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Lok Sabha Election: UP का बड़ा चुनावी मुद्दा बेरोजगारी है, न राम मंदिर...न ही मंगलसूत्र!

उत्तर प्रदेश में चुनावी जंग में कैसे बदलेगा खेल, क्या 'रोजगार की आस' बदलेगी युवाओं का मत?

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हम यह नहीं कह सकते कि हमें चेतावनी नहीं दी गई थी. लखनऊ के पास एक ढाबे के मालिक ने नाटकीय ढंग से बताया कि तूफान आने वाला है.

ऐसी ही आवाजें मध्य उत्तर प्रदेश और वाराणसी की यात्रा के दौरान भी सुनी गईं, जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं. उनके जीतने की पूरी संभावना है लेकिन कम अंतर के साथ.

भीड़ का तूफान प्रयागराज के पास फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र में देखा गया, जहां लाखों युवाओं ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से मिलने के लिए बैरिकेड तोड़ दिया. युवाओं ने दोनों नेताओं के करीब आने की कोशिश की... शायद इस उम्मीद में कि वे उन्हें नौकरियों और बेहतर जीवन के वादे के लिए मजबूर कर सके.
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विपक्षी गठबंधन में विश्वास बढ़ रहा है

फूलपुर के उत्साह ने कांग्रेस को फिर से उत्साहित कर दिया है. राहुल गांधी ने दावा किया कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) केवल "क्योटो" (वाराणसी को इस जापानी शहर के नाम से बुलाया जाता है) से जीतेगी और बाकी 79 सीटों पर इंडिया गुट का दावा होगा.

ऐसा नहीं हो सकता है लेकिन गठबंधन का आत्मविश्वास इस हद तक बढ़ रहा है कि उन्होंने राम मंदिर या लाभार्थियों के बड़े समूह (मुफ्त भोजन जैसी मुफ्त सुविधाओं के कारण) के चुनावों पर प्रभाव को पूरी तरह नजर अंदाज कर दिया है.

बीजेपी सक्रिय रूप से धार्मिक विभाजन को प्राथमिकता देने की कोशिश कर रही है, यह दावा करते हुए कि कांग्रेस पार्टी संसाधनों को हिंदू बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यकों (विशेषकर मुसलमानों) को दे देगी. तब मंगलसूत्र के लिए यह दावा था कि कांग्रेस इसे हिंदू महिलाओं से छीन लेगी और मुसलमानों को दे देगी. हालांकि, इस बेतुके दावे से ज्यादा फायदा नहीं मिला.

भले ही ये दिखाया जा रहा हो कि UP में बीजेपी आसानी से जीत रही है लेकिन देखा जाये तो 2022 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बीजेपी को अच्छी टक्कर दी थी.

पार्टी 89 विधानसभा सीटों पर दूसरे नंबर पर थी और (सभी 89 सीटें) मिलाकर 1.5 लाख वोटों का अंतर था. हार-जीत का अंतर सैकड़ों में था.
एसपी प्रवक्ता अमीके जामेई

जामेई के अनुसार, इसका मुख्य कारण यह था कि राज्य के बड़े हिस्से में, दलित, जो ज्यादातर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ जुड़े हुए थे, ने बीजेपी को वोट देने का फैसला किया क्योंकि उन्हें एसपी पर पूरा भरोसा नहीं था. अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बार कुछ अलग होगा?

आरक्षण खत्म होने का नैरेटिव चुनाव को प्रभावित करेगा!

दलित, बीजेपी के 400-पार के नारे से चिंतित हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा होने पर संविधान को बदला जाएगा, जिसका मतलब उनके लिए आरक्षण को खत्म करना है.

हालांकि बीजेपी नेतृत्व यह दिखाने की पूरी कोशिश कर रहा है कि वे संवैधानिक रूप से मिलने वाली अनिवार्य नौकरी को लेकर आरक्षण खत्म नहीं करेंगे लेकिन दलितों का विश्वास हासिल करना आसान नहीं है. इसके विपरीत, दलित, कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर अधिक भरोसा दिखाता है.

दलित नेता गौतम राणे के अनुसार, 2007 में अपने चरम पर बीएसपी का 20 प्रतिशत वोट शेयर पर नियंत्रण था जो अब घटकर मात्र चार प्रतिशत रह गया है. एसपी प्रवक्ता अमीके जामेई ने इस बयान का खंडन करते हुए कहा कि दलित एसपी और कांग्रेस दोनों को वोट दे रहे हैं.

जबकि राणे ने तर्क दिया कि दलित कांग्रेस पार्टी को वोट दे सकते हैं, कई वर्गों के लिए बीजेपी से अन्य दलों में जाने का असली कारण बेरोजगारी और महंगाई होगी. सरकार द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने के बावजूद, सरकार की योजना शिक्षित लेकिन बेरोजगार लोगों के समूह को रास नहीं आ रही है.

हर एक युवा अवसरों के खत्म होने से परेशान है और साथ ही उनका कॉम्पिटेटिव एग्जाम के पेपर के लगातार लीक होने से सरकारी नौकरी हासिल करने की उम्मीद भी खत्म हो रही है.
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फूलपुर रैली के लिए आए लोगों के हताश चेहरों को देखकर, यह आश्चर्य की बात नहीं होगी कि उनमें से कई थोड़े से पैसों के लिए इजराइल में जाकर काम करने, रूसी या यूक्रेनी सेनाओं में शामिल होने के इच्छुक हैं.

देश छोड़ने वाले युवाओं की संख्या वास्तव में बहुत अधिक हो गई है और वे भाग्यशाली हैं. दुर्भाग्यशाली लोग अपने माता-पिता की मेहनत की कमाई पर टिके हैं क्योंकि वे सरकारी नौकरियों के लिए लगातार कॉम्पिटेटिव परीक्षाओं में भाग लेते हैं जो उन्हें कहीं नहीं ले जाती हैं. ऐसे में इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी का नौकरी का वादा युवाओं को उम्मीद दे रहा है.

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2014 के चुनावों में, बीजेपी ने हर साल दो करोड़ नौकरी देने का वादा किया था जिसकी वजह से कई लोगों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर, बीजेपी और नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था.

यह अलग बात है कि जब रोजगार की बात आई तो बीजेपी ने बहुत कम काम किया. इसके बजाय, वे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के साथ-साथ उन संस्थाओं का भी तेजी से निजीकरण करने लगे जो बीजेपी के वादे को सार्थक कर सकती थीं.

अब मामला तूल पकड़ चुका है. गहराता दुख लोगों की चुनावी पसंद को प्रभावित कर रहा है. इस बार लोकसभा चुनाव में जनता का निर्णय देखने लायक होगा.

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