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इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत का इंतकाल 

अटल बिहारी वाजपेयी की कमी क्यों खलेगी

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कल रात सपने में एक पत्थर मेरे सिर पर लगा

पत्थर सुर्ख था

उसमें से बूंदे बह रही थीं

मैंने पूछा कि आज ही का दिन क्यों चुना

उसने कहा कि आज ही तो

इंन्सानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत

का इंतकाल हुआ है

मैं भी दाह संस्कार में शामिल होने आया हूं

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अब तक उम्मीद की हल्की किरण तो बची थी

वो भी आज नहीं रही.

नींद में ही मैं पूछ बैठा

अभी हाल ही में तो लाल किले से घोषणा हुई है

कश्मीरियत से इंसानियत एक बार फिर मिलेगी

तो वो हंसा और बोला

जरा ये तो पूछो मैं सुर्ख क्यों हूं ?

मुझे निचोड़ो तो मुझमें

हजारों लोगों का खून पाओगे

मुझे तोड़ कर तो देखो

मेरे दिल में

मांओं के अांसुओं का सैलाब दिखाई देगा

बहनों की आहें

और बेवाओं की सिसकियां सुनाई देंगी.

मुझे ध्यान से देखो,

हां तुम तो देख सकते हो

तुम्हारी आंखें पैलैटगन से नहीं फोड़ी गई हैं

तो देखो और महसूस करो

हजारों बाप के बेटों को खोने का

दर्द महसूस करो

बाप रोते नहीं

उनके अांसू नहीं गिरते

वो दर्द को सीने के अंदर

नासूर की तरह पालते रहते हैं

बस उसी तरह मैं भी

सब कुछ देखता रहता हूं

सब कुछ समेटे जाता हूं अपने अंदर.

जब एक बच्चे का हाथ मुझे उठाता है

मैं चिल्लाता हूं

ठहर, ठिठक

माना बहुत जुल्म हुआ तुझ पर

लेकिन मुझ पर पड़े खून के छींटों

और आंसूओं की बूंदों से

कुछ तो सीख ले ले

वो जमाना कुछ और था

जब “वाजपेईयत” थी

वो दोस्ती वो प्यार वो बड़प्पन कुछ और था

अब हवस है

तुझे सबक सिखाने की.

जरा आस पास तो देख

सड़क पर स्वामी अग्नीवेश के साथ

बदतमीजी हो रही है

वो तो अहिंसा का पुजारी है

वो वाजपेयी के पार्थिव शरीर पर पुष्प चढ़ाने

बीजेपी ऑफिस जा रहा था

उसके तो नाम में भी

कश्मीरी नहीं लगा

अब्दुल्ला नहीं लगा

मुफ्ती नहीं लगा.

अब तो यही राजधर्म है

सिर्फ धर्म है, उन्माद है.

ले चलो मुझे भी

इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत

के दाह संस्कार में

और फेंक देना मुझे तुम

वाजपेयी की चिता में

ताकि भस्म हो जाऊं मैं भी

और हाथ न आ सकूं उन बच्चों के

जो हाथ में ले मुझे

अपनी मौत से खेलते हैं.

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