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नई संसद का उद्घाटन करेंगे पीएम: क्या है नियम, 3 एक्सपर्ट्स ने बताया कैसा संदेश?

New Parliament Building Inauguration Row: क्या संविधान में इसका जिक्र है कि संसद का उद्घाटन कौन करेगा?

Published
भारत
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New Parliament Building Inauguration Row:  नई संसद के उद्घाटन को लेकर पीएम मोदी पर विपक्ष हमलावर है. विपक्ष का कहना है कि नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री को नहीं करना चाहिए, इसे राष्ट्रपति को करना चाहिए. इसके पीछे विपक्ष का अपना अलग-अलग तर्क है. इसको लेकर विपक्ष की 19 पार्टियों ने एक साझा हस्ताक्षर वाला पत्र भी मीडिया के साथ शेयर किया है, जिसमें उसने अपने तर्क दिए हैं.

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हालांकि, विपक्ष भी नए संसद के उद्घाटन को लेकर दो पक्षों में विभाजित है. एक पक्ष का कहना है कि राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च पद है और ये पद दलगत राजनीति से ऊपर है, इसलिए नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति को करना चाहिए. विपक्ष के दूसरे धड़े की दलील है कि संसद का सर्वोच्च लोकसभा स्पीकर होता है, इसलिए उद्धघाटन उसे करना चाहिए.

लेकिन, हम इस पचड़े में नहीं पड़ते हैं. हम संविधान के जानकारों और देश की तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर्स से जानते हैं कि आखिर उनकी इस पर क्या राय है, जो संविधान और राजव्यवस्था के जानकार हैं. क्या संविधान में इसका जिक्र है कि संसद का उद्घाटन प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या लोकसभा स्पीकर में से किसको करना चाहिए?

क्विंट हिंदी जवाहर लाल नेहरू (JNU) के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मनीष दाबडे, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रजनी रंजन झा और इलाहाबाद विश्वविद्यालय (AU) के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर पंकज कुमार से बात कर इस बारे में जानने की कोशिश की.

क्या संविधान में इसका जिक्र है कि संसद का उद्घाटन कौन करेगा?

इस सवाल के जवाब में तीनों विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर्स ने एक स्वर में कहा कि संविधान के किसी भी भाग में ऐसा जिक्र नहीं है कि संसद का उद्घाटन प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या लोकसभा स्पीकर, कौन करेगा.

...फिर संसद का उद्घाटन किसको करना चाहिए?

इस सवाल के जवाब में JNU के प्रोफेसर मनीष दाबडे ने क्विंट हिंदी से बातचीत में कहा, "चूंकि संसद सर्वोच्च हाउस है इसलिए मेरी समझ से प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और लोकसभा स्पीकर, तीनों में से कोई भी कर सकता है, क्योंकि ये तीन ही सर्वोच्च संवैधानिक पद हैं.

उन्होंने आगे कहा कि

"स्पीकर का पद विधायिका का प्रमुख होता है, प्रधानमंत्री का पद कार्यपालिका का और हेड ऑफ द स्टेट राष्ट्रपति होता है. इन तीनों में से किसी भी नाम पर असहमत होने का कोई सवाल नहीं बनता. हां, ये जरूर है कि अगर विपक्ष, प्रधानमंत्री को लेकर असहमत है तो उसके अपने तर्क हैं."
मनीष दाबडे, प्रोफेसर, JNU

BHU के प्रोफेसर रजनी रंजन झा ने क्विंट हिंदी से बातचीत में कहा कि...

"संसद तीन तत्वों से मिलकर बना है. लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति, जिसका जिक्र संविधान में भी है. राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च पद है. अगर वह संसद का उद्घाटन करता है तो किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए. वैसे भी राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से ऊपर होता है. मेरी समझ से प्रधानमंत्री पर भी कोई एतराज नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर विपक्ष एतराज जता रहा है तो सरकार को इस पर विचार करना चाहिए और कोई बीच का विकल्प निकालना चाहिए. क्योंकि, आपका लोकतंत्र कितना मजबूत है वह इससे मापा जाता है कि वहां विपक्ष कितना मजबूत है."
रजनी रंजन झा, प्रोफेसर, BHU
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वहीं, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पंकज कुमार ने क्विंट हिंदी से बातचीत में कहा कि...

"हमें समझ नहीं आता कि आखिर विपक्ष विलाप क्यों कर रहा है? भारतीय लोकतंत्र में कार्यपालिका का सर्वोच्च प्रधानमंत्री होता है अगर वह संसद का उद्घाटन कर रहा है तो विपक्ष को क्या दिक्कत है? जहां, तक राष्ट्रपति की बात है तो ये जरूर है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च पद है लेकिन वह भी प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करता है."
पंकज कुमार, प्रोफेसर, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी

क्या संवैधानिक से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा बन गया है?

इस सवाल के जवाब में तीनों विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स ने एक स्वर में सहमति जताई. उनका कहना था कि ये संवैधानिक से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा बन गया है. JNU के प्रोफेसर मनीष दाबडे ने कहा कि सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट पीएम मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट था. अगर वह इसका उद्घाटन कर रहे हैं तो निश्चित रूप से कोई ना कोई इसमें राजनीतिक निहितार्थ छिपा होगा. प्रोफेसर रंजन झा कहते हैं कि कौन नहीं चाहता कि इतिहास में उसका नाम दर्ज ना हो.

प्रधानमंत्री के उद्घाटन करने से क्या संदेश जाएगा?

इस सवाल के जवाब में BHU के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रजनी रंजन झा कहते हैं कि...

"मुद्दा ये नहीं है कि प्रधानमंत्री को करना चाहिए या राष्ट्रपति को, दोनों में से कोई भी करे तो किसी को भी दिक्कत नहीं होनी चाहिए. ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि लोकतंत्र के संवैधानिक मूल्यों और लोकतंत्र की मर्यादाओं को आप कैसे आगे बढ़ाते हैं और कैसे पीछे ले जाते हैं. क्योंकि, भविष्य में इन्हीं मूल्य के आधार पर आपका मूल्यांकन होगा कि आपने लोकतंत्र को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कैसे मजबूत करने की कोशिश की?"
रजनी रंजन झा, प्रोफेसर, BHU

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