हाल ही में एक विवादास्पद फैसले में, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंस यानी POCSO एक्ट को गलत ढंग से पढ़ा और एक बच्चे को ओरल सेक्स (Oral Sex) के लिए मजबूर करने के दोषी की सजा कम कर दी.
हाई कोर्ट सोनू कुशवाहा की एक विशेष POCSO अदालत के फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसने उसे POCSO एक्ट की धारा 6 और धारा 377 और आईपीसी की धारा 506 के तहत दोषी ठहराया था.
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मार्च 2016 में, कुशवाहा लगभग 10 साल के एक लड़के को मंदिर ले गया, उसे 20 रुपये दिए और उसे जबरन ओरल सेक्स करने के लिए मजबूर किया. जब लड़के ने अपने परिवार को घटना के बारे में बताया तो उसके पिता ने शिकायत दर्ज की जिसके बाद कुशवाहा की गिरफ्तारी और मुकदमा चलाया गया.
कुशवाहा को विशेष पॉक्सो अदालत ने जो सजा दी वो कम से कम 10 साल की कठोर जेल है. जबकि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस अनिल कुमार ओझा ने 18 नवंबर को अपने फैसले में कुशवाहा की सजा को बरकरार रखा, उन्होंने कहा कि उनके द्वारा किया गया अपराध 'एग्रेवेटिड पेनेट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट' नहीं बल्कि 'पेनेट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट' है, जो कम है.
पोक्सो एक्ट के तहत अपराध यौन उत्पीड़न के लिए न्यूनतम सजा सात साल की कैद है जिसे हाईकोर्ट ने कुशवाहा की सजा को संशोधित किया है.
POCSO अधिनियम की गलत व्याख्या क्यों ?
जस्टिस ओझा का कहना है कि वो पॉक्सो एक्ट प्रावधानों को पढ़ने के बाद अपने निर्णय पर पहुंचे, लेकिन एक्ट को सादा पढ़ने से ही पता चलता है कि उन्होंने कानून को गलत बताया है.
जैसा कि कुशवाहा ने लड़के के मुंह में अपना लिंग डाला था, यह स्पष्ट रूप से POCSO अधिनियम के तहत 'पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट' की परिभाषा में आता है, यानी नाबालिग के गुप्तांग या मुंह में लिंग डालना. हांलांकि, ये पूरी परिभाषा नहीं है.
POCSO अधिनियम की धारा 5 (M) के अनुसार, बारह साल से कम उम्र के बच्चे पर कोई भी यौन हमला 'पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट' है. POCSO अधिनियम के तहत 'गंभीर' अपराध ज्यादा गंभीर सजा का कारण बनते हैं.
चूंकि इस मामले में पीड़ित अपराध के समय लगभग 10 वर्ष का था, एक बार जब ये स्वीकार किया जाता है कि कुशवाहा ने उसे ओरल सेक्स करने के लिए मजबूर किया था, तो ये साफ है कि उसने ''एग्रेवेटिड पेनेट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट' किया था.
जस्टिस ओझा अपने फैसले में किसी भी बिंदु पर ये नहीं बताते हैं कि कैसे धारा 5 (M) यहां लागू नहीं होती है, पीड़ित की उम्र को ध्यान में रखते हुए और कोई विवाद नहीं है कि वो 12 साल से कम उम्र का था.
इसलिए, फैसला पॉक्सो एक्ट की स्पष्ट गलत व्याख्या है और समीक्षा या अपील के जरिए इसे तुरंत ठीक करने की आवश्यकता है.
ये हाईकोर्ट द्वारा बिना किसी समीक्षा याचिका के दायर किया जा सकता है - जैसा कि केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में पुष्टि की है, हाई कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत शक्ति का उपयोग करके अपने खुद के निर्णयों की समीक्षा कर सकते हैं.
वैकल्पिक रूप से, उत्तर प्रदेश राज्य एक अपील या समीक्षा दायर कर सकता है या यहां तक कि अटॉर्नी जनरल या राष्ट्रीय महिला आयोग जैसे पदाधिकारी भी इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में ले जा सकते हैं.
ये ध्यान दिया जाना चाहिए कि फिलहाल (इंडिया टुडे के एक ट्वीट के आधार पर) ऐसे सोशल मीडिया पोस्ट प्रसारित हो रहे हैं, जो दावा करते हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में एक नाबालिग के साथ ओरल सेक्स को 'गंभीर यौन हमला' मानने से इनकार कर दिया था. जबकि हाईकोर्ट का फैसला ऊपर उल्लिखित कारणों से गलत है. ये पोस्ट्स भी ठीक नहीं हैं.
नोट: जैसा कि घटना 2016 में हुई थी, इस मामले में 2019 के संशोधन द्वारा पेश किए गए POCSO एक्ट के तहत अपराधों के लिए बढ़ी हुई सजा इस मामले में लागू नहीं हो सकती है. 2019 के बाद के मामलों के लिए, गंभीर यौन उत्पीड़न के लिए सजा कम से कम 20 साल है और ज्यादा से ज्यादा मृत्युदंड. पेनेट्रेटिव सेक्शुअल असॉल्ट के लिए भी न्यूनतम सजा को बढ़ाकर 10 साल कर दिया गया है और अगर बच्चा 16 साल से कम उम्र का है तो न्यूनतम सजा 20 साल की कैद है.
ये पहली बार नहीं है जब किसी हाईकोर्ट के किसी जज के द्वारा पॉक्सो एक्ट के एक महत्वपूर्ण प्रावधान को गलत बताया गया है.
बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की जज जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने इस साल की शुरुआत में कई फैसले दिए, जिसमें एक फैसला ये था कि एक नाबालिग लड़की के स्तनों को बिना 'त्वचा से त्वचा' के संपर्क के छेड़ना पॉक्सो एक्ट के तहत यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा.
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