बलात्कार के एक आरोपी की याचिका पर सुनवाई करते हुए केरल हाईकोर्ट(Kerala High Court) ने कहा है कि प्यार का मतलब सेक्स के लिए सहमति के रूप में नहीं लिया जा सकता. इन दोनों में बहुत अंतर है और इस पीड़ित की सहमति के रूप में नहीं माना जा सकता.
अपने आदेश में न्यायमूर्ति आर नारायण पिशारादी ने कहा कि मजबूरी के सामने लाचारी को किसी की सहमति के रूप में नहीं देखा जा सकता है. उन्होंने कहा कि सहमति और सबमिशन के बीच एक बड़ा अंतर है, और हर सहमति में एक सबमिशन शामिल होता है लेकिन बातचीत का पालन नहीं होता है.
सहमति और सबमिशन के बीच के अंतर
अदालत ने आगे कहा कि सेक्स के लिए सहमति सिर्फ इसलिए नहीं मानी जा सकती क्योंकि लड़की या महिला किसी पुरुष से प्यार करती है. अदालत ने सहमति और सबमिशन के बीच के अंतर को भी समझाया और कहा कि अपरिहार्य मजबूरी के सामने लाचारी को सहमति नहीं माना जा सकता है.सहमति के लिए अधिनियम के महत्व और नैतिक प्रभाव के ज्ञान के आधार पर बुद्धि का प्रयोग आवश्यक है. केवल इस कारण से कि पीड़िता आरोपी से प्यार करती थी, यह नहीं माना जा सकता कि उसने संभोग के लिए सहमति दी थी.”
केरल उच्च न्यायालय का यह निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा गुरुवार को बॉम्बे उच्च न्यायालय के विवादास्पद आदेश को रद्द करने के दो दिन बाद आया है, जिसमें कहा गया था कि नाबालिगों के यौन उत्पीड़न के आरोपी व्यक्तियों को दंडित करने के लिए स्किन टू स्किन का संपर्क आवश्यक था.
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