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गरीबों, बेसहारा की मदर टेरेसा और उनकी 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की कहानी

मदर टेरेसा ने 12 साथियों के साथ 7 अक्टूबर 1950 को मिशनरीज ऑफ चैरिटी शुरू की थी

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सड़क किनारे कुष्ठ रोगी पड़ा है. उसके घावों से मवाद निकल रहा है. मक्खियां भिनभिना रही हैं. कोई उस तरफ देखना भी नहीं चाहता. लेकिन एक युवा लड़की उसके पास जाती है, उसके घाव साफ करती है और फिर अपने सहयोगियों की मदद से उसे अपने सेवा केंद्र पर ले जाती है. इस युवा लड़की को आज दुनिया मदर टेरेसा के नाम से जानती है और उन्हीं मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज ऑफ चैरिटी सुर्खियों में है क्योंकि केंद्र सरकार ने विदेशों से दान के लिए जरूरी संस्था के FCRA रजिस्ट्रेशन को रिन्यू करने से इंकार कर दिया है.

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मेसीडोनिया में अपनी आंखों खोलने वाली एग्नेस नाम की एक युवा लड़की ने 18 साल की छोटी उम्र में ही संन्यासी जीवन अपना लिया और अपनी फैमिली को छोड़कर लोगों की मदद करने निकड़ पड़ी. उन्होंने बेबसों, गरीबों और मजलूमों की सेवा करने का फैसला किया. मदर टेरेसा 1929 में भारत आईं और 1931 में कोलकाता (Kolkata) के स्कूलों में काम करना शुरू किया. इसके बाद 1944 में उन्हें स्कूल की प्रिंसिपल बनाया गया.
7 अगस्त, 1948 को उन्होंने पहली बार नीले रंग के बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनी, जो उनकी पहचान बन गई.

कोढ़ व प्लेग जैसी बीमारियों से पीड़ित मरीजों की सच्चे दिल से मदद की. उन्हें भारत के लोगों और हिन्दुस्तान की मिट्टी से इतना प्यार हो गया कि पलटकर वापस जाने के बारे में सोचा ही नहीं. उन्हें कलकत्ता की संत टेरेसा की उपाधि दी गई.

मिशनरीज ऑफ चैरिटी

मदर टेरेसा ने गरीबों की सेवा करने के लिए अपने 12 साथियों के साथ 7 अक्टूबर 1950 को कलकत्ता में मिशनरीज ऑफ चैरिटी संस्था की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य था कि जरूरतमंदों को फ्री में सेवा दी जा सके.

मौजूदा वक्त में इस संस्था के लगभग 5,167 सदस्य दुनिया के 120 से भी अधिक देशों में गरीब, बीमार, शोषित और वंचित लोगों की सेवा करने में अपना निःशुल्क योगदान दे रहे हैं.

इसके अलावा मिशनरीज ऑफ चैरिटी में शरणार्थियों, अनाथों, दिव्यांगों तथा एड्स जैसे अन्य खतरनाक बीमारियों से पीड़ित लोगों की सेवा की जाती है. साथ ही इसके अनेक हॉस्पिटल्स, अनाथाश्रम और वृद्धाश्रम भी चलाए जाते हैं.
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वर्ष 1965 में पोप पॉल VI के एक फैसले के बाद मिशनरीज ऑफ चैरिटी एक इंटरनेशनल धार्मिक परिवार बन गया और वेनेजुएला में इसकी पहली इंटरनेशनल ब्रांच खोली गई. इसके बाद रोम, तंजानिया, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा कई अन्य देशों में इससे जुड़ी संस्थाओं के द्वारा काम शुरू किए गए.

इसकी ब्रांचों में मिशनरी ब्रदर्स ऑफ चैरिटी, द कंटेम्पलेटिव ब्रदर्स, मिशन ऑफ चैरिटी फादर्स, इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ को-वर्कर्स और कंटेम्पलेटिव सिस्टर्स शामिल हैं.

एक मिशनरी के रूप में मदर टेरेसा का नाम कई विवादों में भी सामने आया. विशेष रूप से गर्भपात के अधिकारों का विरोध करने पर उनकी कड़ी आलोचना की गई. हाल ही में गुजरात पर मिशनरीज ऑफ चैरिटी पर धर्मांतरण के आरोप लगे, हालांकि संस्था ने इसे बेबुनियाद बताया.

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मदर टेरेसा को साल 1979 में ‘गरीबी और संकटग्रस्त लोगों की मदद करने के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया.

जब मदर टेरेसा को नोबेल पुरस्कार देते वक्त पूछा गया कि विश्व शांति को बढ़ावा देने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

उन्होंने इस पर कहा कि...

दुनिया के केवल गरीब देशों में ही नहीं बल्कि पश्चिमी देशों में भी मैंने ऐसी गरीबी देखी है, जिसे आसानी से दूर नहीं किया जा सकता है. जब मैं किसी रोड पर भूखे व्यक्ति को देखती हूं और फिर उसे खाने को रोटी और चावल देती हूं, तो मुझे संतुष्टि मिलती है.

अमेरिका के कैथोलिक युनिवर्सिटी ने मदर टेरेसा को डॉक्टोरेट की उपाधि से सम्मानित किया और भारत के बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी ने उन्हें डी-लिट की उपाधि से सम्मानित किया.

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