2019 के आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मौजूदा कार्यकाल की अपनी आखिरी स्वतंत्रता दिवस स्पीच में इस मौके को इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश की. इसके लिए उन्होंने कुछ उसी तरह की उम्मीदें जगाने की कोशिश की, जैसा कि 2014 के चुनावी अभियान में किया था और जिसके नतीजे में देश 30 साल के गठबंधन के प्रयोगों से बाहर निकला और मोदी को अकेले बहुमत हासिल करने का मौका मिला.
अपने हाल के भाषणों से चौंकाने वाले अंदाज में अलग जाते हुए उन्होंने अपने राजीनतिक विरोधियों के खिलाफ जहर उगलने से परहेज किया. खासतौर से अपने भाषण में उन्होंने इस रूप में कांग्रेस का नाम बिल्कुल नहीं लिया. न ही उन्होंने अपने कोर हिन्दुत्व के एजेंडे के तहत वोटों के ध्रुवीकरण के लिए कोई बात की. आश्चर्यजनक ये कि प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के खिलाफ भी कुछ नहीं कहा, जो कि आमतौर पर किसी भी स्वतंत्रता दिवस स्पीच का हिस्सा होता है. (मोदी ने दो साल पहले बलूचिस्तान, गिलगित और बाल्टिस्तान की बातें कर यही काम किया था.)
वास्तव में, पीएम ने अपनी उस इमेज की तरफ लौटने की कोशिश की, जब लाल किले से अपने पहले भाषण में उन्होंने खुद को आधुनिक नजरिये वाले स्टेट्समैन के रूप में पेश किया था और बदलाव की उम्मीद जगाई थी. तब इसके लिए उन्हें आलोचकों से भी तारीफ मिली थी.
प्रधानमंत्री ने महिला सशक्तिकरण की बात की और अलग-अलग क्षेत्रों में उनके योगदान की चर्चा की. उन्होंने अच्छी जिंदगी के लिए युवाओं की उम्मीदों की बात की, उन्होंने आरएसएस के सबसे पसंदीदा वैदिक ज्ञान का जिक्र किए बिना विज्ञान और तकनीक की बात की. और उन्होंने स्वास्थ्य बीमा से जुड़ी एक महत्वाकांक्षी योजना पेश की, जिसका लाभ 50 करोड़ गरीबों को मिलेगा.
2022 तक आम इंसान को स्पेस में भेजने की बात कर उन्होंने बाकी तमाम चीजों से आगे एक अलग ही तस्वीर पेश की. उन्होंने ये भी कहा कि ये मिशन संभवत: एक महिला द्वारा लीड किया जाएगा.
चुनाव से पहले इमेज बदलने की कोशिश में हैं PM
प्रधानमंत्री की स्पीच के स्वर और सुर ये दर्शाते हैं कि मोदी ने सोच लिया है कि चुनाव से पहले उन्हें अपनी इमेज बदलनी है. इस साल 15 अगस्त की उनकी स्पीच अपनी पुरानी निरंकुश प्रचारक की छवि से निकलने की सोची-समझी कोशिश की तरह रही, जिसकी वजह से उन्होंने अपने कई दोस्त भी खोए हैं. इसकी जगह प्रधानमंत्री की कोशिश रही कि वो खुद को एक उदार और पूरे देश के नेता के तौर पर पेश करें. ऐसा करते हुए उन्होंने आरएसएस के हॉलमार्क हिन्दू-हिन्दू से दूरी बनाकर रखी. इसके लिए उन्होंने तमिल एक्टिविस्ट और कवि सुब्रमणिया भारती का जिक्र न हिन्दी और न ही अंग्रेजी में, बल्कि तमिल में किया.
अब देखने वाली बात ये होगी कि क्या लोग इस बदलाव को स्वीकार करते हैं? ये काम 2014 में बहुत आसान था क्योंकि उस वक्त वे ये काम उस अप्रभावी कांग्रेस के खिलाफ कर रहे थे, जिसकी छवि भ्रष्ट होने की बन गई थी और जिसका नेतृत्व एक कमजोर प्रधानमंत्री के हाथों में था. तब मोदी एक नए बदलाव की शक्ल लेकर आए थे. वे एक बाहरी थे, सेल्फ मेड इंसान थे, एक सीधे-सादे ‘चायवाला’ थे, जिसने सर्वोच्च पद के लिए होड़ में आने की हिम्मत की थी. तब मोदी नए मध्य वर्ग की आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए थे.
इस मध्य वर्ग को उनका गुजरात का विकास का मॉडल पहले ही खूब लुभा चुका था. पिछली बार मोदी के लिए स्थिति अलग थी और उस स्थिति को उन्होंने अपने आक्रामक और सकारात्मक चुनाव अभियान के जरिये भुनाया.
लेकिन इस बार उन्हें उनके खुद के रिकॉर्ड और प्रदर्शन से आंका जाएगा. हालांकि इस बार उनके चमकते और उज्ज्वल भारत का वादा बहुत अच्छा सुनाई पड़ता है, लेकिन मोदी को अपनी विश्वसनीयता की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि लोग ‘शाइनिंग इंडिया’ के पैमाने पर अपनी वास्तविक जिंदगी की जांच करेंगे, उसे परखेंगे.
पिछले चार साल बड़े ही उथल-पुथल वाले रहे हैं. इस दौरान बेरोजगारी, साम्प्रदायिक और जातीय हिंसा, बलात्कार की बढ़ती घटनाएं, नीतियों में गड़बड़ियां और बीजेपी के नेताओं और मंत्रियों की ओर से अनर्गल बयानबाजी जैसी चीजें प्रभावी रही हैं. इसके अलावा जीएसटी और नोटबंदी की शक्ल में इकनॉमी को दो झटके भी दिए गए हैं. इन दो फैसलों के असर का आंकलन अभी भी बाकी है.
यहां तक कि विदेश नीति के मोर्चे पर, खासतौर से पड़ोसियों के मामले में रिश्ते अच्छे न होने का कोई अफसोस सरकार को नहीं दिखता. जबकि हालत ये है कि पड़ोसियों में बांग्लादेश आज अकेला देश है, जिसे भारत दोस्त के तौर पर देख सकता है.
खास बात ये रही कि मोदी ने अपनी स्पीच में इन सब मुद्दों को दरकिनार ही रखा. उदाहरण के लिए उन्होंने मॉब लिन्चिंग की कोई बात नहीं की. सिर्फ एक पंक्ति में अपनी सरकार के कानून का राज के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की. बलात्कार के सवाल पर प्रधानमंत्री कुछ ज्यादा ही विस्तार में गए. लेकिन ‘लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी’- वाली सामान्य अवधारणा से आगे उन्होंने ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकार की कोशिशों का कम ही जिक्र किया.
यह बिल्कुल साफ था कि प्रधानमंत्री अपनी स्पीच में सरकार की छाप छोड़ने के लिए दृढ़ थे. ये वही चीज है, जिसके लिए खासतौर से यूपी में लोकसभा के अहम उपचुनावों को हारने के बाद वे संघर्ष कर रहे हैं. अभी-अभी खत्म हुए मानसून सत्र में इसी माहौल को नकारने के लिए संसद में दो मौकों पर (अविश्वास प्रस्ताव और उप सभापति चुनाव) विपक्ष की हार को मोदी से मुकाबले में उनकी कमजोरियों के दौर पर दिखाया गया.
‘सोया हुआ हाथी जाग गया है.’
स्वतंत्रता दिवस की परंपरागत स्पीच ने मोदी को अपनी प्रोफाइल बदलने का एक और मौका दे गया. हालांकि उनके भाषण पर दर्शकों की प्रतिक्रिया कमजोर थी. लेकिन मोदी ने इस चीज को खुद पर हावी नहीं होने दिया. उन्होंने सपने देखने वाले भारतीयों के सपने जगाए. ऐसा करने के लिए प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के स्किल डेवलपमेंट, स्वच्छता, डिजिटल ग्रोथ, गरीबी उन्मूलन जैसे क्षेत्रों में किए कामों को गिनाया. उन्होंने ऐलान किया- “सोया हुआ हाथी जाग गया है.”
ऐसे माहौल में जबकि कुछ संगठनों की ओर से 2019 से पहले माहौल को सांप्रदायिक बनाने का डर जारी है, ये स्पष्ट है कि मोदी ऐसी घटनाओं से खुद को अलग दिखाने के लिए बेताब हैं. 2014 में इस चीज को बड़ी ही चतुराई से मैनेज किया गया था, जब मुजफ्फरनगर की सांप्रदायिक हिंसा की छाया में पार्टी ने यूपी की 80 में से 73 सीटें जीत ली थीं. तब मोदी प्रतीकात्मक रूप से एक ऐसे ‘टेफलॉन कोटेड’ सूट में थे, जिस पर हर कहीं ‘विकास’ लिखा था. लेकिन सवाल है कि क्या वे इसी चीज को 2019 में दोहरा सकते हैं?
कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मोदी की स्पीच से एक ट्विस्ट के साथ 2014 तक रोलबैक की शुरुआत हुई है. इस बार मोदी ने खुद को सामाजिक न्याय और समानता के झंडाबरदार के रूप में भी खुद को पेश किया है. इसी के तहत उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत इस घोषणा के साथ की कि संसद ने अभी-अभी दो महत्वपूर्ण बिलों को पास किया है, जो कि पिछड़ों, दलितों और दूसरे हाशिये पर गए लोगों को संबल प्रदान करेगा. इस बार के भाषण में मोदी ने खुद को गरीबों का हितैषी दिखाने की भरपूर कोशिश की.
(लेखिका दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस लेख में छपे विचार उनके हैं जिनसे क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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