पेगासस प्रोजेक्ट (Pegasus Project) के जरिए देश-दुनिया में होने वाली जासूसी में आए दिन नए नाम उजागर हो रहे हैं. पेगासस स्नूपिंग (Pegasus snooping) की लागत करोड़ों में मानी जा रही है, लेकिन क्या हो यदि आपसे यह कहा जाए कि पेगासस स्पाईवेयर जैसे ही घातक परिणाम कुछ हजारों में प्राप्त किए जा सकते हैं. इसे ‘देसी पेगासस' भी कह सकते हैं और संभव है कि इसका भारत में बड़े पैमाने पर उपयोग में हो रहा हो.
पेरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर से स्पाईवेयर के डैशबोर्ड तक
क्या आपने कभी पेरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर्स के विज्ञापन देखे हैं? इनके बारे में कहा यही जाता है कि इससे माता-पिता अपने बच्चे की सहमति के बिना उसकी ऑनलाइन एक्टिविटी पर निगरानी रख सकते हैं, लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना है कि इसकी भूमिका तब बदल जाती है ये सॉफ्टवेयर चंद हजार में प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसियों या पुलिस के लग जाता है.
मामूली कीमत पर मिलने वाले इस सॉफ्टवेयर से एकदम पेगासस की तरह किसी के फोन पर पूरी तरह से नजर रखी सकती है. कॉल लॉग से लेकर टेस्ट मैसेज, ब्राउजिंग हिस्ट्री, रिकॉर्डिंग और इनकमिंग व आउटगोइंग कॉल्स को सुनने के साथ-साथ रिमोटली माइक और कैमरा भी नियंत्रित किया जा सकता है. इसके अलावा दूर बैठकर किसी के आस-पास के वीडियो और वाइस एक्टिविटी को भी मॉनीटर किया जा सकता है.
एंड्रॉयड के लिए कुछ विशेष स्पाईवेयर के लाइट वर्जन महज 75 डॉलर यानी लगभग 5582 की कीमत पर सालभर के लिए मिल जाते हैं. वहीं इसी स्पाईवेयर का यदि प्रीमियम वर्जन खरीदना हो तो आपको दोगुनी कीमत यानी 150 डॉलर (लगभग 11164 रुपये) चुकानी होगी.
पेगासस और डोमेस्टिक स्पाईवेयर में अंतर
पेगासस और 'देसी पेगासस' यानी घरेलू स्पाईवेयर के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि पेगासस को मालवेयर के जरिए प्लांट किया जा सकता है. जबकि घरेलू स्पाईवेयर में यह संभव नहीं है. बाजार में बिकने वाले पेरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर या डोमेस्टिक स्पाईवेयर के लिए मोबाइल फोन या डिवाइस तक पहुंच जरूरी होती है.
इजराइल की साइबरआर्म फर्म NSO ने पेगासस स्पाईवेयर को डेवलप किया है. इस फर्म का दावा है कि वो इस स्पाईवेयर की सर्विस केवल सरकारों को ही प्रदान करती है. वहीं अगर बात घरेलू स्पाईवेयर यानी पेरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर की करें तो इसके लिए कोई चेक-बैलेंस यानी जांच-पड़ताल की जरूरत नहीं होती है. ये सबके लिए उपलब्ध है, कोई भी व्यक्तिगत तौर पर इसे इस्तेमाल कर सकता है.
पेगासस और डोमेस्टिक स्पाईवेयर के बीच तीसरा बड़ा अंतर कीमत का है. जहां डोमेस्टिक स्पाईवेयर्स के जरिए पेरेंटल कंट्रोल 5 हजार से 15 हजार के बीच वार्षिक सब्सक्रिप्शन पर मिल जाता है जब पेगासस की कीमत करोड़ों में है. पेगासस फिलहाल पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं है. यह काफी इफेक्टिव है लेकिन आम आदमी की जेब से बाहर है.
पेरेंटल कंट्रोल के नाम पर दुरुपयोग
साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट रक्षित टंडन कहते हैं कि “पेरेंटल कंट्रोल के नाम पर इन स्पाईवेयर्स का इस्तेमाल रिश्तों में तल्खी, बिजनेस और कॉर्पोरेट में प्रतिद्वंद्विता जैसे मामलों में जासूसी करने के लिए किया जा रहा है.” वे आगे कहते हैं कि “डिटेक्टिव एजेंसियां पहले जमीन पर जासूस उतार कर काम करती थीं लेकिन अब इन स्पाईवेयर का इस्तेमाल करती हैं.”
द क्विंट को पुलिस के सोर्स पता चला है कि डिपार्टमेंट ये स्पाईवेयर्स उन संदिग्धों के लिए अनधिकृत तौर पर इस्तेमाल करता है, जिनकी केस की जांच चल रही होती है. सोर्स ने कहा कि “जब हम संदिग्धों को पूछताछ के लिए बुलाते हैं तब उनके मोबाइल तक पहुंचने का प्रयास करते हैं. एक बार अगर बग (Bug) प्लांट हो गया तो, हम कहीं से भी उसकी मोबाइल एक्टिविटी को मॉनिटर कर सकते हैं.”
सोर्स ने यह भी स्वीकार किया कि वे इस तरीके से जुटाई गई जानकारी का उपयोग केवल कार्रवाई से जुड़ी खुफिया जानकारी जुटाने के लिए करते हैं या संदिग्ध के अगले कदम का पता लगाने के लिए. लेकिन अदालतों में इस तरह की जानकारी को साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जाता है.
डेवलपर्स को पकड़ पाना है मुश्किल
एक्सपर्ट्स का मानना है कि एनएसओ द्वारा विकसित स्पाईवेयर पेगासस के उलट घरेलू स्पाईवेयर का उपयोग बड़े पैमाने पर होता है. लेकिन उनके डेवलपर्स अक्सर गुमनाम रहते हैं.
रक्षित कहते हैं कि "भारत में ऐसी कोई फर्म नहीं है जो यह दावा करती हो कि वह जासूसी के लिए स्पाईवेयर डेवलप कर रही है. ये चीजें तब तक पब्लिक डोमेन में नहीं आती हैं जबतक कि कोई व्हिसिल ब्लोअर इसे खुद ही उजागर न करे."
वे आगे कहते हैं कि "हैकिंग में दो टर्म यूज होते हैं ऑफेंसिव एंड डिफेंसिव यानी आक्रामक और रक्षात्मक हैकिंग. ये स्पाईवेयर आक्रामक हैकिंग का हिस्सा है जो आने वाली पीढ़ी के लिए साइबर युद्ध का टूल है. इसके पीछे कौन सी एजेंसी या फर्म है और यह कहां तैनात हैं इसका पता लगाना मुश्किल है."
पेरेंटल कंट्रोल स्पाईवेयर्स से जुड़ी अधिकांश ऑनलाइन वेबसाइटें जो प्रोडक्ट की विशेषताओं के बारे में व्यापक जानकारी प्रदान करती हैं, उनके पास इनके डेवलपर्स या इनकी मूल कंपनी के ठिकाने के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है.
भारत का प्राइवेसी लॉ क्या कहता है?
2017 में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए देश की शीर्ष अदालत ने यह माना था कि राइट टू प्राइवेसी यानी निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, क्योंकि यह जीवन के अधिकार से जुड़ा है. सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए कहा था कि “"निजता का अधिकार जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है. जो संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित है.”
भारत में सरकारी एजेंसियों द्वारा निगरानी कानूनन जायज है. भारतीय टेलीग्राफ एक्ट, 1885 और सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम, 2000 में मौजूद प्रावधान केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों को फोन कॉल, ईमेल ,व्हाट्सएप मैसेज आदि सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन को सुनने की अनुमति देते हैं.
भारतीय टेलीग्राफ एक्ट,1885 की धारा 5(2) के अंतर्गत केंद्र और राज्य की एजेंसियां किसी भी "पब्लिक इमरजेंसी की घटना या पब्लिक सेफ्टी के हित में" इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन की निगरानी कर सकती है.
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