2001 में 26 सितंबर का दिन था, जब रातों-रात स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) पर बैन लगाया गया था. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने इसे गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम एक्ट, 1967 (यूएपीए) के तहत "गैरकानूनी संगठन" घोषित किया था.
अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली सरकार ने बुधवार 28 सितंबर, 2022 को संशोधित यूएपीए के तहत पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और उससे जुड़े संगठनों पर प्रतिबंध लगाया है, तो यह जानना दिलचस्प होगा कि वाजपेयी के दौर में सिमी पर प्रतिबंध का क्या असर हुआ था. सिमी मुस्लिम स्टूडेंट्स का एक कट्टरपंथी संगठन था जिस पर आतंकवाद का आरोप लगाया गया था.
क्या पीएफआई की नियति भी यही है और आखिरकार, उसका भी खात्मा हो जाएगा?
जबकि पीएफआई ने ऐलान किया है कि उसने उसी दिन खुद को भंग कर दिया था. जिस दिन उस पर बैन लगाया गया था, यह देखा जाना बाकी है कि क्या संगठन को लगातार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा?
यह प्रतिबंध हर कुछ सालों बाद बढ़ाया जाएगा जैसे सिमी के साथ किया गया था. ऐसा करने के लिए केंद्र को पीएफआई के संबंध में लगातार गैरमुनासिब सामान ढूंढना होगा और यह साबित करना होगा कि यह संगठन मौजूद है और ऐसा गैरकानूनी काम कर रहा है जो भारत की अखंडता, सुरक्षा और संप्रभुता के लिए नुकसानदेह है.
दो प्रतिबंध: 2001 में सिमी बनाम 2022 में पीएफआई
गृह मंत्रालय की गजट अधिसूचना के अनुसार, पीएफआई को जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश और इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) सहित आतंकी संगठनों के कथित संबंधों के कारण पांच सालों की अवधि के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया है.
केंद्र ने कहा कि पीएफआई के कुछ संस्थापक सदस्य प्रतिबंधित सिमी से थे. केंद्र ने यह भी दावा किया कि पीएफआई केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में लोगों की हत्या और हिंसक गतिविधियों में शामिल था. संगठन पर आतंकवादी और अवैध गतिविधियों की फंडिंग करने और मनी लॉन्ड्रिंग करने का भी आरोप लगाया गया है.
बहुत कम राजनीतिक दलों और नेताओं ने पीएफआई पर प्रतिबंध का विरोध किया है.
2001 में सिमी पर प्रतिबंध से ऐन पहले, अमेरिका में 26/11 के आतंकवादी हमलों के बाद दुनिया भर में अल कायदा सहित आतंकवादी संगठनों पर नकेल कसने के लिए कमर कसी जा रही थी.
इस संदर्भ में जब भारत में केंद्र सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाया, तो कई राजनीतिक दलों ने विरोध जताया. कई ने इस फैसले का समर्थन किया.
पीएफआई की तरह सिमी पर भी "भारत की शांति, अखंडता और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए हानिकारक" होने का आरोप लगाया गया था. संगठन, जिसका सदस्य बनने के लिए जरूरी था कि उसकी उम्र 30 साल से कम हो, उस पर आरोप लगा था कि उसके "अल कायदा, और खाड़ी, पश्चिम एशिया, अमेरिका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में दूसरे आतंकवादी संगठनों के साथ रिश्ते" थे.
सिमी पर यह आरोप लगाया गया था कि वह इस्लामी आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लामी आस्था का योद्धा मानता था.
संगठन पर एक अन्य आतंकवादी मौलाना मजूद अजहर की तारीफ करने का आरोप लगाया गया था. जिस तरह पीएफआई के खिलाफ कार्रवाई की गई है, जिसमें 100 से अधिक सदस्यों और संगठन के नेताओं को देशव्यापी अभियानों के तहत एनआईए ने गिरफ्तार किया है, उसी तरह प्रतिबंध के बाद सिमी के 200 से अधिक सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था. लेकिन पीएफआई से अलग, सिमी ने प्रतिबंध के बाद खुद को भंग नहीं किया था.
प्रतिबंध ने सिमी को हिलाकर रख दिया था. उसके बाद जो हुआ, उसके चलते सिमी खत्म हो गया. 2001 में उस प्रतिबंध लगा, और फिर 2003, 2006, 2008 और 2010 में उस प्रतिबंध को रीन्यू किया गया.
अब जबकि पीएफआई पर पांच साल की अवधि के लिए प्रतिबंध लगाया गया है, तो क्या 2027 में इस बैन को रीन्यू किया जाएगा? अगर केंद्र ऐसा करना चाहता है तो उसे फिर से संगठन और उसके सहयोगियों के खिलाफ एक मजबूत मामला तैयार करना होगा.
ध्यान देने की बात यह है कि पीएफआई की राजनीतिक शाखा, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) अभी भी काम कर रही है और उस पर बैन नहीं है.
क्या पीएफआई के मामले में केंद्र सरकार सिमी मॉडल को अपनाएगी? यहां जानिए कि प्रतिबंध के बाद सिमी का क्या हुआ, जिसकी स्थापना 1977 में हुई थी.
क्या आतंकवाद से जुड़ी गतिविधियों के 'सबूत' सिमी की तरह पीएफआई की किस्मत को बदल देंगे?
28 सितंबर को पीएफआई के केरल राज्य शाखा के महासचिव ए अब्दुल सत्तार ने घोषणा की कि उनका संगठन देश भर में भंग हो गया है. सत्तार उन नेताओं में से एक हैं, जिन्हें अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया था. हालांकि इस घोषणा के कुछ घंटों के बाद सत्तार को राज्य पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और एनआईए को सौंप दिया.
क्या पीएफआई सदस्यों को प्रतिबंध और कथित रूप से संगठन के भंग होने के बाद भी लगातार गिरफ्तारी और मुकदमेबाजी का सामना करना पड़ेगा? ऐसा मुमकिन है, जैसा सिमी का इतिहास दिखाता है.
हर बार प्रतिबंध की अवधि खत्म होने पर एक ट्रिब्यूनल उन नए सबूतों को गौर करती है, जिसे जांच एजेंसी, गृह मंत्रालय और केंद्र सरकार प्रतिबंध को आगे बढ़ाने के लिए पेश करते हैं. सिमी के मामले में ट्रिब्यूनल ने 2003, 2006, 2008 और 2010 में केंद्र के सबूतों को परखा, जिन्हें केंद्र सरकार ने बैन को आगे बढ़ाने की वजह बताया था.
इनमें से हर उदाहरण में केंद्र सरकार और राज्य पुलिस शाखा सहित उनकी जांच एजेंसियों ने दावा किया था कि सिमी के पूर्व सदस्य देशद्रोही और आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे. कैसे?
ऐसा सिमी के पूर्व सदस्यों के हर काम के जरिए किया गया- उनका सार्वजनिक बैठक करना, पोस्टर चिपकाना, फिल्म की स्क्रीनिंग करना. यह सब जांच के दायरे में आ गया.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक रिसर्च स्कॉलर मयूर सुरेश और सिमी के वकील जवाहर राजा के मुताबिक, केंद्र सरकार ‘नए सबूत’ देती रही, जिनमें से ज्यादातर पुख्ता नहीं थे. उनके निष्कर्षों को 'द केस अगेंस्ट द स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया' नाम के एक रिसर्च पेपर में पेश किया गया था.
उदाहरण के लिए सिमी के पूर्व सदस्यों पर मौखिक रूप से हिंदू धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया गया था. सिमी के दो पूर्व सदस्यों पर जामिया मिलिया इस्लामिया में पोस्टर चिपकाने का आरोप लगाया गया था, जिस पर संगठन का नाम लिखा हुआ था.
यूएपीए के तहत प्रतिबंधित संगठन का हिस्सा होना दंडनीय है. इसलिए आपराधिक मामलों में गिरफ्तार किए गए और सिमी के सदस्य होने का दावा करने वाले लोगों के इकबालिया बयान भी ट्रिब्यूनल के सामने पेश किए गए ताकि यह साबित हो सके कि सिमी अभी भी सक्रिय है.
प्रतिबंध के बाद सिमी को आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के व्यापक आरोपों का भी सामना करना पड़ा. उदाहरण के लिए संगठन के पूर्व सदस्यों पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने ओसामा बिन लादेन के वीडियो क्लिप को उन समूहों के सामने चलाया गया, जिन्हें इसका संदेह नहीं था. सिमी पर सरकार और सैन्य प्रतिष्ठानों पर बमबारी की योजना बनाने का आरोप लगाया गया था.
यह सूची लंबी है, और 2008 की ट्रिब्यूनल के अलावा, किसी दूसरी ट्रिब्यूनल ने उन सबूतों पर सवाल खड़े नहीं किए जो केंद्र सरकार ने पेश किए.
इस बीच प्रतिबंध के बाद पीएफआई के सदस्यों और उसके सहयोगी संगठनों के सदस्यों की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जाएगी, जबकि पीएफआई की राजनीतिक शाखा एसडीपीआई प्रतिबंधित नहीं है, इसके सदस्य भी जांच के दायरे में होंगे.
ऐसा कुछ भी, जो इस बात की तरफ इशारा करता है कि संगठन का काम जारी है या वह नया रूप धर रहा है, सबूत में तब्दील हो सकता है जो बताएगा कि उस पर लगा प्रतिबंध बढ़ा दिया जाए. पीएफआई के एक पूर्व सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर द क्विंट को बताया, “गिरफ्तारियां जारी रह सकती हैं. हम लगातार उत्पीड़न की उम्मीद कर रहे हैं.”
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