मशहूर इस्लामिक विद्वान और पद्म विभूषण मौलाना वहीदुद्दीन खान का निधन गुरुवार को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में हो गया. वो दस दिन से कोरोना संक्रमित थे.
इस्लाम धर्म के उदारवादी व्याख्याकार और सर्वधर्म समभाव के दूत वहीदुद्दीन खान को केंद्र सरकार ने इसी वर्ष जनवरी में पद्म विभूषण देने की घोषणा की थी .इससे पूर्व वर्ष 2000 में अटल सरकार ने उन्हें पद्मभूषण दिया था.
प्रधानमंत्री मोदी ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि "मौलाना वहीदुद्दीन खान धर्म शास्त्र और अध्यात्म पर अपनी विद्वता के लिए याद रखे जाएंगे. वह हमेशा सामुदायिक सेवा और सामाजिक सशक्तिकरण के लिए उत्साहित रहते थे.
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी ट्वीट करके उनके निधन पर शोक व्यक्त किया.
आरंभिक जीवन
मौलाना वहीदुद्दीन खान का जन्म वर्ष 1925 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ था. उन्होंने आरंभिक धार्मिक शिक्षा आजमगढ़ के निकट सराय मीर के मदरसातुल ईसलाही (पारंपरिक मदरसे) में ली थी .
मौलाना वहीदुद्दीन भारत की आजादी के संघर्ष में भी शामिल थे. वे महात्मा गांधी के समर्थक थे.
धर्म और शांति के क्षेत्र में योगदान
वहीदुद्दीन खान ने इस्लामी ग्रंथों की कट्टर व्याख्याओं की हमेशा निंदा की. उन्होंने इस्लाम धर्म को आधुनिक और उदारवादी बनाने के लिए निरंतर काम किया.
1955 में उन्होंने अपनी पहली किताब “नये अहद के दरवाजे पर” लिखी थी. उन्होंने 200 से ज्यादा किताबें लिखीं, जिसके माध्यम से उन्होंने इस्लाम के मानवीयकरण और सर्वधर्म समभाव की भावना का प्रचार किया. उन्होंने कुरान का हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में सरल अनुवाद किया ताकि बड़े जनमानस तक कुरान की उदारवादी बातों को पहुंचाया जा सके.
तर्क आधारित आध्यात्मिकता के रास्ते शांति की संस्कृति को फैलाने के लिए उन्होंने 2001 में "सेंटर फॉर पीस एंड स्पिरिचुअलिटी" की स्थापना की. इससे पहले 1970 में उन्होंने दिल्ली में इस्लामिक सेंटर की स्थापना की थी.
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद शांतिदूत की भूमिका
1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में 15 दिनों की शांति यात्रा निकाली .इस यात्रा पर उनके साथ आचार्य मुनि सुशील कुमार और स्वामी चिदानंद भी थे .
बाबरी मस्जिद विवाद में उन्होंने शांति वार्ता की पहल की. मुस्लिम समुदाय से विवादित भूमि पर से अपने दावों को हटा लेने की गुजारिश की. उन्होंने कहा था-''इस विवाद को खत्म करने के लिए मुस्लिम समुदाय को अपने दावों पर हमेशा के लिए विराम लगाना होगा. हमने पहले ही इस विवाद में शांति के 60 साल खो दिए थे. हालांकि मुस्लिम समुदाय द्वारा उनकी इस बात को नहीं माना गया''
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