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दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे किसान-मजदूर आखिर कहना क्‍या चाहते हैं?

एक लाख किसान और मजदूर अपनी मांगों को लेकर दिल्ली पहुंचे हुए थे, हर एक की अपनी कहानी है, लेकिन मांग बिलकुल एक जैसी है

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32 साल की जयश्री नीलेश देशमुख को अकोला से दिल्ली की 1216 किलोमीटर की यात्रा करने में लगभग 24 घंटे का समय लग गया. वो यहां 5 सितंबर को होने वाली किसान-मजदूर संघर्ष रैली में शामिल होने के लिए आई हैं.

आखिर जयश्री को कौन-सी चीज यहां तक खींच लाई? जयश्री बताती हैं:

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मैं पिछले दस साल से बतौर आशा वर्कर काम कर रही हूं. दस साल पहले हमें एनआरएचएम के तहत कॉन्ट्रेक्ट बेसिस पर लगाया गया था. आशा वर्कर को माहवार पगार नहीं मिलती है. हम अगर किसी गर्भवती महिला को डिलीवरी के वक्‍त अस्पताल लेकर जाते हैं तो हमें 600 रुपए दिए जाते हैं. मैं अकोला के गोराद गांव में काम करती हूं. गांव की आबादी महज 700 लोगों की है. किसी-किसी महीने गांव में एक भी डिलेवरी नहीं होती है. पिछले दस साल में मैंने कभी भी दो हजार से ज्यादा नहीं कमाए. मेरे पति किसान हैं. मुझे घर चलाने में काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है. हम चाहते हैं कि सरकार हमारी नियुक्ति को स्थाई कर दे. हमें एक तय पैसा माहवार मिलने लगे.

करीब 1 लाख किसान-मजदूर अपनी मांग रखने दिल्ली पहुंचे हैं...

जयश्री की तरह करीब एक लाख किसान और मजदूर अपनी मांगों को लेकर दिल्ली पहुंचे हुए थे. माकपा के किसान संगठन AIKS और मजदूर संगठन CITU ने 5 सितंबर को दिल्ली में मजदूर किसान रैली का ऐलान किया था.

क्या है इन किसानों-मजदूरों की मांग?

महारैली की प्रेस रिलीज पर कुल जमा 15 मांगे दर्ज थीं. इनमें से एक भी मांग की उम्र दो दशक से कम नहीं थी. मसलन महंगाई पर लगाम लागने, भूमि सुधार, रोजगार देने, श्रम कानूनों को दुरुस्त करने जैसी मांगे इस लोकतंत्र जितनी ही पुरानी हैं.

ऑल इंडिया किसान सभा के महासचिव बीजू कृष्णन दावा करते हैं कि उन्होंने अपने तीन दशक के राजनीतिक जीवन में इतनी बड़ी रैली नहीं देखी. आप इस रैली को 2019 के चनावी दंगल की तैयारी कह कर खारिज कर सकते हैं. दूसरा तरीका यह है कि हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके आए हाशिए के इन लोगों की बात को सुना जाए.

इनकी भी सुनिए...

हिसार के लाडवा गांव से आए शमशेर पुनिया और उनके बीस साथियों के लिए दिल्ली पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं था. यहां पहुंचने का किराया किसानों चंदे के जरिए जुटाया था. शमशेर बताते हैं:

"सरकार ने देश के किसानों को पीसकर रख दिया है. यह सरकार फसल बीमा योजना का बहुत ढोल पीट रही है लेकिन फसल बीमा योजना किसानों को फायदा पहुंचाने की बजाए नुकसान पहुंचा रही है. हर साल हमारे खाते से बैंक फसल बीमा योजना के नाम पर पैसा काट लेती है. जब फसल खराब हो जाती है तो हमें कोई मुआवजा नहीं मिलता.’’

‘’इसी तरह से खाद और बीज के दाम हर साल बढ़ते चले जा रहे हैं. हाल ही में सरकार ने डीएपी और यूरिया की मात्रा में हर बैग पर पांच किलो की कटौती की है और ऊपर से दाम और बढ़ा दिए हैं. ऐसे में हम क्या कमाएं और क्या खाएं?"

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कोई रोजगार नहीं, खाली बैठना पड़ेगा

नासिक से दिल्ली चलकर आए शंकर वाघमारे खेत मजदूर हैं. उनके पास कोई स्थाई रोजगार नहीं है. खरीफ की फसल कटने के बाद उन्हें महीनों खाली बैठना पडेगा. अपनी जिंदगी चलाने के लिए उन्हें मनरेगा से काफी मदद मिल जाया करती थी. वो बताते हैं:

"हमारे तालुका में मनरेगा का काम लगभग ठप्प पड़ा हुआ है. इसके अलावा हमारे यहां सरकार की तरफ से मिलने वाला राशन भी नहीं मिल रहा है. हम बहुत परेशान हैं.

पहले अपनी मांग को लेकर हम नासिक से पैदल मुंबई गए थे. उस समय सरकार ने हमसे वायदा किया था कि हमारी सभी मांगे पूरी करेगी. इतने महीने हुए लेकिन सरकार ने हमारी मांग पूरी नहीं की. इस वजह से अब हम दिल्ली आए हैं."

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राजस्थान क चित्तौड़ से आए हुए बलवीर पुनिया वहां की सीमेंट फैक्ट्री में काम करते हैं. वो श्रम कानूनों में हुए बदलाव से नाराज दिखाई देते हैं. बलवीर बताते हैं:

ये सरकार पूरी तरह से बड़े-बड़े सेठों से मिल गई है. हमारे पीएफ ब्याज दर पिछले चार साल में दो दफा कम कर दी गई है. इसी तरह से डीए में भी कटौती के जा रही है. ऊपर से सरकार श्रमिकों के सुरक्षा के सभी कानूनों को खोखला करती जा रही है. नया कानून आया है कि 300 से कम सदस्य होने पर हम यूनियन नहीं बना सकते. कई फैक्ट्रियों में कुल 300 मजदूर ही नहीं हैं. वहां के मजदूरों से यूनियन बनाने का हक़ ही छीन लिया.

सीपीएम के लिए भी उत्साह पैदा करने वाला है ये प्रदर्शन

हालांकि रैली में आए हर शख्स के पास दिक्कतों के अपनी गठरी थी, फिर भी यह रैली खालिस तौर पर सियासी थी. तो आखिर इस रैली के सियासी मायने क्या हैं? त्रिपुरा चुनाव में हार को देश की सियासत में लेफ्ट की विदाई के तौर पर देखा जा रहा था. दिल्ली में इतनी बड़ी रैली करके सीपीएम ने यह साबित करने की कोशिश की है कि जनता के बीच सकी जड़ें काफी गहरी हैं. वो पूरी तरह से हाशिए पर नहीं लग गई है. इस रैली के जरिए सीपीएम को प्रस्तावित विपक्षी गठबंधन में अपनी जगह को मजबूत करने में काफी मदद मिलेगी.

बीजेपी इसे विपक्ष का चुनावी स्टंट कह कर खारिज कर सकती है. यहां आए हुए लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी साफ दिखाई दे रही थी. सरकार के लिए इस गुस्से को खारिज करना आसान नहीं होगा. अगर कोई विपक्षी दल लोकसभा चुनाव के महज 7 महीने पहले संसद की छाती पर इतनी बड़ी रैली करता है, तो इसे सत्ताधारी पार्टी के अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता.

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