साल के अंत में मैं आमतौर पर अपने पुराने कागजात चेक करता हूं, ताकि उनमें से फालतू कागजों को हटा सकूं. मुझे इनमें एक पुराना लिफाफा मिला, जो मेरे पेरेंट्स ने भेजा था. लिफाफे में 51,000 रुपये थे. इसमें 500 रुपये के 102 नोट थे.
मैंने अपने 50वें बर्थडे पर मिले इस गिफ्ट को इसलिए खर्च नहीं किया था, ताकि इसकी यादों को संजोकर रख सकूं. यह गिफ्ट अब मेरे किसी काम का नहीं है और इससे आप मेरी तकलीफ का अंदाजा लगा सकते हैं.
- नोटबंदी ने बेकसूर लोगों को भी ‘अपराधी’ जैसा बना दिया है
- साल 2016 की शुरुआत के वक्त माहौल बेहतर था, पर अब तस्वीर बदल चुकी है
- एक साल में हमने बुराइयों को ‘इंपोर्ट’ कर लिया, जबकि अमेरिका, चीन और यूरोप अपनी बेड़ियों से आजाद हो रहे हैं
- हालात 1970 के दशक जैसे बन रहे हैं. यह दुख की बात है. उस समय भी सरकार सुप्रीम पावर थी
- मोदी सरकार टैक्स रेवेन्यू बढ़ाकर अधिक खर्च करना चाहती है, जिससे डरना चाहिए
- देश की 7% से कुछ अधिक ग्रोथ पर वाहवाही लूटी जा रही है, लेकिन यह सरकारी खर्च में 15% बढ़ोतरी से हासिल हो रही है
2016 के ट्रैजिक ड्रामे का क्लाइमेक्स यही है. निर्दोष लोगों को बिना कसूर के छुटभैया अपराधी बना दिया गया है. वह बेटी, जिसने डॉक्टर को बीमार पिता का इलाज करवाने के लिए कुछ एक्स्ट्रा पुराने नोटों की रिश्वत दी थी. वह क्लर्क, जिसने बच्चे के स्कूल प्रिंसिपल को 1,000 रुपये की फीस के बदले पुराने नोटों में 1,300 रुपये दिए. वह गरीब किसान, जिसे अपने ‘अन्नदाता’ यानी गांव के जमींदार के लिए जनधन खाते में बेनामी पैसा जमा कराना पड़ा. डीमॉनेटाइजेशन के बाद जो दमनकारी कानून बने हैं, उसने हम सबको अपराधी बना दिया है.
'यस प्राइम मिनिस्टर', शियाओपिंग या फिदेल कास्त्रो?
आने वाले साल को लेकर मेरे अंदर वैसी खुशी नहीं है, जैसी 2016 के शुरू होने से पहले थी. तब देश में इकोनॉमिक ग्रोथ, नए बिजनेस शुरू करने का उतावलापन, टैक्स कानून में समझदारी भरे बदलाव की उम्मीदें उफान ले रही थीं. उस समय दुनिया रेफरेंडम के संभावित नतीजों, मुश्किल चुनावों और इकोनॉमिक ग्रोथ थमने से बेचैन थी और भारत सुकून की सांस ले रहा था. हमारे सामने ‘कैसे अमीर’ बना जा सकता है, इसकी चुनौती थी, जबकि अमेरिका और यूरोप को यह सवाल परेशान कर रहा था कि वे गरीब क्यों हो रहे हैं.
लेकिन सिर्फ एक साल में हमने अपने अतीत की सारी बुराइयों को ‘इंपोर्ट’ कर लिया है, जबकि अमेरिका, चीन और यूरोप अपनी बेड़ियों से आजाद हो रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तब देंग शियाओपिंग जैसी उम्मीदें जगाई थीं, जिन्होंने चीन के लोगों से कहा था, ‘अमीर बनो, क्योंकि इसमें शान है.’
आज मोदी क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो की भाषा बोल रहे हैं. जिस किसी के पास थोड़ा-सा कैश है, वह उसके खिलाफ रॉबिन हुड स्टाइल वाले क्लास वॉर के अंदाज में जहर उगल रहे हैं. वह कह रहे हैं कि उनके टैक्स और एनफोर्समेंट वफादार उन लोगों को खुशी-खुशी काटेंगे, चोटिल करेंगे और सलाखों के पीछे डाल देंगे.
हालात 1970 के दशक जैसे बन रहे हैं. यह दुख की बात है. उस समय भी सरकार सुप्रीम पावर थी. तब हर कोई अपनी बेटी की शादी सरकारी बाबू, डॉक्टर, इंजीनियर से करना चाहता था, जबकि बिजनेसमैन बुराई के प्रतीक थे, जिन्हें बॉलीवुड की फिल्मों में स्मगलर और ठरकी दिखाया जाता था. बदकिस्मती से बिजनेस से पैसा बनाने वाले या इसकी कोशिश करने वालों को फिर ‘संदेह’ की नजर से देखा जाने लगा है, क्योंकि जिस किसी के पास कैश है, वह कुछ गलत करने के अहसास के साथ जी रहा है. यह पीछे की ओर लौटने जैसा है.
सरकार तबाही का दूसरा नाम बन गई है
जब 21वीं सदी की शुरुआत हो रही थी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार की दखलंदाजी कम करने की घोषणा की थी. कोई नई सरकारी कंपनी शुरू नहीं की जानी थी, ऐसी कई कंपनियों को बेचा गया. बाजार में कॉम्पिटिशन का बोलबाला बढ़ा और प्राइवेट सेक्टर मजबूत होता गया, जबकि सरकारी कंपनियों के दबदबे में कमी आती गई.
प्राइवेट बैंक, टीवी चैनल, टेलीकॉम, आईटी, लॉजिस्टिक्स और एयरलाइन कंपनियां विशालकाय सरकारी कंपनियों को पीछे धकेल रही थीं और नए रोजगार के मौके बना रही थीं. प्राइवेट कंपनियों ने इकोनॉमी में नई जान डाल दी थी.
वाजपेयी के बाद मनमोहन सिंह ने देश की कमान संभाली और उन्होंने सोशल स्कीम्स पर ध्यान दिया. सिंह ने भी प्राइवेट कंपनियों के कामकाज में दखलंदाजी से खुद को दूर रखा. अफसोस की बात है कि अब कई साल के बाद प्राइवेट इनवेस्टमेंट की तुलना में सरकार का खर्च अधिक रहने जा रहा है.
‘अतीत के इस मर्ज’ से डरने के बजाय इसे तमगा बताया जा रहा है. हम 1970 के दशक के सरकारी कंट्रोल वाली दलदल में धंस रहे हैं और कई लोग तालियां बजा रहे हैं. यह डराने वाली बात है.
मोदी सरकार टैक्स रेवेन्यू बढ़ाकर अधिक खर्च करना चाहती है, जिससे डरना चाहिए. देश की 7% से कुछ अधिक ग्रोथ पर वाहवाही लूटी जा रही है, लेकिन यह सच नहीं बताया जा रहा है कि सरकारी खर्च में 15% बढ़ोतरी से इतनी ग्रोथ हासिल हो रही है. दूसरी तरफ, कहीं ज्यादा प्रॉडक्टिव सेक्टर्स संघर्ष कर रहे हैं. इससे इंडस्ट्री में रोजगार घट रहा है, बेरोजगारी बढ़ रही है. उधर, सरकार कभी स्वच्छ भारत सेस तो कभी कृषि कल्याण सेस लगाकर टेलीविजन विज्ञापनों पर पैसे लुटा रही है.
बदनाम, पिछली तारीख और फिरौती (जिसकी वोडाफोन, शेल और केयर्न टैक्स विवाद मिसाल हैं) जैसे टैक्स डिमांड के मामले बढ़ रहे हैं. सरकार रोज ही अपनी पावर बढ़ा रही है. अब सेकेंडरी मार्केट में इनडायरेक्ट इक्विटी ट्रांसफर्स पर 40% टैक्स लग सकता है, जिसे कल तक लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस टैक्स से छूट मिली हुई थी.
इस बीच, विदेशी निवेशक तेजी से भारतीय एसेट्स से पैसा निकाल रहे हैं. बैंकों का बैड लोन 100 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. रुपया नए रिकॉर्ड लो लेवल की तरफ बढ़ रहा है और 2014 में शेयर बाजार जो ‘मोदी प्रीमियम’ दे रहा था, वह पूरी तरह खत्म हो गया है.
सिर्फ प्राइवेट कंजम्पशन से उम्मीद की रोशनी दिख रही थी, लेकिन अब इसमें एक-तिहाई गिरावट आ सकती है. इसके लिए नोटबंदी का उन्माद कसूरवार है. क्या अब भी आप अच्छे दिनों का नारा लगा रहे हैं? शायद अभी भी आपका जी नहीं भरा है. क्या प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में भी आरक्षण को लागू किया जाएगा? हंसिए मत, क्योंकि रॉबिन हुड स्टाइल वाली पॉलिटिक्स और इकोनॉमिक्स को रोकना बहुत मुश्किल होता है.
ट्रंप अमेरिका की ग्रोथ तेज कर सकते हैं, जो भारत के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा होगा.
अब जरा दूसरे देशों पर नजर डालिए. डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी इकोनॉमी में नई जान डालने का वादा कर रहे हैं, जबकि उसकी ग्रोथ पहले ही तेज है. डॉलर मजबूत हो रहा है. अमेरिका की ग्रोथ 3 पर्सेंट से ऊपर पहुंच गई है, वहां इंटरेस्ट रेट बढ़ रहे हैं. अगर वह कॉरपोरेट टैक्स 20% से कम कर देते हैं और अमेरिकी कंपनियों को विदेश से कुछ लाख करोड़ डॉलर वापस अपने देश में लगाने के लिए बढ़ावा देते हैं, तो अमेरिकी इकोनॉमी कमाल कर सकती है.
जहां तक चीन की बात है, वहां इकोनॉमी क्रैश करने की आशंका खत्म हो गई है. इसमें कोई शक नहीं कि भारी कर्ज से उसकी ग्रोथ कुछ कम हो सकती है, लेकिन चीन के पास काफी विदेशी मुद्रा है. ऐसे में वहां का प्राइवेट सेक्टर इकोनॉमी को बचा सकता है...
इन सबके बीच भारत कहां होगा? मुझे डर है कि अगर सरकार नहीं सुधरती, तो इसकी हालत खराब होगी. अगर वह एक के बाद एक गलतियां करती रहती है, सरकार की तानाशाही बढ़ती है, तो भगवान राम भी हमारी मदद नहीं कर पाएंगे. इसीलिए नए साल की आहट मुझे बेचैन कर रही है, लेकिन मेरी प्रार्थना है कि मैं गलत साबित होऊं.
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