मैरिटल रेप को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई. फैसला सुनाते समय दोनों जजों ने अलग-अलग राय रखी. जस्टिस सी हरिशंकर ने कहा कि मैरिटल रेप को किसी कानून का उल्लंघन नहीं माना जा सकता. बेंच में याचिक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं. ये तो रही दिल्ली हाईकोर्ट की बात. अब कर्नाटक हाईकोर्ट के उस आदेश के बारे में भी जान लीजिए, जो कुछ दिनों पहले मैरिटल रेप पर दिया. यह आदेश अपनी पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध (Sexual relations) बनाने के आरोपी व्यक्ति के खिलाफ बलात्कार के आरोपों को खारिज करने से इनकार करता है. हाईकोर्ट के आदेश की इसकी प्रगतिशील भावना के लिए सराहना की जा सकती है, और एक क्रूर अपराध वैवाहिक बलात्कार के कथित अपराधी को वैवाहिक जीवन के पीछे छिपने की अनुमति देने से इनकार किया जा सकता है.
न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना की एकल-न्यायाधीश पीठ ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 द्वारा प्रदान की गई छूट - जो कहती है कि पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ कोई भी संभोग या कृत्य बलात्कार नहीं है - यह अंतिम फैसला नहीं हो सकता.
एक आदमी एक आदमी है; एक अधिनियम एक अधिनियम है; बलात्कार एक बलात्कार है, चाहे वह एक पुरुष "पति" द्वारा किया गया हो, महिला "पत्नी" पर"पैरा 28 . पर कर्नाटक HC का आदेश
वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन ने द क्विंट को बताया था, "यह फैसला प्रशंसनीय है. न्यायाधीश की चिंता प्रशंसनीय है. लेकिन आदेश अस्थिर है."
भारत के प्रमुख आपराधिक लॉ प्रैक्टिशनर्स में से एक, रेबेका जॉन को हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक न्याय मित्र के रूप में नियुक्त किया गया था, जब वह वैवाहिक बलात्कार अपवाद को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे थे.
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने उनसे आपराधिक कानून के नजरिए से अपवाद पर उनकी विशेषज्ञ राय मांगी, और उन्होंने अपवाद के इतिहास के बारे में विस्तृत प्रस्तुतिया दीं कि कैसे धारा 375 की संरचना की गई थी, और क्या इस अपवाद को खत्म करना एक नए अपराध के निर्माण करना होगा.
उनकी राय में वैवाहिक बलात्कार अपवाद बहुत ही पूर्ण है, जिसे उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय को भी समझाया था. अपवाद की भाषा अपराध की क्रूरता के आधार पर किसी योग्यता की अनुमति नहीं देती है.
जबकि न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना ने सुझाव दिया कि कोई भी छूट पूर्ण नहीं हो सकती है, जॉन कहती हैं कि आपराधिक कानून में कई पूर्ण अपवाद हैं, जिसमें सात साल से कम उम्र के बच्चे पर मुकदमा चलाने पर प्रतिबंध भी शामिल है.
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