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संडे व्यू: संकट का ‘दिलचस्प’ दौर, दानिश की मौत पर चुप क्यों रहे पीएम?

नामचीन लेखकों टीएन नाइनन, करन थापर, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, गौतम भाटिया, ललिता पनिक्कर के लेखों का सार

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संकट का ‘दिलचस्प’ दौर

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जो चीनी अनुश्रुति के हिसाब से ‘दिलचस्प समय’ है जब अलग-अलग तरीके से संकट कुछ इस तरह पेश हो रहे हैं जिनसे निपटने के लिए मौजूदा व्यवस्था के पास क्षमता तक नहीं है. उदाहरण के लिए साइबेरिया और पश्चिमोत्तर कनाडा में गर्म हवाएं चली हैं और आग लगने की घटनाएं तक हुई हैं. इसी तरह यूरोप के आधा दर्जन समृद्ध देशों में असाधारण बाढ़ की घटनाएं हुई हैं. चिकित्सकीय आपात स्थिति की संभावनाएं भी स्थायी होती नजर आ रही हैं. ऐसी खबरे हैं कि वायरस की दर्जन भर प्रजातियां हमेशा रहने वाली हैं. सामूहिक प्रतिरोध विकसित होने की संभावना नहीं दिख रही.

नाइनन ध्यान दिलाते हैं कि अपेक्षाकृत खुले समाजों के अधिनायकवादी नेता लोगों पर निगरानी के लिए नई तकनीक हासिल करने की इच्छा रखते हैं.

लोकतंत्र और उदारवाद खतरे में है. बड़े कारोबारी घरानों का मजबूत होता शिकंजा भी चिंता का विषय है. वैश्विक स्तर पर शक्ति संतुलन में आ रहे बदलाव की चर्चा करते हुए लेखक का कहना है कि अमेरिका अब चीन के उभार को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है. चीन क्षेत्रीय वर्चस्व चाहता है और अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती देना चाहता है. इससे सैन्य संघर्ष की आशंका बढ़ गयी है.

जर्मनी का उभार प्रथम विश्वयुद्ध का कारण था तो रूस-जापान युद्ध जापान के उभार का सबूत. बढ़ती असमानता भविष्य की स्थिरता के लिए खतरा हैं. लेखक याद दिलाते हैं कि विंस्टन चर्चिल ने खदान कर्मियों के लिए 8 घंटे का काम, न्यूनतम वेतन और भोजनावकाश का अधिकार इसलिए नहीं दिलाया था कि वे वामपंथी थे. बल्कि, मौजूदा व्यवस्था को बचाए रखने के लिए यह उनकी पेशकश थी. लेखक मानते हैं कि आज एक बार फिर लोकतंत्र और संस्थानों को बचाने के लिए वैसी ही पेशकश की आवश्यकता है.

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दानिश की मौत पर चुप क्यों रहे पीएम?

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि दानिश सिद्दीकी की मौत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी निराश करने वाली है. घटना की निन्दा करते हुए सरकार की ओर से सूचना और प्रसारण मंत्री का ट्वीट और विदेश सचिव का बयान सामने आया है. फिर भी, हर अहम घटना पर सबसे पहले ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री दानिश के मामले में चुप कैसे रह गये?

लेखक का कहना है कि निश्चित रूप से यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है कि कब किस घटना पर वे बोलें या चुप रहें लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वे देश के प्रधानमंत्री हैं. अफगानिस्तान में दानिश सिद्दीकी की हत्या के बाद अफगानिस्तान के राष्ट्रपति और यूएन के महासचिव ने तत्काल इसकी निन्दा की. दुनिया भर के अखबारों ने इस घटना को प्रमुखता से छापा.

दानिश 2018 में प्रतिष्ठित पुलित्जर सम्मान पा चुके थे. उन्होंने रोहिंग्याओं के बीच रहकर उनकी तस्वीरें दुनिया के सामने लायीं. लेखक यह भी याद दिलाते हैं कि कोरोना की दूसरी लहर में मौत को उजागर करती तस्वीरों के कारण भी दानिश याद किए जाएंगे. लेखक सवाल पूछते हैं कि अगर दानिश ने होली मिलन, बनारस की आरती या कन्याकुमारी के सूर्यास्त की तस्वीरें खींचते तब क्या प्रधानमंत्री उनके लिए ट्वीट करते? उनकी पार्टी के लोग, समर्थक भले ही सवाल उठाएं लेकिन करोड़ों लोग दानिश के साथ हैं. क्या उनकी चिंता नहीं की जानी चाहिए? एक और सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या प्रधानमंत्री इसलिए चुप हैं कि दानिश मुसलमान थे? लेखक पूछते हैं कि अगर पुलित्जर विजेता कोई देवेंद्र शर्मा होते और तालिबान के हाथों मारे गये होते तो क्या बीजेपी ऐसी मौत को नजरअंदाज कर देती?

अखबारों पर छापों से कुछ भी हासिल न होगा

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जब शासक सत्य से डरने लगते हैं तो अक्सर असत्य का सहारा लेते है. एक अखबार ने कोविड की दूसरी लहर में सत्य पर रोशनी डालने का सबसे ज्यादा प्रयास किया, तो उनके दफ्तर में पहुंच गये टैक्स वाले. कई छोटे-मोटे मीडिया वालों के साथ भी ऐसा ही हुआ. स्पष्ट संदेश है कि सत्य वही है जो सरकार कहे. दुनिया को भारत में कोविड आंकड़ों पर अब दुनिया को शक होने लगा है.

हॉवर्ड विश्वविद्यालय ने भारत में कोविड से 4 करोड़ लोगों की मौत का अनुमान लगाया है. वहीं भारत सरकार की तरफ से जवाब यही है कि सब झूठ है और छवि खराब करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश चल रही है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि कई भक्त कहने लगे हैं कि साजिश हिन्दुओं के खिलाफ हो रही है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि कोविड से सिर्फ हिन्दू क्यों मरे, मुसलमान क्यों नहीं?

जब यह बात उजागर हुई कि डिजिटल जासूसी ऐप के जरिए जाने-माने भारतीय पत्रकारों और दूसरी हस्तियों के फोन हैक किए गये हैं तो गृहमंत्री ने फिर से दोष तथाकथित अंतरराष्ट्रीय साजिश पर डाला. संसद के सत्र से एक दिन पहले खुलासे होने को वजह बताया गया. अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कहने लगे हैं कि विपक्ष के ‘झूठे’ प्रचार का जवाब देना है. लोगों को समझाना है कि सबकुछ ठीक चल रहा है. लेखक कहती हैं कि अब यह मान लेना पड़ेगा कि न ऑक्सीजन की कोई कमी रही, न ज्यादा लोग मरे, न गंगाजी के किनारे लाशें दफनाई गयी थीं और न गांवों में कोविड फैला था.

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सरकार उड़ते घोड़े पर सवार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में मंत्री पद की शपथ लेते समय सच कहने और पूर्ण रूप से सच कहने के साथ-साथ सच के सिवाय कुछ नहीं कहने के वादे की याद दिलाते हैं. वे इस पर सवाल भी उठाते हैं और कहते हैं कि सच के पचासों रंग होते हैं. नये मंत्री ने भी तब सुविधानुसार सच का चुनाव किया जब पेगासस का रहस्योद्घाटन सामने आया. पेगासस इजराइल के एनएसओ समूह का सॉफ्टवेयर है जो अब भारत सरकार की सेवा कर रहा है. जरूरत पड़ने पर यह किसी की गिरफ्तारी के लिए सरकार की शक्ति बन सकता है.

चिदंबरम ने कुछ सवालों के जरिए केंद्र सरकार की ओर से किए जा रहे अपने बचाव को सामने रखते हुए बताते हैं कि मंत्री ने एनएसओ समूह के खंडन का भी हवाला दिया है. वे कहते हैं,

ऐसी सेवाएं बाजार में किसी के लिए भी, कहीं भी और किसी भी वक्त उपलब्ध हैं और पूरी दुनिया मेंस रकारी एजेंसियो और निजी कंपनियों द्वारा इस्तमाल की जाती हैं.

फ्रांस और जर्मनी में पेगासस से जुड़े मामलों की जांच हो रही है. लेखक को आशंका है कि जासूसी पर पूछे जाने वाले सवालों को राष्ट्र विरोधी, विदेशी ताकतें और वाम संगठनों की अंतरराष्ट्रीय साजिश बताया जा सकता है. जासूसी को देशभक्ति के कर्त्तव्य तक लाया जा सकता है. यहां तक कि निजता के अधिकार को भी खत्म किया जा सकता है. तब भारत को आतंक का राज्य बनने से कौन रोक सकता है?

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खतरे में है व्यक्तिगत और राजनीतिक आजादी

गौतम भाटिया ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि भारत में पहला सर्वेक्षण 1951 में हुआ था जिसका मकसद सरकार को योजनाएं और नीतियों के निर्माण में सहयोग करना था. 70 साल बाद यही तरीका सामूहिक रूप से तकनीकी निगरानी में बदल चुका है. हालिया पेगासस स्पाइवेयर मामला नये किस्म का सर्वेक्षण है जिसमें सरकार ने कथित रूप से कई एक्टिविस्ट, पत्रकार और विपक्षी नेताओँ समेत कई अन्य लोगों की कथित तौर पर जासूसी की है. लेखक ने व्यक्तिगत और राजनीतिक आजादी के खतरे में पड़ जाने की ओर लोगों का ध्यान दिलाया है.

लेखक बताते हैं कि 60 के दशक में एक व्यक्ति से निजी स्वभाव और जिन्दगी के बारे में पूछा जाना भी प्रेस काउंसिल में विचार का विषय हो जा करता था. आज स्थिति बदल चुकी है. सरकार, निजी संस्थान और सोशल मीडिया इस स्थिति में आ चुके हैं कि वे ओपिनियन को प्रभावित कर सकें. यहां तक कि वे हमारी जिन्दगी की दिशा भी बदल दे सकते हैं. आप कौन हैं, क्या पढ़ते हैं, कैसे वोट करते हैं, क्या काम करते हैं, क्या पढ़ते हैं, किसे वोट करते हैं, कहां काम करते हैं, आपके मित्र क्या हैं जैसे सवालों के जवाब अब छिपे हुए नहीं रह गये हैं. टैक्स फॉर्म, आधार कार्ड, बैंक और क्रेडिट स्टेटमेंट से भी बहुत कुछ पता चल जाता है.

तकनीकी कंपनियां आपसे जुड़े डाटा का इस्तेमैल करती हैं. डाटा वरदान है अगर इसका सही इस्तेमाल किया जाए और यह आम लोगों के लिए परेशानी का सबब है अगर इसका दुरुपयोग किया जाता है. जनहित में डाटा के उपयोग नहीं होने पाने का कुव्यवस्था और दिशाहीनता से बड़ा संबंध है. एटोमिक पावर का इस्तेमाल ऊर्जा के लिए भी हो सकता है और विध्वंस के लिए भी. पेगासस ने बड़ी संख्या में भारतीयों को अपना शिकार बनाया है. आने वाले समय में यह ख़तरा और अधिक गंभीर होने वाला है.

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सेना में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना जरूरी

हिंदुस्तान टाइम्स में ललिता पनिक्कर लिखती है कि सशस्त्र सेनाओं में, खासकर थल सेना में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है. केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान यह राय दी है कि वह एनडीए जैसी संस्थानों में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ नहीं है. अगर वास्तव में ऐसा संभव होता है तो इससे तस्वीर बदल जाएगी.

पनिक्कर बताती हैं कि 14 लाख की इंडियन आर्मी में महिलाएं 0.56 प्रतिशत हैं. एअर फोर्स में यह आंकड़ा 1.08 प्रतिशत और नौसेना में 6.5 प्रतिशत है. कई सैन्य अफसर सिद्धांत रूप में सैन्य बलों में महिलाओं के आने के पक्ष में हैं और यहां तक कि युद्ध में भी उनकी भूमिका चाहते है लेकिन वे ऐसे उदाहरण भी रखते हैं कि ऐसा करना संभव नहीं है. नेतृत्व के तौर पर महिलाओं की स्वीकार्यता, यौन उत्पीड़न की संभावना, शारीरिक रूप से फिट रहने की सीमा और बुनियादी सुविधाओं की कमी जैसे सोने, नहाने-धोने के लिए अलग व्यवस्था का नहीं होने को उदाहरण के तौर पर पेस किया जाता है.

रिटायर्ड कैप्टन याशिका हतवाल त्यागी ऐसे तर्कों को खारिज कर देती हैं. अपने अनुभव से वह बताती हैं कि महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार करने में पुरुषों को कोई दिक्कत नहीं है. वह बुनियादी ढांचे में सुधार की जरूरत पर जोर देती हैं. पूर्व सेना प्रमुख वीपी मलिक बदलाव चाहते हैं और उनके हिसाब से यह धीरे-धीरे हो रहा है. युद्ध की भूमिका में महिलाएं आएं इसके लिए परिस्थिति तैयार की जानी चाहिए.

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