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मोमोज को अपनाने में तकलीफ है, तो इन लजीज पकवानों का क्या करें?

मोमोज की तरह हमारे कई पसंदीदा पकवान भारतीय मूल के नहीं हैं. तो क्या हम इन्हें भी खाना छोड़ दें?

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मोमोज एडिक्टिव हैं, ऐसा काफी लोग मानते होंगे, पर बीजेपी के नेता रमेश अरोड़ा इस पर कुछ ज्यादा ही सीरियस नजर आते हैं. उन्‍होंने मोमोज के बारे में अपनी राय कुछ इस तरह रखी, "मोमोज बेहद हानि‍कारक और एडिक्टिव (लत वाली) चीज है.''

अगर इनकी इस बात से आपको एतराज है, तो आगे की बात से आपको और ज्‍यादा तकलीफ पहुंच सकती है. उन्‍होंने कहा, ''इसमें जो अजिनोमोटो इस्तमाल किया जाता है, उससे गंभीर बीमारियां हो सकती हैं.''

बीजेपी नेता ने तो यहां तक कहा कि मोमोज भारतीय व्यंजन नहीं है, इसका व्यापार करने वाले बांग्‍लादेश और म्‍यांमार के लोग ही हैं.

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तो जो पिछले दो साल में बीफ के साथ हुआ, वो मोमोज के साथ भी हो सकता है? देशभक्ति‍ के लिए मोमोज की कुर्बानी दी जा सकती है?

हालांकि कुर्बानी देने से पहले अगर हम माननीय रमेश अरोड़ा जी की तरह सोचें, तो कई और चीजों को भी मेन्‍यू से निकालना पड़ेगा. हमने खान-पान की कई आदतें औरों से सीखी हैं. तो क्या इन चीजों के साथ भी यही होगा?

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गुलाब जामुन

गुलाब जामुन सुनते ही हर किसी का दिल खुश हो जाता है. इसे टेस्‍ट की दुनिया का राजा भी कह सकते हैं, पर ये किसी देसी हलवाई की खोज नहीं था. ये मुगलों के साथ फारसी सभ्यता से भारत तक आ पहुंचा. अब लगभग 500 साल से ये हमारे साथ है, तभी तो उनका लोक्मा-अल-कादी (Lokma-al-qadi) उनके पास और हमारा गुलाब जामुन हमारे पास.

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जलेबी

देसी घी तो हमारा है, पर उसमें पकने वाली जलेबी भी फारसी सभ्यता देन की है. लेकिन देसी घी से निकली गरमागरम जलेबी खाते वक्त मन में इसका खयाल आना भी मुश्किल है. अफ्रीका के कई हिस्सों में ये मिठाई खाई जाती थी. धीरे-धीरे मिडि‍ल-इस्ट में भी ये काफी खाई जाने लगी, जहां से मुगलों के साथ हमारे पास आई. बस हम चाहेंगे कि कहीं कोई इसको भी पराया न करार दे दे.

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समोसा

समोसा तो कमोबेश हर हलवाई की दुकान पर मिल जाती है, ये हर टी-पार्टी की जान है. मेहमान को भगवान का दर्जा देते हुए हम उनके सामने समोसा ही तो रखते हैं! समोसा को मिडिल-इस्ट में संबोसा कहा जाता था. इसे व्यापारियों ने 13वीं सदी में भारत लाया. पर ये समोसा हमारे आज के समोसे जैसा नहीं था. उसमें आलू की सब्जी नहीं, मांस डाला जाता था. हमने मांस निकाला, आलू डाला और उसे अपना बना लिया.

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चाय

अब आप कहेंगे कि मैंने तो हद कर दी. चाय कैसे हमारी नहीं हो सकती. हमारा देश ही एक चायवाले के हाथ में है. पर बात सिर्फ चाय की नहीं है, चायपत्ती भी हमारी नहीं है. अंग्रेजों ने इसे चीन से लाया था. चीन में इन पत्त‍ियों को उबालकर सिर्फ औषधि‍ के रूप में इस्तमाल किया जाता था.

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ये तो हुई सिर्फ नाश्‍ते और मिठाई की बात, लेकिन भोजन का भी कुछ ऐसा ही हाल है.

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दाल-चावल

अब ये तो मेरे लिए भी झटका है, जब ये पता चला कि दाल के साथ चावल खाने की आदत भी मूल रूप हमारी नहीं थी. दाल-चावल को महाराष्ट्र, गुजरात और पश्चिम बंगाल में दाल-भात भी कहा जाता है. दरअसल, नेपाल में 2000 मीटर की ऊंचाई पर ज्यादा तो कुछ उपजाना मुमकिन नहीं था, इसलिए लोग उबले हुए चावल और दाल से ही काम चलाते थे. नेपाल के लोगों ने इसे भात नाम दिया.

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राजमा

राजमा-चावल तो उत्तर भारत की जान है. राजमा जिसे रेड किडनी बीन्स कहा जाता है, उसे साउथ मेक्सिको से लाया गया था. फिर हमने उसके लिए मसाला तैयार किया, तड़का लगाया, फिर उसे अपना बनाया.

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इंसान तो बिना खाए रह नहीं सकता था. उसने शिकार करके, फिर खेती करके, चाहे जो उपलब्ध था, उसे अपनाया और वो हमारी खाने की आदत बनी. भारत कई सभ्यताओं का घर रहा है. इसलिए हमारी आदतों पर इसका असर पड़ा. इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं थी.

तो जनाब, मोमोज से क्‍या दुश्‍मनी, जो जापान और चायना होते हुए पूर्वोत्तर राज्यों तक पहुंचे और फिर देश के बाकी हिस्‍सों में खूब पसंद किए गए.

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