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Mother's Day 2024: एक तरफ बेपनाह प्यार और आभार, कहीं जन्म तक का नहीं अधिकार

Mother's Day 2024: हरियाणा में पैदा हुई इन लड़कियों का क्या खुद की जिंदगी पर बाकियों के समान अधिकार है?

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Haryana Gender Discrimination: हर साल देश भर के लोग मई का दूसरा रविवार मां को समर्पित करते हैं, अपनेपन में लिपटे तरीकों से दुआ- प्रार्थना कर उनका आभार व्यक्त करते हैं...जी हां, जहां एक तरफ मदर्स डे को मां के प्रति स्नेह दिखाने के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है वहीं दूसरी तरफ देश की कुछ महिलाओं को सम्मान या बराबरी मिलना तो दूर, जन्म का अधिकार भी योजनाओं के तहत मिलता है.

देश में एक ऐसा राज्य है जहां शादी के लिए लड़कियां कम होने पर अजीबो-गरीब प्रथाएं तो बना दी गईं लेकिन उन्हें बचाने की जहमत न उठाई गई. यहां लड़की का जन्म होने पर उसकी जिंदगी को 'जन्म के अहसान' तले लाद दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ बड़े होने पर मां बन चुकी इसी बच्ची के लिए एक दिन चुनकर पूरा देश जोर-शोर मदर्स डे मनाता है.

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हम बात कर रहे हैं हरियाणा की. स्वास्थ्य विभाग की ओर से हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 14 शहरों के लिंगानुपात में कमी दर्ज की गई. वहीं, जन्म के समय लिंगानुपात (एसआरबी) में पिछले साल की तुलना में भी गिरावट देखी गई. जहां 2023 में प्रति एक हजार लड़कों पर 916 लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया जबकि 2022 में ये 917 था. वहीं, 2021 में यह आंकड़ा 914 था मगर 2019 में ये 923 पहुंच गया था. 

लिंगानुपात के मामले में हरियाणा हमेशा से काफी बदनाम रहा है. 2015 में हरियाणा में एक हजार लड़कों पर 876 लड़कियों ने जन्म लिया था. हालांकि, इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पानीपत से 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान' की शुरुआत की. इसके बाद राज्य में जन जागरूकता अभियान और लड़कियों के लिए कई सारी स्कीम शुरू की गई.

ऐसे में ये ख्याल आना लाजमी है कि ऐसे प्रदेश में महिलाओं की स्थिति क्या है? क्या उनकी परवरिश के मानक पुरुषों के समान हैं? उनके लिए दायरे वहीं हैं और क्या खुद की जिंदगी पर उनका बाकियों जैसा ही अधिकार है....पेश है बेटी से सफर तय कर मां बनीं महिलाओं की ऐसी कहानियां जो ऊपर दिए आंकड़ों की पैरवी करती नजर आ रही हैं और उनकी कोशिशें बाकी लड़कियों की जिंदगी में प्रेरणा भरने का काम कर रही हैं.    

2011 की जनगणना के अनुसार, हरियाणा का लिंग अनुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 879 महिलाओं का है, जो देश के 1,000 पुरुषों के मुकाबले 943 महिलाओं से काफी कम है.

कहानी नहीं सच्चाई है...

अपनी नहीं हर बेटी के लिए कर रहीं कोशिश

 ‘’पहली लड़की थी फिर भी जन्म के बाद घर से खुशी की गूंज नहीं बल्कि रोने का शोर था, लोग घर पर बधाई नहीं दिलासा देने पहुंचे. पूरी घटना जब पिताजी और घर के बाकी लोगों ने बताई तो सबसे चौंकाने वाली बात पता चली. लड़की से छुटकारा पाने के लिए घर के लोगों ने भरी सर्दी में ठंडे पानी से नहलाकर बाहर चारपाई पर लिटा दिया था लेकिन किस्मत से मैं बच गई...’’  

ये सच भिवानी की रहने वाली काफी (जो अब नीलम बन चुकी है) का है. बचपन में उन्हें ये सिर्फ एक किस्सा लगता था लेकिन बड़े होने पर जब उन्हें अपने नाम का मतलब और मकसद पता चला तो वो पूरी तरह टूट गईं. घर और आसपास वाली घटनाओं से उन्हें राज्य में अपनी और बाकी लड़कियों की स्थिति समझने में ज्यादा देर नहीं लगी.

लिहाजा, काफी (जिसका मतलब अब लड़की नहीं चाहिए) ने कम से कम अपनी जिंदगी बदलने की खुद ठानी. शुरुआत अपना नाम बदलने की सोच के साथ की और नीलम बन गई. नीलम की अब शादी हो चुकी है और करनाल में अपने परिवार के साथ रहती हैं. वो कहती हैं कि उनके साथ जो हुआ वो खुद की नहीं बल्कि किसी की बेटी के साथ न हो, इसके लिए हमेशा प्रयास करती हैं

बच्चियों के लिए मुहिम को बना लिया मकसद 

‘’छोटे पर मुझे खुलखुलिया (लगातार आने वाली खांसी) हो गई थी. यह एक संक्रमण रोग है जिससे सांस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है. यह बीमारी 2 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में अधिक देखी जाती है. हम 6 बहनें थें तो नानी ने इलाज नहीं करवाने दिया कि इसी बहाने एक लड़की कम हो जाएगी लेकिन उन दुआ शायद आसमान तक नहीं पहुंची और मैं बच गई...’’ 

ये वाकया किसी और नहीं बल्कि ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमन एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) अध्यक्ष शकुंतला जाखड़ के साथ घटा था. जैसे-जैसे वो बड़ीं होती गईं, उनके बचपन का ये अनुभव उन्हें समाज की सच्चाई लगने लगी. लिहाजा एआईडीडब्ल्यू के जरिए उन्होंने समय-समय पर समानता को लेकर कई अभियान चलाए. उनकी लड़कियों के अजीबोगरीब नाम बदलने की मुहिम काफी रंग लाई.   

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हरियाणा के हर हिस्से में ऐसी ही एक कहानी छिपी है. यहां लड़कियों की परवरिश को लेकर अनोखे नियम हैं और लड़कों को अलग तरह से पाला जाता है. बच्चियों को स्थानीय मुहावरों के जरिए उनके साथ हो रहे भेदभाव के लिए संतुष्ट किया जाता है और उनका जीवन ‘एक एहसान है’, ऐसा जताया जाता है. आज आपको बताते हैं वहां की लड़कियों की जुबानी ही हरियाणा की स्त्रियों की ऐसी ही कहानियां....

बेतुके नाम, अजीबोगरीब मायने 

थोड़ा अजीब है लेकिन यहां लड़कियों को जन्म से ही उनकी स्थिति का अहसास कराने का नियम है. दूसरी या तीसरी लड़की हो जाने पर ही लोग उसका नाम ‘माफी’, ‘काफी’, ‘बस कर’ इत्यादि रख देते हैं. छोटे पर तो उन्हें समझ नहीं आता लेकिन जैसे जैसे बड़ी होती जाती हैं उन्हें अपना नाम बताने तक में शर्म आती है. आपको बताते हैं, ऐसे ही कुछ नाम और उनके मतलब...    

भतेरी- बहुत हो गईं  

धापा- बस और लड़कियां नहीं  

बोहती- बहुत हैं  

अंतिमा- ये आखिरी लड़की हो  

अनचाही- इसकी इच्छा नहीं थी  

सीमा- बस अब ये सीमा है  

कसूर- गुनाह  

भरपाई- भगवान अब बेटा दो  

एनफ- बस बहुत हुआ  

पूर्व शिक्षामंत्री गीता भुक्कल ने इस मुद्दे को उठाया था. इस दौरान कई लड़कियां खुद सामने आईं और अपने नाम बदलवाने को लेकर कोर्ट के चक्कर लगाए. एआईडीडब्ल्यू ने भी स्थानीय स्तर पर लड़कियों के नाम बदलने की मुहिम चलाई और सैकड़ों लड़कियों ने अपनी मर्जी से अपने नाम चुने.
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दूध पिओगी तो मूंछें उग आएंगी  

लड़कों को ज्यादा ताकत चाहिए, उन्हें ही दूध दही मिलना चाहिए... ऐसी सोच (जो अब नियम बन चुके हैं) के साथ राज्य में बच्चों की परवरिश की जाती है. जिस घर में सिर्फ लड़के होते हैं वहां कोई अड़ंगा नहीं होता लेकिन जिस घर में भाई-बहन दोनों होते हैं, वहां घरवाले ही ऊटपटांग कहावतें बनाकर सेहतमंद चीजें सिर्फ लड़कों के हिस्से रखते हैं. जींद की भतेरी बताती हैं,  

 ‘’भाई को कच्चा दूध और घी मिलता देखकर जब मैं बचपन में दूध या दही मांगती थी तो मां और दादी कहती थीं कि भाई दूध पिएगा तो उसकी मूंछ और बाल लंबे और घने होंगे. तुम पिओगी तो तुम्हारी मूंछें उग आएंगी फिर शादी कौन करेगा?’’  

भतेरी आगे कहती हैं कि बचपन में समझ नहीं थी तो यही सच मान लेती थी लेकिन धीरे-धीरे लड़की और लड़कों के लिए बने नियमों के पीछे की सोच समझ आई. बताती हैं कि घरवाले लड़कियों के लिए इसलिए भी अच्छे खाने से परहेज करते हैं कि वो देर से बड़ी होंगी तो आराम से दहेज जोड़ लेंगे. यही कहूंगी कि मेरे साथ जो भी हुआ उससे कम से कम मैं समाज की एक सच्चाई से वाकिफ हो गई लिहाजा अपने आस-पास ऐसा कभी नहीं होने देती. अपने हों या दूसरों के, बेटे हों या बेटी, दोनों को एक-सा महसूस करवाने की कोशिश करती हूं. 

बेटी के जन्म पर दिलासा देने पहुंचे लोग  

बचपन से ही कई कड़वे अनुभव ले चुकीं करनाल की नीलम की शादी के बाद इस सच ने पीछे नहीं छोड़ा. बताती हैं कि उनकी एक बेटी और बेटा है. कहती हैं कि जब गर्भवती थी तभी सोचा था कि जो उनके साथ हुआ, वो बच्चों को साथ नहीं होने देंगे. नीलम ने बताया कि उनकी पहली संतान का जन्म लड़की के रूप में हुआ. घर पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन लोग बधाई की जगह दिलासा देने घर पहुंचे. कहती हैं,  

 ‘’काकी घर आकर फूट-फूट कर रोने लगी. बोलीं, सबके साथ कुछ अच्छा तो कुछ बुरा होता रहता है. इस बार भगवान ने दुख दिया, पूजा करना...अगली बार लड़का होगा.’’  

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दुष्कर्म हुआ तो बेटी ही दोषी  

जरा सोचिए, ऐसे माहौल में अगर बेटी के साथ कुछ अनहोनी हो जाए तो क्या होता होगा! सही सोचा आपने, ऐसे में यहां लोग बेटी और माता-पिता को ही दोष देते हैं. जनवादी कमेटी की सचिव भारती (पहले भतेरी थीं) बताती हैं कि पहले के मुकाबले लड़कियां कुछ हद तक जागरूक हुईं है, अपने साथ हो रहे भेदभाव के लिए वो खुद आने लगी हैं. कहती हैं कि जब वो गांव-गांव जाकर महिला अधिकार के प्रति लड़कियों को जागरूक कर रही थीं तभी एक दुष्कर्म की घटना उनके सामने आईं. उनके घर पहुंचीं तो नजारा बयां करती हैं.

‘’पिता सिर पकड़े बैठे हुए थे और खुद को कोस रहे थे कि पैदा होते ही लड़की को मार क्यों नहीं दिया. कुछ करीबी मौजूद थे जो माता-पिता को ही बेटी को जिंदा रखने का दोष दे रहे थे.’’   

"किस्मतवाली है तू कि बेटी मर गई"  

भिवानी की तमन्ना भी उन लड़कियों में से हैं, जो खुद अपने हक के लिए आगे आईं. उनका नाम पहले माफी था, फिर कॉलेज में आकर उन्होंने अपना नाम खुद बदला. एक घटना बताती हैं जब उनके एक रिश्तेदार के यहां बेटी की जन्म के कुछ समय बाद मौत हो गई, रिश्तेदारों के पहुंचने तक वो वहीं थीं. कहती हैं,  

 ‘’अपनी बेटी खो चुकी मां के पास उनकी बुआ सास आकर दिलासा देती हैं कि तू किस्मत वाली है कि तेरी बेटी मर गई, बेटा तो जिंदा है ना...रो मत! भगवान का शुक्रिया कर.”   

तमन्ना कहती हैं कि इस क्षेत्र में लड़कियों की पढ़ाई और शादी में से किसी एक को ही चुनते हैं. घरवाले या तो लड़की को पढ़ाते हैं या उसके दहेज के लिए पैसा जोड़ते हैं. उनका मानना है कि अगर लड़की पढ़ लिख गई तो शादी में ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ेगा जबकि पढ़ाई पर तो हो ही चुका है.   

ये तो वो अनुभव हैं, जो कुछ महिलाओं के जरिए सामने आए हैं लेकिन सोचिए ऐसे भी वाकये होंगे जो कहने के लिए शायद वो बची न हों या सामने आने की स्थिति में ही न हों...देश में जहां स्त्रियों के सम्मान और बेटियों के बराबरी के हक की बात हो रही है, वहां इस राज्य में जन्म का अधिकार भी बच्चियों के लिए वरदान है. जन्म हो भी गया तो उनका जीवन अभी भी कई बुनियादी खुशियों से अनजान है.   

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