हर साल की तरह इस साल भी देश भर में हजरत इमाम हुसैन (Hazrat Imam Hussain) की शहादत पर मुहर्रम (Muharram) के मातम का एहतमाम किया गया. इस दौरान देशभर के कई शहरों में मुहर्रम के जुलूस में गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल देखने को मिलीं. कुछ ऐसा ही नजारा यूपी की राजधानी लखनऊ में मुहर्रम के जुलूस में भी देखना को मिला, जब एक हिंदू "या अली और या हुसैन" के नारों की आवाज बुलंद करते हुए मातम करते हुए दिखा.
मुहर्रम के जुलूस में पहुंचे स्वामी सारंग
लखनऊ में दसवीं मुहर्रम (Muharram) पर जुलूस के दौरान जब शिया समुदाय के लोग लखनऊ की सड़कों पर मातम मना रहे थे, उस वक्त शिव स्वामी सारंग भी वहां माथे पर तिलक लगाए मातम मनाते नजर आए और उन्होंने "या अली, या हुसैन" के नारों के बीच अपने गम का इजहार किया.
इस दौरान उन्होंने हजरत इमाम हुसैन को खिराजे अकीदत पेश करते हुए सभी धर्म के लोगों से इस तरह के आयोजन में शामिल होने की अपील भी की. जुलूस के मौके पर उन्होंने कहा कि
वे इमाम हुसैन की शहादत के गम में शामिल होने आए हैं क्योंकि इमाम हुसैन ने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित किया था.स्वामी सारंग
इस मौके पर समेत बड़ी संख्या में शिया मुस्लिम समुदाय के लोग शामिल रहे.
इससे पहले भी मुहर्रम के जुलूसों में शामिल होते आए हैं स्वामी सारंग
प्रयागराज में एक ब्राहमण परिवार में जन्मे 45 साल के स्वामी सारंग एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में पहचाने जाते हैं. राजस्थान से अपनी शिक्षा ग्रहण करने के बाद 20 वर्षा से स्वामी सारंग लखनऊ में रह रहे हैं. उन्होंने इमाम हुसैन पर अध्ययन किया हैं. वे पिछले 6 वर्षो से मुहर्रम के जुलूस में शामिल होते और मातम मनाते आ रहे हैं.
'हजरत इमाम हुसैन की जीवन शैली, उसूलों और सत्यता से प्रभावित है स्वामी सारंग'
स्वामी सारंग के मुताबिक, वे अपने धर्म के सभी त्योहार मनाने वाले हिंदू हैं लेकिन मुहर्रम के समय इमाम हुसैन की याद में मातम में शामिल होते हैं. हजरत इमाम हुसैन की जीवन शैली, उसूलों और सत्यता के लिए दिए गए बलिदान से प्रभावित होकर उन्होंने इमाम हुसैन के रास्ते पर चलने का फैसला लिया है. स्वामी सारंग के मुताबिक, उनका मुख्य उद्देश्य विश्व स्तर पर अमन-शांति कायम करना है, इसके लिए वह इमाम हुसैन के किरदार को आगे रखकर कार्य कर रहे हैं.
स्वामी सारंग कहते हैं कि जिस तरह इमाम हुसैन के शोक में पूरा शहर डूब जाता है और ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा और यह इस बात कि पुष्टि करता है कि हक व सच्चाई का जालिम से मुकाबला सिर्फ शिया मजहब तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता को एक संदेश देता है कि यदि कहीं जुल्म हो रहा है तो उसका संबंध यजीद से है और कहीं इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है, उसका ताल्लुक कहीं न कहीं इमाम हुसैन से है.
क्यों होता है मुहर्रम के दिन मातम?
जानकारी के अनुसार, करीब 1400 साल पहले कर्बला की जंग हुई थी. यह इस्लाम की सबसे बड़ी जंग में से एक हैं. इस जंग में हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन इस्लाम की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे. यह जंग 10 मुहर्रम के दिन कर्बला के मैदान में तब के बादशाह यजीद की फौज के साथ हुई थी. दुनियाभर के शिया मुसलमान उनकी शाहदत को याद करते हुए मुहर्रम के दिन काले कपड़े पहनकर मातम करते हैं. इस दौरान ताजिया के साथ जुलूस भी निकाला जाता हैं.
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