ADVERTISEMENTREMOVE AD

GN साईंबाबा को जेल, UAPA को बनाया और सख्त: SC के रिटायर्ड जज MR शाह की विरासत

सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर एम आर शाह के रिटायरमेंट के बाद उनके कार्यकाल पर एक नजर.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

"भारतीय दंड संहिता अपराध को रोकने के लिए डेटरेंट की तरह है, जिसका मुख्य उद्देश्य अपराधियों को कानून के तहत जुर्म करने पर सजा देना है."

जस्टिस एम आर शाह (Justice MR Shah) के न्यायिक फलसफे को शायद इससे बेहतर शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता है, जो उन्होंने एक सड़क दुर्घटना मामले में पंजाब & हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा था. इसमें दोषी को कम सजा दिए जाने के कोर्ट के फैसले को उन्होंने पलट दिया था. जस्टिस शाह ने जो फैसला लिखा था, उस आदेश को "अनुचित सहानुभूति" के खिलाफ एक चेतावनी के तौर पर भी देखा जा सकता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह इस तथ्य के बावजूद है कि सुप्रीम कोर्ट ने सजा के लिए प्रावधानों की व्याख्या करते समय बार-बार एक नरम, सुधारवादी रुख का समर्थन किया है. कोर्ट ने तो यहां तक कहा है कि (हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, नवंबर 2021 में):

"सजा का विचार सुधारात्मक होना चाहिए... हम व्यक्तियों को दंडित नहीं करना चाहते. उन्हें सुधारना चाहिए और समाज में दोबारा सलीके से रहना चाहिए "

लेकिन सुधारात्मक और रीस्टोरेटिव न्याय कोई नया विचार नहीं है. 1978 में ही, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने नरोत्तम सिंह बनाम पंजाब राज्य मुकदमे में कहा था,

"...बेहतर सजा वो है जो ज्यादा समझदारी वाला हो और सामाजिक रूप से प्रासंगिक हो. इसके लिए समग्रतावादी, यथार्थवादी और मानवतावादी कार्यवाही इस तरह से होनी चाहिए (ताकि) समुदाय की अंतरात्मा को ठेस पहुंचाए बिना पुनर्वास को बढ़ावा दिया जा सके. "

हालांकि जस्टिस एमआर शाह, UAPA, जमानत, IT एक्ट, मामले में अपने फैसलों में ज्यादा रुढिवादी बने रहे. उन्होंने अपने आदेशों के जरिए कार्यपालिका के पक्ष में झुकाव की एक आश्चर्यजनक प्रवृत्ति भी दिखाई है.

आतकंवाद विरोधी कानून UAPA का खौफ

इस साल मार्च में, जस्टिस एमआर शाह, सीटी रविकुमार और संजय करोल की तीन जजों की पीठ ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत एक गैरकानूनी संगठन की निष्क्रिय सदस्यता को भी आपराधिक घोषित करने का आदेश पारित किया.

विशेषज्ञों ने इस फैसले को "इतिहास में सबसे खराब और सबसे हानिकारक सिविल अधिकारों के फैसलों में से एक" के रूप में बताया. उन्होंने कहा कि इस फैसले ने पहले से मौजूद कठोर कानून UAPA के दुरुपयोग की आशंका को और बढ़ा दिया है.

द क्विंट के लिए वकील जाह्नवी सिंधु और विक्रम आदित्य नारायण ने लिखा है कि " दरअसल UAPA के तहत किसी संगठन को गैरकानूनी करार देने की जो न्यूनतम सीमा होती है उसकी पहचान करने में पीठ नाकाम रही है."

“अब गैरकानूनी करार दिए जा चुके संगठन के अलावा भी देश में जो दूसरे संगठन हैं जो थोड़ा बहुत राजनीतिक विरोध की बात करते हैं, लोग अब वैसी संस्थाओं की भी सदस्यता लेने से घबराएंगे.. क्योंकि अब UAPA का इस्तेमाल करके सियासी विरोध को आपराधिक मामला बना दिया जाएगा और अधिकारों का हनन होगा .”
ADVERTISEMENTREMOVE AD

डिफॉल्ट जमानत सिस्टम से छेड़छाड़?

जनवरी में एक मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस एम आर शाह और सीटी रविकुमार ने कहा कि अगर किसी मामले में चार्जशीट फाइल कर दी जाती है और और केस सख्त है तो फिर डिफॉल्ट बेल का प्रावधान खत्म हो जाता है.

किसी भी मामले में अपने आप में जमानत तब मिलती है जब एक आरोपी के खिलाफ 60 या 90 दिनों या तय अवधि में चार्जशीट नहीं दायर की जाती है ..(अपराध की प्रवृति के मुताबिक )

बेंच ने कहा कि अगर जमानत कैंसिल नहीं किए जाने की दलील को मंजूर किया जाए तब ये एक तरह से इनको बेनिफिट देने जैसा होगा

  • जांच एजेंसी की लापरवाही और ढुलमूल रवैये को

  • तय समय-सीमा के भीतर चार्जशीट दायर करने में जांच एजेंसी की तरफ से जानबुझकर लापरवाही

जस्टिस शाह ने अपने फैसले में आगे डिटेल में लिखा है,

“अगर आरोपी ने कोई गंभीर अपराध किया है, शायद यह NDPS या फिर हत्या करने का मामला हो फिर भी जांच अधिकारी को मैनेज करवाकर तय समय के भीतर चार्जशीट फाइल नहीं हो पाती है तो आरोपी को डिफॉल्ट बेल के प्रावधान के तहत जमानत हासिल हो जाती है. इसलिए कोर्ट ने एक एक्सट्रीम परिदृश्य के बारे में सोचा और माना कि जांच अधिकारी ऐसा करके अक्सर आरोपी की मदद करते हैं और जांच को बहुत लंबा खींच ले जाते हैं. लेकिन यह भी देखने की बात है कि आखिर कब और किन मामलों में जांच अधिकारी आरोपी शख्स के साथ सांठगांठ में काम करते हैं और वो सच को सामने लाने के लिए किस तरह से संघर्ष करते हैं और आरोपी को सलाखों के भीतर रखने के लिए प्रयासरत रहते हैं. वो किस हद तक किसी शख्स को उसकी आजादी को छीनकर उन्हें उससे मरहूम रखते हैं?"

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जस्टिस शाह का ये फैसला नेकनीयती के इरादे से भरा हुआ है. फैसला इस नीयत से दिया गया कि अभी जांच में ढुलमुलापन, लापरवाही, या बेईमानी जो होती है उसे रोका जाए लेकिन इस बात की बहुत संभावना है कि इसका दुरुपयोग दूसरी चीजों के लिए भी किया जा सकता है.

क्योंकि इस फैसले का सबसे ज्यादा असर सीधे तौर पर आरोपी पर आता है. जांच एजेंसी कोई ना कोई बहाना या अपनी बात रखकर चार्जशीट वक्त पर फाइल करने में देरी कर सकती है.

गैर-जमानती अपराध के मामले में जैसे ही जांच एजेंसी कोई खास वजह बताती है डिफॉल्ट बेल कैंसिल हो जाती है और आरोपी को फिर से जेल जाना पड़ेगा.

नोट: आरोपी के गुनहगार साबित होने से पहले ही यह सब होगा.

और जी एन साईंबाबा जेल की हवा खाते रहेंगे

14 अक्टूबर 2022 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईंबाबा को ‘माओवादी-लिंक’ मामले में बरी कर दिया था.. लेकिन इसके 24 घंटे के भीतर ही जी एन साईंबाबा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की स्पेशल सुनवाई हुई. शनिवार को अभूतपूर्व तौर पर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एम आर शाह और बेला एम त्रिवेदी ने सुनवाई की. बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट से साईंबाबा को मिली जमानत को सस्पेंड कर दिया और रिहाई पर रोक लगा दी.

बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को निलंबित करते हुए अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "हाईकोर्ट ने मामले में मेरिट को नहीं परखा है. इसके अलावा हाईकोर्ट ने निचली अदालत से जुर्म साबित होने और सजा सुनाए जाने पर भी विचार नहीं किया है."
ADVERTISEMENTREMOVE AD

लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि बेंच ने यह नहीं कहा कि हाईकोर्ट का निष्कर्ष पहली नजर में किसी तरह से गलत था. वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने द क्विंट से कहा कि “ जब तक कि निचली अदालत के फैसले को सुप्रीम कोर्ट अवैध नहीं ठहरा देता है , आदेश पर रोक नहीं लगाया जा सकता. सिर्फ इसलिए कोर्ट किसी आदेश पर रोक नहीं लगा सकता कि वो कानून के किसी खास बिंदू को देखना चाहती है .

गोंजाल्विस ने यह भी कहा कि यह दीवानी मामला नहीं है, बल्कि एक आपराधिक मामला है, जहां एक व्यक्ति को कोर्ट जेल से रिहाई करने के लिए कहता है लेकिन ऐसा किया नहीं जाता है.

शनिवार के दिन सुप्रीम कोर्ट में केस की स्पेशल सुनवाई और आननफानन में अपील पर बहस को लेकर भी सवाल उठाए गए . लाइव लॉ के लिए एक लेख में मनु सेबेस्टियन ने बताया कि पहले भी कोर्ट में कुछ मामलों पर असाधारण हालात में सुनवाई हुई है. जहां पर व्यक्ति की स्वतंत्रता या किसी गंभीर संवैधानिक संकट का मामला था लेकिन इस तरह से एक व्यक्ति को जिसे कोर्ट से व्यक्तिगत स्वतंत्रता मिली हो उससे वो हक छीनने के लिए स्पेशल सुनवाई क्यों ?"

इस बीच गोंजाल्विस ने कहा: "वे उन्हें एक महीने, दो महीने, तीन महीने के लिए घर जाने दे सकते थे, और इस बीच सुनवाई चलती रहती और फिर अगर वे चाहते तो आदेश को रद्द कर सकते थे और उन्हें वापस जेल जाने का निर्देश दे सकते थे.

जीएन साईबाबा 90 प्रतिशत विकलांग हैं, जो पोलियो के बाद की 19 क्रोनिक और एक्यूट हालातों से ग्रसित हैं और व्हील-चेयर पर निर्भर हैं.

उनके डिस्चार्ज और रिहाई पर रोक लगाने के छह महीने बाद, जस्टिस शाह और सी टी रविकुमार की पीठ ने उनके मामले को फिर से हाईकोर्ट में भेज दिया. हालांकि इस बार बेंच नई थी और नए सिरे से सुनवाई होनी थी. इसलिए साईं बाबा अभी भी जेल में हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

'लोग क्या कहेंगे' इसकी फिक्र नहीं?

यहां तक कि उनके न्यायिक निर्णयों पर जो कई तरह की चर्चाएं होती थी उनका भी जस्टिस शाह के लिए कोई ज्यादा मायना नहीं रहता था. उदाहरण के लिए, पिछले हफ्ते ही वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत्त कामत ने उनसे जेल में बंद पूर्व पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट की याचिका (अतिरिक्त साक्ष्य जोड़ने की मांग) की सुनवाई से खुद को अलग करने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं करने का फैसला किया.

कामत ने दलील दी थी कि जस्टिस शाह ने हाईकोर्ट के जज के तौर पर सुनवाई की थी और भट्ट के खिलाफ कड़ी निंदा की थी. उन्होंने यह भी बताया कि सवाल यह नहीं है कि क्या जज पक्षपाती हैं या नहीं, बल्कि यह है कि क्या किसी पक्ष के मन में उनके पक्षपात होने की आशंका है?

सीनियर एडवोकेट ने कहा कि, "सिर्फ न्याय होना नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए."

लेकिन जस्टिस शाह पर कोई असर नहीं हुआ. न केवल उन्होंने खुद को सुनवाई से अलग करने से इनकार कर दिया, बल्कि कुछ ही क्षणों के बाद, उन्होंने जज रविकुमार के साथ सुनवाई में भट्ट के आवेदन को भी खारिज कर दिया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

कार्यपालिका की तरफ झुकाव

इतना ही नहीं यह भी माना जाता है कि जज एमआर शाह ने अक्सर किसी भी मामले में दूसरों की तुलना में कार्यपालिका के पक्ष को ज्यादा ध्यान से देखा है.

उदाहरण के लिए, इस महीने की शुरुआत में उन्होंने कहा था कि जहां टैक्स की मांग करने वाला एक स्पष्ट कानून है, वहां सरकार से एग्जेम्पशन (छूट की) का सिद्धांत लागू नहीं होगा. इस फैसले में जजों में मतभेद था. जज कृष्ण मुरारी की राय थी कि सिद्धांत तब लागू होगा जब एक विशिष्ट अवधि के लिए टैक्स में छूट के लालच के साथ औद्योगिक इकाइयों का गठन किया जाएगा.

जबकि जस्टिस शाह ने अपनी राय दी,

“कानून के मुताबिक कोई भी एग्जेम्पशन को अपना अधिकार बताकर दावा नहीं कर सकता है. छूट हमेशा छूट का लाभ उठाने के लिए शर्तों को पूरा करने पर मिलती है और इसे सरकार कभी भी वापस ले सकती है..”

द क्विंट के साथ बातचीत में, एडवोकेट हर्षित आनंद ने इस दृष्टिकोण को "रूढ़िवादी और न्यायशास्त्र के कट्टर और हठधर्मिता वाले स्कूल के अनुरूप बताया, जो कि हठधर्मी व्याख्या पर अपने आग्रह से, सरकार के हित को आगे बढ़ाता है."

पिछले महीने, जस्टिस शाह और रविकुमार की एक बेंच ने यह भी कहा कि इनकम टैक्स एक्ट में संशोधन किया . "Belong/Belongs" की जगह अब Pertain/Pertains का इस्तेमाल करने का फैसला दिया. इसे रेट्रोस्पेक्टिव लागू कर दिया ..यानि अब यह पुराने मामले में भी लागू होगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

Livelaw के लिए एक विश्लेषण में, राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस और त्रिपुरा हाईकोर्ट के जज अखिल कुरेशी ने दलील दी कि इस नए आदेश पर फिर से विचार होना चाहिए.

उन्होंने यह भी कहा कि "बोर्ड में सभी इस पर एक राय थे कि Belong/Belongs "को" ‘Refer’ की तरह नहीं बताया जा सकता है. ”

दो अन्य मामलों में जज एम आर शाह ने जो कुछ कहा वो काफी विवादास्पद है. उन्होंने दो अलग-अलग अवसरों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को "मॉडल और एक नायक" और "हमारे सबसे लोकप्रिय, प्यारे, जीवंत और दूरदर्शी नेता" के रूप में बताया.

लेकिन वो मानते हैं कि किसी के निजी विचार को कानून की अदालत में तरजीह नहीं दी जाती है. बार और बेंच को उन्होंने बताया: "हमारे व्यक्तिगत विचार या विश्वास ने हमारे फैसले को कभी प्रभावित नहीं किया है."

हालांकि जस्टिस शाह की न्यायिक विरासत को विवादित तौर पर देखा जा सकता है और सवाल भी उन पर रहेंगे लेकिन उनके कुछ आदेश बहुत उल्लेखनीय हैं.

करियर हाईलाइट्स

अघोषित आय के मामले में जस्टिस शाह और सुधांशु धुलिया की एक बेंच ने माना है कि एक बार अघोषित आय अगर इनकम टैक्स सर्च के दौरान पाई जाती जाती है तो, असेसमेंट ऑफिसर (AO) IT एक्ट की धारा 153 A के तहत आय की फिर से जांच कर सकते हैं , भले ही उनका असेसमेंट पहले ही पूरा क्यों ना हो चुका हो.

हालांकि, यदि सर्च के दौरान ऐसी कोई सामग्री नहीं मिलती है तो फिर AO दोबारा से एसेसमेंट नहीं कर सकता है.

विशेषज्ञों ने इस फैसले की सराहना की है. "इससे आपराधिकता और पुनर्मूल्यांकन के दायरे को तय करने में सहूलियत रहेगी और कोई अधिकारी सर्च ऑपरेशन के दौरान अपनी मनमानी नहीं कर सकेगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
लेकिन जस्टिस एम आर शाह को खुद जो फैसला सबसे ज्यादा निजी तौर पर पसंद है और जिन्हें वो अपार संतुष्टि देने वाला मानते हैं- वास्तव में वो काफी अहम है.

मार्च 2019 में, जस्टिस एके सिकरी, एस ए नजीर, और श्री शाह की तीन जजों की पीठ ने पाया कि 6 आरोपियों को गलत तरीके से मृत्युदंड दिया गया और उनको गलत तरीके से फंसाया गया है. कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए (एपेक्स कोर्ट की अनूठी शक्ति पूरी न्याय करने के लिए) सभी छह को बरी कर दिया. महाराष्ट्र सरकार को सभी 6 आरोपियों को मुआवजे के तौर पर 5 लाख रुपये देने का आदेश भी दिया.

Bar & Bench की रिपोर्ट के मुताबिक जस्टिस शाह ने कि हमने महसूस किया कि यह बरी होने का एक स्पष्ट मामला था, क्योंकि छह व्यक्ति वहां थे और एक व्यक्ति कई वर्षों तक जेल में था और मनोवैज्ञानिक समस्याएं थीं. इन छह गरीब आदिवासी व्यक्तियों को लेकर हम दुविधा में थे कि क्या करना है. इसलिए आखिरकार, हमने सभी को बरी कर दिया. ”

लेकिन क्या पूर्ण न्याय के कुछ काम दूसरे झटकों को नरम कर देते हैं? क्या न्याय का ऐसा स्वभाव है कि ये कुछ मामलों में तो रोशनदान की तरह होते हैं और कुछ जगहों पर छाया में चले जाकर खराब हो जाते हैं- शायद UAPA के तहत या शायद डिफॉल्ट जमानत रद्द करने को लेकर ऐसा ही कुछ आकलन किया जाएगा?

(इनपुट- Hindustan Times, LiveLaw, Bar and Bench, The Print, SCC)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×