2005 में उन्हें नोबल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था. वह सालों से कश्मीर में गुमशुदा लोगों के लिए संघर्ष कर रही हैं. लेकिन श्रीनगर की मानवाधिकार कार्यकर्ता परवीना अहंगर को इसका सिला कुछ अलग ही तरह से मिला है. 28 अक्टूबर को आतंकवादी गतिविधियों को वित्तीय मदद करने के आरोप में नेशनल इनवेस्टिगेटिंग एजेंसी ने उनसे पूछताछ की है.
अहंगर को कश्मीर में आयरन लेडी कहा जाता है. वह एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसेपियर्ड पर्सन्स (एपीडीपी) की संस्थापक हैं. तमाम परेशानियों के बावजूद वह कश्मीर के सामान्य लोगों, गुमशुदगी, जिसे एनफोर्स्ड डिसेपियरेंस कहा जाना चाहिए, के शिकार लोगों के लिए लड़ना चाहती हैं. उनके इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं.
परवीना ने गुंगबुग में अपने लाल ईंटों वाले दोमंजिला मकान में क्विंट से बातचीत की. यहां वह अपने शौहर, दो बेटों और एक बेटी के साथ रहती हैं.
नेशनल इनवेस्टिगेटिंग एजेंसी (एनआईए) ने दावा किया है कि उसे आपके दफ्तर में छापे के दौरान संदिग्ध चीजें मिली हैं? इस पर आप क्या कहना चाहेंगी?
मेरी जिंदगी तो एक खुली किताब है. मैं तीस सालों से काम कर रही हूं पर मुझे इस तरह बेइज्जत कभी नहीं किया गया. यह सब देखकर मुझे अफसोस होता है. मेरे बेटे को लापता हुए तीस साल हो गए हैं. 1990 में उसे आर्मी वाले उठा ले गए थे. उसे ढूंढने के लिए मैंने मैदानों को छाना और पहाड़ों को लांघा है. मैं अपने बेटे का पता लगाने की मांग कर रही हूं, क्या यही मेरा जुर्म है?
एपीडीपी की क्या भूमिका है?
मैंने 1994 में यह संगठन बनाया था, जब सरकार और अदालतें मेरे बेटे के मामले में इंसाफ नहीं कर पाईं. अखबारों की कटिंग्स के जरिए मैंने दूसरे पीड़ित परिवारों को ढूंढा. वे सभी एनफोर्स्ड डिसेपियरेंस के शिकार थे. इंसाफ मांगने के लिए हमने एक कॉमन प्लेटफॉर्म बनाया.
2008 में मैं युनाइडेट नेशंस गई. वहां एनफोर्स्ड डिसेपियरेंस पर एक वर्किंग ग्रुप के साथ हमारी मीटिंग हुई. यूएन हमारे काम को फंड करता है. हम बदसलूकी के शिकार परिवारों की मदद करते हैं.
अपने बेटे में बारे में बताएंगी?
मेरे बेटे जावेद अहमद अहंगर को आर्मी ने 1990 में अगवा किया था. मैंने सरकार से मदद मांगी ताकि मैं उसे ढूंढ पाऊं. पर किसी ने मेरी मदद नहीं की. ज्यूडीशियरी कभी इंसाफ का घर होता था. मैं चार सालों तक अदालतों के चक्कर लगाती रही. लेकिन मेरी जैसी दूसरी मांओं की झोली भी खाली रही. कितने मंत्री, सरकारें हमने देखीं लेकिन हमारी फरियाद किसी ने नहीं सुनी.
तब मैंने तय किया कि अपनी जंग को सड़कों तक पहुंचाना है. हम विरोध जताने के लिए श्रीनगर में हर महीने की 10 तारीख को सड़कों पर धरना देते थे. लेकिन पेंडामिक की वजह से हम अब यह नहीं कर पाते.
मैंने खुदा से वादा किया है कि मैं जब तक जिंदा हूं, अपनी लड़ाई लड़ती रहूंगी. अगर उन्होंने हमसे हमारे बच्चे छीने हैं तो उन्हें यह बताना चाहिए कि उन्हें कहां रखा गया है.
छापे वाले दिन क्या हुआ था?
उन्होंने तड़के की नमाज के बाद हमारे घर पर छापा मारा. मैं और मेरी बेटी सायमा, जोकि एपीडीपी में मेरे साथ काम करती है, किचन में चाय बना रहे थे. तभी मेरे शौहर आए और बोले कि कोई बाहर के दरवाजे पर मेरे बारे में पूछ रहा है.
मैं बाहर आई. सैकड़ों सिक्योरिटी वाले सड़क पर जमा थे. मैं हैरान रह गई. मैं तो एक अच्छा काम कर रही हूं और पिछले तीस सालों से किसी ने मुझसे सवाल नहीं पूछे. किसी ने मेरी ईमानदारी पर उंगली नहीं उठाई. यह पहली बार है कि ऐसे हालात का मुझे सामना करना पड़ रहा है.
मैंने देखा कि सरकारी और प्राइवेट कारों का जुलूस है. सिक्योरिटी वालों में औरतें भी शुमार थीं. उन्होंने पूछा कि घर के अंदर कौन है. मैंने कहा कि परिवार वालों के अलावा कोई नहीं है. उन्होंने हमारे मोबाइल फोन ले लिए और मुझसे कहा कि सारे कमरों को बंद कर दें, सिवाय किचन को छोड़कर.
मैं उनसे कहती रही कि मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं है. उन्होंने हमसे हमारे काम के कागजात मांगे. तो सायमा और मैं उन्हें अपने दफ्तर ले गए. वे लोग सुबह सात बजे से लेकर शाम चार बजे तक तलाशी लेते रहे. हमारे लिए यह एक दर्दनाक तर्जुबा था.
क्या एनआईए ने आपके दफ्तर से किसी चीज को अपने कब्जे में भी लिया?
वे लोग कंप्यूटर की हार्ड ड्राइव्स को अपने साथ ले गए और पीड़ितों और उनके परिवार के डेटा को जेरॉक्स कर लिया. उन्होंने मेरे बैंक एकाउंट की डीटेल्स पूछी, जोकि मैंने बता दी. उन्होंने कुछ कागजात पर हमारे दस्तखत कराए. मेरे पास छिपाने को क्या है. मेरा दफ्तर यूएन की ग्रांट्स पर चलता है.
मुझे जो भी मदद मिलती है, सबका हिसाब-किताब मौजूद है. मैंने एजेंसी वालों से कहा कि मेरा हजारों परिवारों से रिश्ता है जिनके अपने एनफोर्स्ड डिसेपियरेंस के शिकार हैं. मैं पैलेट गन के शिकार लोगों, तकलीफशुदा लोगों, बलात्कार की शिकार औरतों के साथ काम करती हूं. ये सभी अहम मसले हैं. जहां भी जुल्म होता है, मैं उसके शिकार लोगों के साथ काम करती हूं. मैं उनका दुख बांटने की कोशिश करती हूं. अगर यह जुर्म है तो बेशक, मैं मुजरिम हूं.
ऐसा कहा जाता है कि कश्मीर में एक्टिविज्म के दौरान आपने गलत तरीके से बेशुमार दौलत कमाई है?
मेरा दफ्तर एक प्राइवेट बिल्डिंग में है. और इसका किराया यूएन ग्रांट से चुकाया जाता है. मुझे 2017 में राफ्टो प्राइज मिला था जिसमें कुछ नकद राशि मिली थी. मुझे नोबल के लिए भी नॉमिनेट किया गया है. पिछले साल बीबीसी ने 100 इंस्पायरिंग विमेन में मुझे शामिल किया था.
मैं देश विदेश की कई यूनिवर्सिटी में लेक्चर दे चुकी हूं. मेरे पास जो भी सेविंग्स हैं, सब का हिसाब मौजूद है. मेरा जमीर पाक साफ है. जब एजेंसी वाले मुझे सवाल-जवाब कर रहे थे तो एक ऑफिसर ने बुकलेट से ब्लैंक चेक निकाल लिया. मैंने उससे मजाक किया कि मुझे उस पर दस्तखत करने दे. ताकि हम बाद में पैसे आधे-आधे बांट लें. वह ठहाका मारकर हंस पड़ा.
क्या एनआईए के इनवेस्टिगेटर्स ने आपके साथ अच्छा सलूक किया?
यह कहना झूठ होगा कि उन्होंने हमारे साथ अच्छा सलूक नहीं किया. उन्होंने अच्छा बर्ताव किया क्योंकि हमने उन्हें अपना काम करने दिया. जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं है. ऐसे लोग हैं जो पीड़ित परिवारों की मदद कर रहे हैं, लेकिन उन्हें जो भी माली मदद दी जा रही है, उसका पूरा हिसाब है. मैंने उनसे कहा कि मैं 17 देश गई हूं और इंसाफ की अपनी लड़ाई जारी रखूंगी. एक ऑफिसर ने मुझसे कहा कि मैं बहुत मजबूत औरत हूं.
मैंने उससे कहा कि मैं मजबूत तो नहीं, पर आयरन लेडी हूं. मैंने पूछा कि मेरी क्या गलती थी कि मेरे बेटे को इस तरह मुझसे छीन लिया गया. सरकार जांच का हुक्म देती है और कमीशन बनाती है. लेकिन उसका क्या नतीजा होता है. अदालतें तक इंसाफ नहीं दे पातीं. तो हम किसके पास जाएं?
आप लोग कश्मीर में गुमशुदा लोगों के लिए काम करते हैं. क्या हक की दूसरी लड़ाइयों के लिए भी आप लोग अपनी आवाज उठाते हैं?
कुछ समय से हम टॉर्चर के, पैलेट गन के शिकार लोगों के लिए भी काम कर रहे हैं. पब्लिक सेफ्टी एक्ट यानी पीएसए के तहत हिरासत में लिए गए लोगों के लिए आवाज बुलंद कर रहे हैं. अगर किसी शख्स को पीएसए के तहत हिरासत में लिया जाता है, और वह अपने परिवार का अकेला कमाऊ मेंबर है तो हम उसके परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों का ध्यान रखते हैं. क्या यह हमारा जुर्म है? कश्मीर में 600 से ज्यादा लोग पैलेट्स के चलते अपनी आंखों की रोशनी खो चुके हैं. ऐसे लोग अपने परिवार पर बोझ बन जाते हैं, जब उन्हें उनका सपोर्ट बनना चाहिए. भला किसी शख्स के किए के लिए उसका परिवार जिम्मेदार कैसे है? उसके किए की सजा उसके परिवार को क्यों मिलनी चाहिए?
क्या इनवेस्टिगेटर्स ने आपसे कहा कि आपको अपना काम छोड़ देना चाहिए?
मैंने उनसे कहा कि हमारे मसलों को पहले सुलझाएं. हमारे बच्चे कहां गायब हो गए? अगर कानून हम पर लागू होता है तो आर्म्ड फोर्सेस पर लागू क्यों नहीं होना चाहिए? हम मुआवजे की पेशकश ठुकरा चुके हैं. दौलत से आप सब कुछ खरीद सकते हैं लेकिन हमारे अपने प्यारे लोग वापस नहीं आ सकते. कई औरतों ने अपने दो और कई ने तीन बच्चे खोए हैं.
अगर मैं उनकी मदद नहीं करूंगी तो वे लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर जाएंगे. पहले हमें यह बताइए कि हमारे बच्चे कहां हैं. हम घर पर चुपचाप बैठ जाएंगे.
क्या आप परेशान नहीं हैं कि यह सब हुआ? क्या एपीडीपी अपना काम जारी रखेगी?
बिल्कुल भी नहीं. मैं डरती नहीं. हम सब को कभी न कभी तो मरना है ही. मैं तो अपने हक की लड़ाई लड़ रही हूं. मैं कोई नेता नहीं हूं. मैं तो खुद शिकार हूं. जब मैं कश्मीर की तंग-स्याह गलियों में गई तो मैंने बहुत दर्दनाक हादसों के बारे में सुना. मैं कोई गलत काम नहीं कर रही. अल्लाह के सिवा मैं किसी से नहीं डरती. मेरे बच्चों को मेरी वजह से तकलीफ उठानी पड़ती है. मैं उन्हें सही तरीके से पाल नहीं पाई इसीलिए उनकी जिंदगी बहुत खुशनुमा नहीं. लेकिन मेरी किस्मत में उन्हें पालना है ही नहीं. अपने जैसे मजलूम लोग मुझे बुलाते हैं तो मुझे लगता है कि मेरा खुदा मेरे बच्चों को संभाल रहा है. आर्मी वालों ने मुझे नकद देने की पेशकश की थी ताकि मैं अपना काम छोड़ दूं लेकिन मैंने मंजूर नहीं किया.
एक तरफ हम आर्म्ड फोर्सेस, सरकार और ज्यूडीशियरी का शिकार हैं, तो दूसरी तरफ हमारे साथ मुजरिमों जैसा बर्ताव किया जा रहा है. मैं कोई कारोबार नहीं कर रही. मेरा दफ्तर कोई दुकान नहीं है जहां लोग आते और सामान खरीदते हैं. यह एक पाक जगह है जहां हम लोगों के जख्मों पर मरहम लगाते हैं. बहुत सी सरकारें आईं और गईं, पर किसी ने हमारी मदद नहीं की. हमें इंसाफ तो मिला नहीं, हम मुजरिम बना दिए गए. उन्हें तकलीफशुदा लोगों की फाइल्स देखनी चाहिए. उन्हें खुद पता चल जाएगा कि कश्मीर में क्या हुआ है.
चाहे सभी लोग हक की लड़ाई में पस्त पड़ जाएं, तो भी मेरा इरादा कमजोर नहीं पड़ेगा. यह एक लंबी जंग है. जब तक मैं जिंदा हूं, अपनी लड़ाई जारी रखूंगी.
(जहांगीर अली श्रीनगर में रहने वाले पत्रकार हैं. वह @gaamuk.पर ट्विट करते है.)
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