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मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी कैसे SC की गाइडलाइन्स और फैसलों का खुला उल्लंघन है?

Mohammed Zubair की जमानत याचिका पटियाला कोर्ट में खारिज, अगले 14 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेजा गया

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मोहम्मद जुबैर (Mohammed Zubair) पत्रकार और फैक्ट जांचने वाले ऑल्ट न्यूज के को-फाउंडर हैं. अपने काम के स्वभाव से (अक्सर तीखी आलोचना वाला) वो अक्सर सोशल मीडिया पर लोगों के निशाने पर रहते हैं और कई कोर्ट मुकदमे में आरोपी भी हैं. लेकिन जुबैर पर जो सबसे ताजा और विचित्र मामला लगाया गया है वो है- हिंदुत्व के खिलाफ नफरत फैलाने का.

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जुबैर को साल 2018 में किए एक ट्वीट के लिए गिरफ्तार किया गया है. सोमवार, 27 जून को जुबैर को गिरफ्तार किया गया और ड्यूटी मजिस्ट्रेट ने उन्हें एक दिन की पुलिस कस्टडी में भेजा. मंगलवार को पटियाला हाउस कोर्ट ने पुलिस रिमांड को 4 दिन के लिए बढ़ा दिया. इसके बाद शनिवार, 2 जून को पटियाला कोर्ट के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने उनकी जमानत याचिका खारिज करते हुए 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया.

मजिस्ट्रेट ने मगंलवार को रिमांड ऑर्डर के लिए जो आधार बताए थे, वो ये हैं:

  • "विवादित ट्वीट पोस्ट करने के लिए जुबैर ने जो मोबाइल फोन/ लैपटॉप इस्तेमाल किया उसे अभी जुबैर के कहने के बाद उसके बंगलोर स्थित आवास से बरामद किया जाना है..."

  • “मोहम्मद जुबैर जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं और ये बयान रिकॉर्ड पर है..."

कोर्ट और FIR में अलग-अलग आरोप

द क्विंट के पास मामले से जुड़ी FIR की जो कॉपी है उसमें कहा गया है कि जुबैर पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153 ए (विभिन्न समूहों में दुश्मनी बढ़ाने) और 295 के तहत मामला दर्ज किया गया है. जबकि रिमांड ऑर्डर बताता है कि जुबैर पर 295 की जगह धारा 295A के तहत मामला दर्ज किया गया है. जबकि रिमांड ऑर्डर से संकेत मिलता है कि जुबैर पर धारा 153ए और 295A के तहत अपराध करने का आरोप लगाया जा रहा है.

यह बहुत अहम है क्योंकि जहां सेक्शन 295 पूजा स्थल के अपमान या चोट पहुंचाने से जुड़ा हुआ है वहीं सेक्शन 295 A धार्मिक भावनाएं भड़काने के जानबूझकर इरादतन साजिश से जुड़ा हुआ है.

जुबैर को जिस अपराध के लिए हिरासत में लिया गया है वो दरअसल एक होटल का साइनबोर्ड है जिसे बदलकर ‘हनीमून होटल’ से ‘हनुमान होटल’ दिखाया गया है. इसके साथ एक टेक्स्ट लिखा गया है ‘ 2014 से पहले : हनीमून होटल और 2014 के बाद हनुमान होटल ‘

हालांकि तस्वीर ना तो किसी पूजा स्थल की है और ना ही इसे जुबैर ने खींचा था. और वो अकले नहीं हैं जिन्होंने इसे शेयर किया है. यह 1985 की ह्रषिकेश मुखर्जी के डायरेक्शन में बनी फिल्म किसी से ना कहना का स्क्रीन शॉट है. ट्विटर पर अलग अलग वक्त में अलग-अलग यूजर्स ने इसका इस्तेमाल किया है. दरअसल ये इंडियन एक्सप्रेस आर्टिकल के लिए एक आर्टिकल का कवर भी था.

इस प्रकार, यह देखते हुए कि कोई बेअदबी (या जुबैर द्वारा एडिटेड भी) नहीं थी और इसमें कोई वास्तविक पूजा स्थल शामिल भी नहीं था, उनके ट्वीट के आधार पर पूजा की जगह (295) को तोड़फोड़ करने या या बेअदबी करने का कोई मामला नहीं बनाया जा सकता है.

यहां तक कि अगर FIR पर कोर्ट की व्याख्या को मान भी लें तो जुबैर के खिलाफ जो आरोप लगे हैं वो वास्तव में सेक्शन 295 A और 153 A के तहत हैं और ऐसे में उनकी गिरफ्तारी और रिमांड में रखा जाना एक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि ये साफ दिखाता है कि किस तरह से कानून का तोड़ मरोड़कर इस्तेमाल किया जा रहा है.

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क्या जुबैर की गिरफ्तारी होनी भी चाहिए थी?

यहां ध्यान देने वाली मुख्य बात यह है कि जुबैर पर जिन अपराधों का आरोप लगाया गया है, उनमें से कोई भी तीन साल से अधिक की सजा वाली नहीं है. इसलिए, किसी भी अपराध को 'जघन्य' नहीं करार दिया जा सकता है. जघन्य अपराध शब्द का इस्तेमाल उन मामलों में किया जाता है जहां अधिकतम सजा 7 साल या उससे अधिक है.

यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि 1994 (जोगिंदर कुमार बनाम यूपी राज्य) में, सुप्रीम कोर्ट ने संयम बरतने की वकालत की थी. उसने वैसे अपराधों में जो पहली नजर में जघन्य नहीं थे , सीधी गिरफ्तारी से बचने की सलाह दी. कोर्ट ने आगे कहा :

“किसी व्यक्ति के खिलाफ अपराध के किए जाने के सिर्फ आरोप के आधार पर गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है.”

यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जिस शिकायत पर दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी ने FIR दर्ज की थी, वह हनुमान भक्त नाम के एक ट्विटर हैंडल से किया गया था. इसमे जुबैर के ट्वीट को साझा किया गया. जुबैर के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए आरोप लगाया था कि "हनीमून के साथ भगवान हनुमान जी को जोड़ना हिंदुओं का सीधा अपमान है क्योंकि हनुमान जी एक ब्रह्मचारी हैं”.

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लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने खास तौर पर ये कहा है कि :

"एक पुलिस अधिकारी को किसी नागरिक के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए और शायद खुद पुलिस के हित में यह विवेकपूर्ण होगा कि किसी भी व्यक्ति की वास्तविकता और प्रामाणिकता के बारे में पड़ताल और सवालों पर जवाब मिले बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए. शिकायत और व्यक्ति की मिलीभगत के बारे में और यहां तक कि गिरफ्तारी को असरदार बनाने के लिए उसे पूरा भरोसा होना चाहिए.

इसके अलावा, जुबैर को 2020 के एक मामले में जांच के लिए दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने बुलाया था. जुबैर ने इस मामले में गिरफ्तारी से बचने के लिए पहले से ही कोर्ट से प्रोटेक्शन ले रखा था. जिस दिन इस नए मामले में उसे गिरफ्तार किया गया उस दिन वो पूरी तरह किसी दूसरे मामले में पूछताछ के लिए दिल्ली पुलिस के पास गया था.

मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसार जुबैर को गिरफ्तारी से पहले CrPC की धारा 41 ए (और पुलिस फाइल का हिस्सा है) के तहत नोटिस जारी किया गया था. हालांकि, जुबैर के वकीलों में से एक सौतिक बनर्जी के अनुसार, उन्हें सोमवार शाम लगभग 5:30 बजे ही नोटिस दिया गया और लगभग 6:45 बजे गिरफ्तार कर लिया गया.

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जोगिंदर कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था :

"किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना एक गंभीर मामला है ...जघन्य अपराधों को छोड़कर, गिरफ्तारी से बचा जाना चाहिए. यदि कोई पुलिस अधिकारी व्यक्ति को पुलिस स्टेशन आने के लिए नोटिस देता है और बिना पुलिस इजाजत के स्टेशन नहीं छोड़ने को कहता है तो उस सूरत में गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए."

अरुणेश कुमार फैसला और मजिस्ट्रेट के लिए मैसेज

इसके अलावा, अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) में, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया था कि ऐसे मामलों में जहां अधिकतम सजा सात साल से कम जेल का हो, वहां गिरफ्तारी अपवाद के तौर पर की जानी चाहिए. इस प्रकार यह फैसला पुलिस से यह उम्मीद करती है कि वो यह पहले तय करे कि क्या सीआरपीसी की धारा 41 के प्रावधानों के तहत गिरफ्तारी आवश्यक है.

धारा 41 (1) (बी) अतिरिक्त शर्तों को निर्धारित करती है. ये बताती है कि किसी भी गिरफ्तारी से पहले पुलिस को विश्वास करना होता है कि व्यक्ति की गिरफ्तारी आवश्यक है क्योंकि:

  • उन्हें आगे कोई अपराध करने से रोकने के लिए;

  • अपराध की उचित जांच के लिए;

  • उन्हें साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए;

  • गवाहों को धमकाने/प्रभावित करने से रोकने के लिए;

  • उन्हें फरार होने से बचाने के लिए

जब तक पुलिस इन शर्तों से संतुष्ट नहीं होती तब तक गिरफ्तारी नहीं हो सकती.

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अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समस्या सिर्फ यह नहीं थी कि पुलिस अधिकारी कानून की अनदेखी कर रहे थे. इन शर्तों को पूरा किए बिना लोगों को गिरफ्तार कर रहे थे, बल्कि यह उन मजिस्ट्रेटों के लिए भी था जो ये सुनिश्चित नहीं कर पा रहे थे कि पुलिस कानून का पालन कर रही थी या नहीं.

हमारा अनुभव हमें बताता है कि धाराओं का इस्तेमाल उस गंभीरता के साथ नहीं किया जाता है जितना कि किया जाना चाहिए. कई मामलों में, हिरासत को नियमित, आकस्मिक और लापरवाह तरीके से वैध बताया जाता है. इससे पहले कि कोई मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 167 के तहत हिरासत को वैध करे, उसे पहले संतुष्ट होना होगा कि गिरफ्तारी कानूनी है और कानून के अनुसार है, और गिरफ्तार व्यक्ति के सभी संवैधानिक अधिकारों का ख्याल रखा गया है.

यदि गिरफ्तारी भारतीय दंड संहिता की धारा 41 की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती है, तो मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वो उसे आगे हिरासत में रखने के लिए नहीं अधिकृत करे. और आरोपी को रिहा करे.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस जांच में बाधा न आए, सीआरपीसी में धारा 41 ए भी जोड़ी गई. इसने पुलिस को ऐसे मामलों में पुलिस अधिकारी के सामने पेश होने के लिए नोटिस जारी करने की शक्ति दी. यदि व्यक्ति नोटिस मानता है, सहयोग करता है, तो व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता है.

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जुबैर के मामले में नोटिस जारी करने और उसकी वास्तविक गिरफ्तारी के बीच के समय के बारे में कोई तार्किक नतीजा निकालना बहुत मुश्किल लग रहा है.. इतने कम टाइम पीरियड में क्या उसने नोटिस का पालन किया या नहीं, ये बताना थोड़ा मुश्किल है .

आगे यह देखते हुए कि जुबैर का ट्वीट सार्वजनिक डोमेन में है. साथ ही इमेज बिल्कुल फिल्मी लगती है. यह स्पष्ट नहीं है कि आगे की जांच के लिए पुलिस को जुबैर की कस्टडी की क्यों जरूरी है. यहां तक कि अगर उनका मोबाइल फोन बैंगलोर स्थित उसके घर से लिया जाना था और पुलिस को सबूतों के साथ अगर छेड़छाड़ करने की आशंका था तब भी क्या उसे उसके दिल्ली स्थित आवास पर लौटने की इजाजत क्यों नहीं दी जा सकती थी?

मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करने के लिए कोई भी शर्त आसानी से लगा सकते थे जैसे कि पुलिस स्टेशन में हाजिरी लगाना . .ताकि वो शहर छोड़कर ना जा सके.

लेकिन लगता है कि कोर्ट उनकी रिहाई में जरा भी उत्सुक नहीं था, यहां तक ​​कि कोर्ट ने भी कहा कि ट्वीट में तस्वीर 1983 की फिल्म का हिस्सा थी, तब भी आरोपी को कोई राहत नहीं मिली.

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यहां याद करना चाहिए कि अर्नब गोस्वामी को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में जमानत देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में कहा था:

"कैद से पीड़ित लोगों के लिए नतीजे गंभीर होते हैं. आम नागरिक जो हाईकोर्ट तक अपील करने का माद्दा या संसाधन नहीं रखते वो अंडर ट्रायल कैदी बन जाते हैं. ऐसे में जमीन पर जो कुछ होता है कि कोर्ट को उससे जरूर वाकिफ होना चाहिए. कोर्ट को जेलों और पुलिस थानों में जहां मानवीय गरिमा की कोई रक्षा नहीं होती उसके बारे में जरूर ख्याल रखना चाहिए "

लिमिटेशन पीरियड: सीमा बीतने के बाद संज्ञान लेने से रोक

इसके अलावा, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 468 जुर्म की समय सीमा बीतने के बाद इस पर संज्ञान लेने से रोक लगाती है.

इस मामले में, समय सीमा तीन साल है (क्योंकि दोनों अपराधों के लिए सजा एक से तीन साल के बीच होती है), और पहली बार जो ट्वीट किया गया उसे चार साल हो चुके हैं. सामान्य तौर पर, कोई अपराध तब माना जाता है जब ऐसा करने पर मामला बढ़ता है. जब वो किया जाता है वो समय काफी अहम होता है. इस मामले में ट्वीट की तारीख यानी जब ट्वीट किया गया वो तारीख काफी अहम होगी.

यह देखते हुए कि ट्वीट सार्वजनिक डोमेन में था और कोई भी इसे देख सकता था. इस मामले में टाइम पीरियड (सीआरपीसी की धारा 469 (1) (ए) के तहत) ट्वीट करने की तारीख से शुरू होगी.

जबकि पब्लिक प्रॉस्कियूटर ने इस रिमांड पर सुनवाई के दौरान समय सीमा के मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया. भविष्य में वो यह तर्क देने की कोशिश कर सकते हैं कि यह एक ऐसा अपराध था जिसके बारे में पीड़ित को पता नहीं था और न ही पुलिस को. इस मामले में जब से पीड़ित/पुलिस को पहली बार अपराध के बारे में पता चलता है तब से समय अवधि मानी जाती है. (सीआरपीसी की धारा 469(1)(बी)) के अनुसार.

हालांकि, चूंकि ट्वीट इस समय सार्वजनिक डोमेन में था, इसलिए अदालतों को मामला ‘सीमा अवधि’ से बाहर होने के कारण इसे खारिज करने का अधिकार होगा.

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मंशा एक जरूरी हिस्सा

हालांकि, इस सबमें एक महत्वपूर्ण बात यह है इरादा या मंशा. IPC की धारा 295ए और 153ए दोनों के तहत मंशा को एक अनिवार्य फैक्टर माना गया है. रामजी लाल मोदी बनाम यूपी राज्य में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 295A की वैधता को बरकरार रखा, लेकिन स्पष्ट रूप से कहा कि यह:

"नागरिकों के धर्म या धार्मिक विश्वासों के अपमान या अपमान जैसे काम में सजा नहीं होती है बल्कि सजा केवल तब दी जाती है जब किसी धर्म या धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से वैसे काम किए जाते हैं."

फैसला आगे कहता है "अनजाने में या लापरवाही से या बिना जानेबूझे से उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए धर्म का अपमान धारा (295A) के अंतर्गत नहीं आता है. यह धर्म के अपमान के गंभीर मामले में तभी सजा दी जाती है जब ये उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से किया जाता है".

जुबैर के ट्वीट ने न तो किसी विशिष्ट समुदाय का नाम लिया और न ही किसी प्रकार की असहमति या पब्लिक ऑर्डर का मुद्दा उठाया. इसमें एक पुरानी फिल्म के एक पुराने मजाक को बस दोहराया गया था, इसे राजनीतिक व्यंग्य की तरह लिखा गया था. यह इस तथ्य को देखते हुए स्पष्ट है कि यह साल 2018 के आसपास रहा है और अब पुलिस इस मामले को उठा रही है.

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इसके अलावा रमेश बनाम भारत संघ में, अदालत ने कहा था कि "कथित आपराधिक भाषण को तर्क, दिमाग, कठोरता और दुस्साहस के मानकों से आंका जाना चाहिए, न कि कमजोर और अस्थिर दिमाग वालों से जो ऐसे हर मामलों शत्रुता की गंध खोजते हैं. ”

मथिवानन बनाम पुलिस निरीक्षक और अन्य केस में, मद्रास हाईकोर्ट ने यहां तक कहा था कि व्यंग्य करने का अधिकार "भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में खोजा जा सकता है".

जुबैर का ट्वीट जाहिर तौर पर व्यंगय की भावना से किया गया था. तथ्य यह है कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) ने मौलिक अधिकार के तौर पर प्रदान किया है.

अनुच्छेद 19(2) पब्लिक ऑर्डर का प्रश्न होने पर उस पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है. हालांकि, जैसा कि ऊपर कहा गया है, ट्वीट के चार साल में कोई पब्लिक ऑर्डर का मुद्दा सामने नहीं आया जिसके लिए इसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

संक्षेप में, एक बहुत ही सीधा प्रश्न पूछा जाना चाहिए. चार साल पहले एक राजनीतिक व्यंग्य करने के लिए एक फैक्ट जांच करने वाले को अभी क्यों बंद किया गया है, एक फिल्म से एक पुराने व्यंग्य को लिया गया है जो कि भारत में प्रतिबंधित भी नहीं ?

और अगर ऐसा ही होने वाला है, तो क्या सभी व्यंग्यकार, कलाकार, लेखक, राजनीतिक टिप्पणीकार और पत्रकार, अपनी कलम छोड़ दें, ट्विटर छोड़ दें, अपना दिमाग और दुकान बंद कर दें – क्योंकि अगर कोई चार साल बाद किसी व्यंग्य को पसंद नहीं करे , और भले ही उसने वो व्यंग्य लिखा या बनाया भी नहीं तब भी उसके लिए उसे सजा दी जा सकती है?

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