाउड डोर, 1994) जैसे असामन्य फिल्ममेकर से सीखने को मिला था. इरफान की फिल्मोग्राफी का आसान वर्गीकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि वो सर्वव्यापी रहे, हर जगह. 1980 के दशक के अंत में और 90 के दशक की शुरुआत में इरफान ने असामान्य भूमिकाएं निभाई थीं- जैसे कि 'लाल घास पे नीले घोड़े' में व्लादिमीर लेनिन और 'कहकशां' में मार्क्सवादी पॉलिटिकल एक्टिविस्ट मखदूम मोहिउद्दीन. 'कहकशां' के निर्माता उर्दू शायरी के प्रगतिशील शायर अली सरदार जाफरी थे.
कई मौकों पर ऐसी कोशिशें हुईं. जैसे रितेश बत्रा की फिल्म द लंच बॉक्स (2016) में साजन फर्नांडिस के किरदार में नजर आए थे इरफान, जो नौकरी से रिटायर होने वाला होता है. नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने इस फिल्म में इरफान खान के किरदार की चमक छिन ली थी, ऐसा कहा गया. ऐसी कोशिश हुई कि इरफान से विवादास्पद बयानों को निकाला जाए मगर उन्होंने चुप्पी बनाए रखी.
बिना किसी शक के ये कहा जा सकता है कि इरफान कई वेंचरसम डायरेक्टरों के साथ बेस्ट नजर आए. मिसाल के तौर पर- तिग्मांशु धूलिया (पान सिंह तोमर 2012, जिसके लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का नेशनल अवार्ड मिला, उसके बाद ‘हासिल’ और साहेब बीवी और गैंगस्टर रिटर्नस 2013), विशाल भारद्वाज (मकबूल 2003; 7 खून माफ, 2011; हैदर, 2014), अनुराग बसु (लाइफ इन ए मेट्रो 2007), निशिकांत कामत (मुंबई मेरी जान, 2008), सुधीर मिश्रा (ये साली जिन्दगी 2011) और शुजीत सरकार (पीकू, 2015).
इसमें हिंदी मीडियम (2017) को भी शामिल कर सकते हैं. साकेत चौधरी के इस फिल्म में इरफान ने एक ऐसे कारोबारी की भूमिका निभाई थी जो स्टेट्स के चक्कर में संघर्ष कर रहा होता है.
शुरुआत करने वालों के लिए निर्णायक रूप से स्कूल माने जाने वाले अद्भुत फिल्म निर्माताओं के साथ उन्होंने फिल्में कीं जैसे विख्यात बासु चटर्जी (कमला की मौत, 1989), तपन सिन्हा (एक डॉक्टर की मौत, 1990) और मनी कौल (द क्लाउ डोर, 1994). इरफान का करियर किसी श्रेणी में नहीं आता. ऐसा इसलिए क्योंकि वह हर जगह मिल जाते हैं, यहां, वहां और कहीं भी. उदाहरण के लिए 1980 के दशक के अंत में और 90 के टीवी सीरीज वाले दशक की शुरुआत में असामान्य रूप से संदेहजताया गया. लाल घास पे नीले घोडे में व्लादिमिर लेनिन और मार्क्सवादी राजनीतिक कार्यकर्ता मखदू मोहिनुद्दीन के रूप में कहकशां में जिसे उर्दू प्रगतिशील कवि सरदार जाफरी ने प्रोड्यूस किया.
इरफान खान ने कभी भी अपने ऊपर की विचारधारा को चस्पा नहीं होने दिया. किसी भी तरह की राजनीतिक बात नहीं, सोशल मीडिया साइट पर कभी भी तीखी टिप्पणी नहीं. साफ-साफ कहें तो राजनीति उनमें थी ही नहीं, ये बात उन्हें अपने दौर के कई एक्टर्स से अलग करती है.
इरफान खान ने साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी चमक बिखेरी. कई हाई-प्रोफाइल प्रोजेक्ट में नजर आए. ए माइटी हर्ट (2007) से लेकर द दार्जिलिंग लिमिटेड (2007) और स्लमडॉग मिलेनियर (2008) से द अमेजिंग स्पाइडर मैन (2012) और इन्फर्नो (2016) जैसे प्रोजेक्ट में नजर आए. इन सारे प्रोजेक्ट के साथ इरफान ने बॉलीवुड में भी अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखी.
व्यक्तिगत तौर पर देखें कि इरफान खान ऑफ-स्क्रीन कैसे थे तो मैं कहूंगा विनम्र लेकिन लगातार सतर्क रहने वाले शख्सियत. वो तभी बोलते जब बोलना होता. शायद विवादों को दूर रखने, राजनीतिक रूप से योग्य होने और खुद को यह याद दिलाने के लिए कि ख्याति और भविष्य की दुनिया में दूसरा मौका नहीं मिला करता.
इरफान के साथ का एक वाकया है जिसे लेकर में शर्मिंदा हूं. मैंने अपनी फिल्म जिसका टाइटल सिलसिले (2005) था, में तब्बू के साथ भूमिका के लिए उनसे संपर्क किया. ये किरदार एक ऐसे कारोबारी का था जो अवैध संबंध में था. “क्या! आप मुझे दृष्टि वाले दिनों में लौटाना चाहते हैं!” वे खिलखिलाकर हंसे. और फिर यह कहते हुए टोकन फीस कबूल किया, “लेकिन बुरा न मानें. मैं इसे करूंगा.”
जैसे ही मुझे महसूस हुआ कि प्रोड्यूसर वह छोटी रकम भी उन्हें नहीं देना चाहते थे, मेरे पास उनकी अनदेखी करने अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.
कई सालों बाद एक समारोह में उनकी ओर दौड़ने पर उन्होंने पूछा था, “हुआ क्या? मैं उतना बुरा एक्टर नहीं हूं. हूं क्या?” मेरे पास जवाब नहीं था, ठीक वैसे ही जैसे कि साहिबजादे आप क्यों भाग गये? ठीक वैसे ही जैसे उंगलियां खुलते ही हथेलियों से वे उड़ गये हों.
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