हर नेता, हर सरकार दावा कर रही है कि शहरों में फंसे मजदूरों के दर्द का उन्हें अहसास है. वो लगातार कोशिश कर रहे हैं कि मजदूरों को राहत मिले. पहले उनके घर जाने के लिए ट्रेन चलाई गई, फिर मुफ्त यात्रा का भी ऐलान कर दिया गया. फिर क्या वजह है कि मजदूरों को अपने आखिरी सहारा, अपने गांव पहुंचने में इतनी दिक्कत हो रही है? सारी बीमारी को अगर आप चंद शब्दों में गूंथना चाहें तो वो ये हैं- बेदिली, बदसलूकी, बदइंतजामी, बेईमानी. और इसका सिलसिला 24 मार्च को ही शुरू हो गया था.
बेदिली
पहले तो सरकार ने ये नहीं सोचा कि अचानक लॉकडाउन का ऐलान करेंगे और सिर्फ चार घंटे की मोहलत देंगे तो मजदूरों का क्या होगा? गैर सरकारी दावों को छोड़ भी दें कि देश में 80% से ज्यादा नौकरियां असंगठित क्षेत्र की हैं, तो फिर सरकार को अपने ही आंकड़ों पर एक नजर कर लेना था.
सोशियो इकनॉमिक कॉस्ट सेंसस 2011 के मुताबिक देश में 5.4 करोड़ ऐसे परिवार हैं जो दिहाड़ी मजदूरी के सहारे हैं. अगर एक परिवार में 5 लोग भी मान लें तो 25 करोड़ लोग हो गए. तो सरकार ने लॉकडाउन का ऐलान करते समय इन 25 करोड़ के बारे में तनिक नहीं सोचा.
सरकार ने नहीं सोचा कि जो लोग रोज कमाते-खाते हैं वो सब बंद होने पर रोटी कहां से लाएंगे. शहरों में शायद ही किसी मजदूर का अपना घर है, तो किराया कहां से देंगे. और अगर इनके पास शहरों में टिकने का इंतजाम नहीं होगा तो गांव कैसे जाएंगे? इतनी बड़ी आबादी के प्रति ये सरकार की बेदिली थी.
बदइंतजामी
जब गोदी मीडिया भी मजदूरों के महापलायन की तस्वीरें छिपाने में नाकाम रहा तो सरकार ने धड़ाधड़ ऐलान करने शुरू कर दिए. कहा गया कि गरीबों को राशन देंगे. जनधन खाते में पैसे देंगे. जहां हैं वहीं रहिए. एक तो ये राहत ऊंट के मुंह में जीरे के फोरन की तरह थी, और वो भी गंतव्य तक नहीं पहुंची. पता चला कि सिर्फ 10% परिवारों तक एक किलो एक्स्ट्रा दाल पहुंची.
- अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक स्टडी ने इसका भयावह रूप दिखलाया, जिसके मुताबिक 13 अप्रैल तक जिन मजदूरों से उन्होंने संपर्क किया उनमें 44 फीसदी ऐसे थे, जिन्हें खाने और पैसे की सख्त जरूरत थी.
- मई में छपी स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क की रिपोर्ट के मुताबिक शहरों में फंसे 64% मजदूरों के पास 100 रूपए से भी कम बचे थे
सरकार अपील करती रही कि कोई किसी को नौकरी से निकाले, पूरी सैलरी दे. जनाब अपील के ब्लैंक चेक से नकदी नहीं निकलती. देश में ज्यादातर रोजगार छोटे उद्योग देते हैं. तो सरकार ने क्यों नहीं सोचा कि जब अंबानी तक बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स को भी कटनी और छंटनी करनी पड़ रही है तो बिन ग्राहक ये छोटे उद्योग कैसे तो खुद बचेंगे और कैसे अपने कामगारों को बचाएंगे. वही हुआ जो होना था. मालिकों के साथ ही मजदूरों की माली हालत भी बिगड़ती गई. जब मजबूर मजदूरों के सब्र का बांध टूटने लगा तो सरकार ने ट्रेन चलाने का ऐलान किया.
मजदूरों को इतने दिन शहरों में रहने के लिए क्यों मजबूर किया गया. क्यों उनकी एक-एक पाई खत्म होने का इंतजार किया गया? मजदूरों को जहां का तहां इसलिए रोका गया था कि बीमारी न फैले. क्या अब कोरोना का फैलना रुक गया है? हेल्थ मिनिस्ट्री के रोज आ रहे आंकड़े तो नए रिकॉर्ड बना रहे हैं!
बेईमानी
कहा गया कि मजदूरों को ट्रेन टिकट का पैसा नहीं देना होगा. सत्तारूढ़ पार्टी के आधिकारिक और स्वयंभू प्रवक्ताओं ने दावा किया कि सरकार टिकट का 85% पैसा खुद दे रही है. टेक्निकली ये बात सही हो सकती है, लेकिन जमीन पर इससे मजदूरों को खास फायदा नहीं हुआ. बात ये है कि रेलवे पहले भी हर टिकट पर 50-55% सब्सिडी देती थी, चूंकि श्रेमिक ट्रेन पूरी भरकर नहीं जा रही है तो उसके ऐवज में 30% और खर्च जोड़कर 85% खर्च वहन करने का दावा कर दिया गया. सच्चाई ये है कि रेलवे आज भी प्रति टिकट पहले की तरह किराया वसूल रहा है.
ये किराया राज्य सरकारों से वसूला जा रहा है. लेकिन कई जगह मजदूरों ने शिकायत की है कि जब वो रजिस्ट्रेशन कराते हैं तो पुलिस अफसर उनसे टिकट का पैसा भी मांग रहे हैं. कई ने तो ये भी बताया कि उनसे सामान्य समय से भी ज्यादा टिकट का पैसा वसूला जा रहा है. सूरत भास्कर ने लीड खबर लगाई है कि सूरत से 9 ट्रेनों में गए करीब 11 हजार मजदूरों से 76 लाख रूपए वसूले जा चुके हैं
बदसलूकी
यूपी की ये तस्वीर याद है आपको? सरकार का भरोसा न रहा तो मजदूर अपने पांव के सहारे ही घर की ओर निकल पड़ा. लेकिन रास्ते में जैसे सरकार उसके लिए बाधा दौड़ का इंतजाम करके बैठी थी. कहीं पुलिस के डंडे, कहीं बैरिकेड. मतलब हम न आपको जाने का इंतजाम देंगे और न जाने देंगे. ये सिर्फ नमूना था. पुलिस का डंडा और जोर से लगता है जब सामने गरीब हो. मार्च से मई तक सूरत ज्यादा नहीं बदली है. बदलती तो इंदौर में मजदूर सीमेंट मिक्सर में छिपकर नहीं जाते और ग्वालियर में प्याज के ट्रक में बैठकर न रोते. क्यों सिर झुकाकर अपने फैक्ट्री मालिक की झिड़कियां बर्दाश्त करने वाला मजदूर आज पुलिस पर पत्थर फेंक रहा है?
मजदूरों से बदसलूकी के आयोजन में सब शामिल हैं, सरकार से लेकर उनके भोंपू तक. 4 मई को जब शराब की दुकानें खुलीं और लोग लंबी कतारों में खड़े हो गए, तो खुद को सबसे बड़ा देशभक्त कहने वाले एक पत्रकार ने ट्वीट किया - शराब के लिए पैसे हैं, रेल भाड़ा के लिए नहीं? इसे आप बदसलूकी समझ लीजिए, बेदिली या फिर बेईमानी, आपका विश्लेषण.
ये वही मीडिया है जो लॉकडाउन के गुनगान में तालियां और थालियां बजाता रहा. कुछ पढ़े लिखों ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि मजदूर इसलिए घर जाना चाहता है क्योंकि गांव में जन-धन खाते में मिलने वाले पैसे की लालच है. इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है? और अगर आपको लगता है कि ये कुछ नासमझों की नासमझी थी तो इन सवालों के जवाब दीजिए.
मजदूरों को घर जाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराना है, फॉर्म भरना है, मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट देना है. आखिर क्यों? इतने तिकड़मों की जरूरत क्या है? क्यों नहीं मजदूर अपना पहचान पत्र दिखाकर ट्रेन में बैठ सकता? अगर वो मजबूर नहीं होगा तो क्या वो मूर्ख है कि अपने और अपने परिवार की जिंदगी को जोखिम में डालकर ट्रेन में बैठेगा? क्यों नहीं सरकारें रेल किराए का हिसाब-किताब आपस में ही सलटा लेती हैं? क्यों उसे मेडिकल सर्टिफिकेट बनाने के लिए डॉक्टरों को पैसा देना पड़ रहा है. क्यों नहीं स्टेशन पर उसकी मेडिकल जांच हो सकती? ये सारा बोझ उस कंधे पर क्यों डाला है, जो आपके लॉकडाउन के बोझ से पहले ही धंसा जा रहा है. पूरे सिस्टम में दरअसल मजदूर की न कोई चिंता है, न सुनवाई.
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