ADVERTISEMENTREMOVE AD

NCERT किताब से गुजरात दंगों को हटाना भूल: इतिहास को मिटाना नहीं, याद रखना जरूरी

Gujarat Riots के बारे में हमारे बच्चों को जानना क्यों प्रांसगिक है?

Published
भारत
4 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

NCERT ने क्लास 12 की राजनीति विज्ञान की किताब से गुजरात दंगों (Gujarat Riots) वाला अध्याय हटा दिया है. कोविड-19 (COVID-19) महामारी के चलते ‘टेक्स्टबुक्स को रैशनलाइज’ करने के लिए यह कदम उठाया गया है. कहा गया है कि जो अध्याय इस समय प्रासंगिक नहीं, उन्हें हटाया जा रहा है. इतिहास, खासकर राजनीति का इतिहास कभी इतना अप्रासंगिक नहीं होता कि उसे याद करने से कतराया जाए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जिसका पूरा राजनीतिक इतिहास ही गुलामी पर आधारित है

वैसे यह कोशिश सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनिया के बहुत से देशों में होती रहती है. जैसे भारत के सामाजिक-राजनैतिक इतिहास की बुनियाद जाति-व्यवस्था पर टिकी है, वैसे ही अमेरिका के इतिहास की जड़ में नस्लवाद और गुलामी दबी है.

या यूं कहें कि यही अमेरिका के निर्माण की आधारशिला है. लेकिन वहां भी बार-बार यह कोशिश होती रही है कि इस स्याह इतिहास को धो-पोंछकर रख दिया जाए. इसीलिए वहां पिछले काफी समय से क्रिटिकल रेस थ्योरी (सीआरटी) को पाठ्यपुस्तकों से हटाने की वकालत की जा रही है.

क्रिटिकल रेस थ्योरी यह समझने की कोशिश है कि कैसे अमेरिकी नस्लवाद ने सार्वजनिक नीतियों को प्रभावित किया है. इस सिद्धांत के तहत अकादमिक दायरे में नस्लवाद के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है और नस्लवाद के तहत संस्थागत अन्याय का इतिहास पढ़ाया जाता है.

जैसा कि इतिहासकार और लेखक एडवर्ड ई. बैपटिस्ट का कहना है कि गुलामी ने अमेरिका को “कलोनियल इकनॉमी से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी औद्योदगिक शक्ति में बदलने का काम किया.” गुलामी खासकर, कपास के खेतों में गुलामी 18वीं शताब्दी के अंत से गृहयुद्ध की शुरुआत तक मौजूद थी.

कपास उगाने के लिए हजारों गुलाम आदमी, औरत और बच्चे सैकड़ों मील दूर मैरीलैंड और वर्जीनिया पहुंचाए गए और जबरन उन्हें मजदूर बनाया गया. उनकी नीलामी हुईं, बोलियां लगीं और लेबर कैंप्स में उन्हें बसाया गया. फिर लाखों किलो कपास उगाने का काम कराया गया. तो, अमेरिका का पहला बड़ा बिजनेस गुलामी के इर्द-गिर्द ही घूमता है.

0

लेकिन अमेरिका के नौ राज्यों में सीआरटी को यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ाने पर रोक लगा दी गई है. रिपब्लिकंस का कहना है कि यह विषय समाज को बांटने का काम कर रहा है. सारे ब्लैक लोगों को अच्छा, और व्हाइट लोगों को बुरा बताने का काम करता है.

लेकिन सीआरटी के समर्थक स्कॉलर्स और एक्टिविस्ट्स का कहना है कि इस विषय का यह अर्थ नहीं कि आज के व्हाइट लोगों को उस बुरे बर्ताव के लिए दोषी करार दिया जाए जो उनके पूर्वजों ने किया. आज के व्हाइट लोगों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे इस बारे में कुछ करें. कैसे नस्लवाद अब हमारे जीवन को प्रभावित न करे.

यूके में भी ब्रिटिश साम्राज्य पर रंग-रोगन चढ़ाया गया है

2018 में यूके में लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने यह प्रस्ताव रखा था कि ब्रिटिश स्कूलों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की सच्चाइयों का इतिहास पढ़ाया जाए. इसमें पीपुल ऑफ कलर का इतिहास और ब्रिटिश राष्ट्रराज्य में उनके योगदान का भी जिक्र होना चाहिए, न कि सिर्फ उनकी गुलामी का.

लेकिन कंजरवेटिव पार्टी के सदस्यों ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि कॉर्बिन अपने देश पर शर्मिन्दा हैं और यह प्रचार नहीं करना चाहते कि ब्रिटेन ने दुनिया भर के देशों का कितना भला किया है

इस पर लिवरपूल यूनिवर्सिटी में इंडियन और कलोनियल हिस्ट्री पढ़ाने वाली डायना हीथ ने अपने एक आर्टिकल ‘द ब्रिटिश एंपायर इज़ स्टिल बीइंग व्हाइटवॉश्ड इन यूके स्कूल्स’ में लिखा- यह उस जबरदस्त हिंसा को मिटाने जैसा है जो ब्रिटिश साम्राज्य ने की थी... जैसे हम ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हिंसा के विभिन्न रूपों से इनकार करते हो....”

ADVERTISEMENTREMOVE AD

दरअसल ब्रिटेन में इतिहास की किताबों में अंग्रेजी हुकूमत के काले अतीत को शामिल ही नहीं किया गया. और तो और, बाकी के यूरोपीय देशों से अलग, ब्रिटेन में स्टूडेंट्स के इतिहास पढ़ने की अनिवार्यता तभी खत्म हो जाती है, जब वे 14 साल के होते हैं.

यही वजह है कि वहां के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में इतिहास की बारीकियों के लिए बहुत कम जगह बचती है. लेकिन जनता के लिए ब्रिटेन के साम्राज्यवादी अतीत का नेरेटिव तैयार करना जरूरी है ताकि मौजूदा दौर के अन्याय को खत्म किया जा सके.

यह कितना जरूरी है, इसे समझने के लिए मार्च 2020 की यूगॉव (YouGov) पोलिंग के नतीजे देखे जा सकते हैं. इस पोलिंग में एक तिहाई ब्रिटेनवासियों ने कहा था कि ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने उपनिवेशों को नुकसान से ज्यादा फायदा पहुंचाया. एक चौथाई से ज्यादा लोग चाहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य वापस लौट आए. जाहिर बात है, अगर लोगों के इतिहास से रूबरू नहीं कराया जाएगा तो वे एक झूठे अभिमान से भरे रहेंगे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जर्मनी अपने हिटलर से बहुत सबक लेता है

यूं सीखना है तो हिटलर की जर्मनी से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं... कि कैसे अपने अतीत से ही सीखें. जर्मनी हमें सिखाता है कि अगर बच्चे अपने देश के इतिहास के “असहज” हिस्सों को जानेंगे तो अपने देश से नफरत नहीं करेंगे. इसके बजाय अतीत को राष्ट्रवादी दृष्टि से देखने के बजाय उसकी आलोचना करने की क्षमता विकसित होगी.

बर्लिन का ज्यूइश म्यूजियम, टोपोग्राफी ऑफ टेरर और होलोकॉस्ट मेमोरियल इसी का नतीजा हैं. इसके अलावा हर साल यहूदियों के सामूहिक नरसंहार की याद में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.

टीवी और फिल्मों में नाजी इतिहास का संदर्भ मौजूद होते हैं. वहां इन स्मृतियों में आम लोगों को भी शामिल किया गया है, जिसे सिटिजन इंगेजमेंट कहते हैं. 1996 में जर्मन आर्टिस्ट ने स्टंबलिंग स्टोन्स प्रॉजेक्ट (पत्थर स्मारक) शुरू किया जोकि दुनिया का सबसे बड़ा विकेंद्रित स्मारक है. जर्मनी में हर शहर में ये स्मारक लगे हुए हैं.

यह सिटिजन फाइनांस्ड इनीशिएटिव है. इन पत्थरों पर नरसंहार के शिकार लोगों के नाम और स्मृतियां होती हैं. अगर कोई इस पत्थर को अपने घर पर या और कहीं लगवाना चाहता है तो वह किसी नाजी पीड़ित का अतीत जाने, कुछ फीस चुकाए और प्रशासन की अनुमति से वह पत्थर लगवा ले.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पर हम क्या सबक ले रहे हैं?

ऐसा ही एक म्यूजियम भारत में अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार की याद में भी बनाया गया है. लेकिन वह अंग्रेजी दौर की यातना की याद दिलाता है. आजादी के बाद के भारत के राजनीतिक इतिहास को हम भूलने की कोशिश कर रहे हैं. सरकारें असहज इतिहास को भुलाना चाहती हैं क्योंकि उससे उनकी सत्ता को चुनौती मिलती है.

गुजरात के 2002 के सच को भी याद करने से परहेज है. प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष हिंसा का प्रचार और उकसावा राजनीति की भाषा बन चुका है. भारतीय समाज में हिंसा की स्वीकृति और उसके प्रति आदर बढ़ता जा रहा है. यह हर अल्पसंख्यक, बहुजन के खिलाफ है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें