1993 के दौरान एक उमस भरी शाम को केरल के कोझीकोड में एक छोटे से संगठन- नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट (NDF) ने एक सार्वजनिक आयोजन किया, जिसमें भारी भीड़ जुटी. जो लोग जमा हुए, उनमें हजारों मुस्लिम नौजवान शामिल थे. इस आयोजन का नाम था- 'पूरथा निशेदथिनेथिरे पौरवकाशा रैली' जिसका हिंदी अर्थ होता है, नागरिकता से इनकार के विरोध में नागरिक अधिकार रैली. इस आयोजन में गांधीवादी और जाने-माने वक्ता सुकुमार अजीकोड भी शामिल थे.
दरअसल मुंबई, महाराष्ट्र के एक सिविक पोल में मुसलमानों को वोट देने से रोकने के लिए वोटर्स लिस्ट में छेड़छाड़ करने की कोशिश की जा रही थी. यह आयोजन उसके विरोध में किया गया था.
“विरोध बहुत बड़ा था लेकिन किसी को नहीं पता था कि उनका नेता कौन था और वे लोग किसकी अगुवाई में यह कार्यक्रम कर रहे हैं. NDF रहस्यमय था और आज तक यह रहस्य बना हुआ है,” वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक पर्यवेक्षक सी. दाऊद याद करते हैं जो उन दिनों एक युवा थे और दूर से इस आयोजन को उत्सुकता से देख रहे थे.
केंद्र सरकार ने जिस PFI यानी पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया पर पांच साल का बैन लगाया है, NDF उसी इस्लामिक संगठन का मूल संगठन है. अब PFI ने संगठन को भंग करने का ऐलान कर दिया है.
22 अगस्त को NIA ने देश के 15 राज्यों में 93 जगहों पर छापेमारी की और PFI के लोगों को गिरफ्तार किया. क्या यह एक मुस्लिम संगठन के खिलाफ कार्रवाई है जो अल्पसंख्यकों और ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है या यह एक हिंसक, आतंकवाद से जुड़े संगठन को बेअसर करने की एक सोची-समझी कोशिश है? और क्या उस संगठन पर असल में प्रतिबंध लगाया जा सकता है जिसका इतिहास तीन दशक पुराना है?
मंडल, मस्जिद और पॉपुलर फ्रंट का 'प्रतिरोध'
आधुनिक भारत की दो बड़ी घटनाओं ने PFI की शुरुआत में बड़ा योगदान दिया. वीपी सिंह की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने 1990 में सरकारी सेवाओं में अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को लागू करने का फैसला किया और 1992 में हिंदुवादी संगठनों ने बाबरी मस्जिद को तोड़ा.
एक तरफ मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत 1993 में आरक्षण लागू किया गया और उसने जातिगत भेदभाव के विरोध का माहौल तैयार किया. दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद विध्वंस ने भारत में मुसलमानों के बीच गहरा रोष पैदा कर दिया जो एक नए नेतृत्व के लिए तैयार थे.
1992 में बना और 1993 में औपचारिक रूप से घोषित NDF काफी हद तक इस माहौल में सटीक बैठता था. स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के पूर्व सदस्यों ने इस संगठन को शुरू किया था जिनकी कोशिश थी कि वे केरल के पिछड़े वर्गों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों का गठबंधन बनाएं.
संगठन ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद केरल में मुसलमानों की चिंताओं को हवा दी. उसके नेताओं ने खुद कहा, कि वह अयोध्या में विवादित स्थल पर बाबरी मस्जिद फिर से बनाने के लिए 11.5 लाख रुपए जुटा सकते थे, वह भी जुमे की नमाज के बाद मस्जिद की सभाओं से सिर्फ 15 मिनट में.
इस तरह संगठन मानवाधिकार उल्लंघन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने लगा. 1997 में कोझीकोड में उसने एक बड़ा मानवाधिकार सम्मेलन आयोजित किया जिसमें कई दूसरे छोटे समूहों के कार्यकर्ताओं ने भी शिरकत की.
हालांकि, NDF उसी इतिहास से जन्मा था जिसे PFI अब भी ‘प्रतिरोध’ कहता है, बेशक वह हिंसक तरीके से ही किया गया. वह इतिहास, जिसका NIA जिक्र करती है.
हिंसक इतिहास और NIA के दावे
NIA ने PFI पर आरोप लगाया है कि वह आतंकवादी समूहों को फंड करता है और कैडर को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देता है ताकि वे लोग आतंक फैला सकें.
22 सितंबर को एक प्रेस विज्ञप्ति में NIA ने दावा किया, "PFI ने कई आपराधिक हिंसक काम किए हैं जैसे कॉलेज के प्रोफेसर का हाथ काटना, अन्य धर्मों को मानने वाले संगठनों से जुड़े व्यक्तियों की बेरहम हत्याएं, मशहूर लोगों को निशाना बनाने के लिए विस्फोटक जमा करना, इस्लामिक स्टेट को मदद देना, सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करना. इनसे लोगों के दिलो-दिमाग पर बहुत असर हुआ है.”
हालांकि NIA ने अभी तक अपने दावों का समर्थन करने वाला कोई ठोस सबूत नहीं दिया है. यूं NDF की शुरुआत मुस्लिम सांस्कृतिक केंद्र (एमसीसी) से हुई थी. यहां कलारी या कोझीकोड के नाडापुरम शहर के मार्शल आर्ट प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जाते थे. जैसा कि उसके संस्थापक ई अबूबकर ने अपनी जीवनी शिशिरा संध्याकाल, ग्रीष्मा मध्यानंगल में बताया है. फिलहाल NIA ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है.
अबूबकर ने अपनी किताब में लिखा है कि प्रतिरोध के लिए इसकी स्थापना की गई थी, वह भी मुसलमानों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अत्याचारों के खिलाफ. कोझीकोड के नादापुरम में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं का भी दमन किया जा रहा था. इसीलिए कुछ लोग अब भी NDF को नाडापुरम रक्षा मोर्चा कहा करते हैं.
NDF अपने शुरुआती चरण में भी, पॉपुलर फ्रंट की लोकप्रिय फिलॉसफी- प्रतिरोधम अपराधमल्ला में विश्वास करता था जिसका हिंदी में अर्थ है, प्रतिरोध कोई अपराध नहीं है. 2006 में NDF तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और मणिपुर के ऐसे ही दूसरे संगठनों में जा मिला, और सब मिलकर PFI बन गए. कुल मिलाकर PFI अब भी "सामुदायिक प्रतिरोध" की बात करता है.
NDF पर 2003 में हिंसक मारडू दंगों को अंजाम देने का आरोप लगाया गया था जिसमें आठ लोग मारे गए थे.
PFI पर बाद में 2010 में एक कॉलेज के प्रोफेसर टीजे जोसेफ पर जानलेवा हमला करने का आरोप लगाया गया था. जोसेफ ने इम्तिहान में ऐसा सवाल बनाया था जिसके लिए माना जाता है कि उस सवाल से पैगंबर मोहम्मद का अपमान होता था. 2019 में PFI के स्टूडेंट विंग कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया पर आरोप लगा कि उसने एर्नाकुलम के महाराजा कॉलेज में सीपीएम के स्टूडेंट विंग एसएफआई के नेता और आदिवासी स्टूडेंट अभिमन्यु की हत्या की.
"हिंसा पर कोई भी समुदाय अपना बचाव करने के लिए विरोध करता है. PFI उन लोगों पर हमला नहीं करता जो मासूम होते हैं. यह अन्याय नहीं होने देगा. हम हिंसक संगठन नहीं हैं.” एर्नाकुलम जिले में PFI नेता केएम अराफा ने क्विंट से कहा था.
PFI के उस्मान हामिद, जो टेलीविजन बहस में पार्टी प्रवक्ता के रूप में दिखाई देते थे, ने क्विंट से कहा था, “अगर आप केरल में राजनीतिक हिंसा के इतिहास को देखें तो PFI पर दूसरी सियासी पार्टियों के मुकाबले कम आरोप लगाए जाते हैं. हिंसा में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कांग्रेस भी शामिल हैं. फिर हमें केरल का अकेला हिंसक संगठन क्यों कहा गया है?”
लेकिन कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार, 2006 में PFI के गठन के बाद से बहुत से मुसलमानों ने NDF को स्वीकार कर लिया और वे सामूहिक रूप से यह मानने से इनकार करने लगे कि यह समूह गैर कानूनी काम करता है.
PFI, दलितों की राजनीति, और सार्वजनिक अस्वीकृति
नेशनल कनफेडरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स ऑर्गेनाइजेशन (एनसीएचआरओ) के साथ काम करने वाले एक्टिविस्ट रेनी आयलिन का कहना है, “अगर आप PFI के सदस्यों को देखें, तो उनमें से ज्यादातर सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के मुसलमान होंगे जो वर्ग सरंचना में बहुत नीचे हैं. आपको पता चलेगा कि ज्यादातर लोग वर्किंग क्लास के हैं.” एनसीएचआरओ में PFI भी शामिल है.
हालांकि संगठन का शीर्ष नेतृत्व प्रभुत्वशाली जातियों के लोगों ने संभाला, जैसा कि पिछड़ी जातियों के मुस्लिम, जिनमें पसमंदा मुस्लिम भी शामिल हैं, आरोप लगाते हैं.
सिर्फ एक चीज़ पार्टी की संरचना को विविध बनाती है. 1990 के दशक में अपनी शुरुआत के समय से NDF ने केरल दलित पैंथर्स और आदिवासी गोथरा समिति के साथ गठबंधन किया था.
एनपी चेकुट्टी, जो कि कभी तेजस अखबार के संपादक थे,का कहना है- "हालांकि NDF की नींव इस्लामी विचारधारा थी, लेकिन शुरुआत से ही उनकी सोच यह थी कि छोटे संगठनों के साथ गठबंधन किया जाए. इस परंपरा को PFI ने आगे बढ़ाया.” तेजस का संचालन और फंडिंग फिलहाल ईडी की जांच के दायरे में है.
“संगठनात्मक रूप से न तो PFI और न ही NDF के चरम वामपंथी समूहों के साथ रिश्ते थे, लेकिन के मुरली और वीएम रवुन्नी (माओवादी आंदोलन से जुड़े) जैसे लोगों को उनकी बैठकों में बुलाया जाता था. ये मुद्दों पर आधारित विरोध होते थे, पर कोई स्थायी गठबंधन नहीं किया जाता था.”एनपी चेकुट्टी
एक पूर्व नक्सली और ट्रेड यूनियन नेता ए वासु, जिनका लोकप्रिय नाम ग्रो वासु है, ने चलियार नदी को प्रदूषित करने वाले ग्वालियर रेयंस उद्योग के खिलाफ जन आंदोलन में NDF के साथ सहयोग किया था.
दूसरी ओर PFI ने केरल के मुसलमानों के विभिन्न संप्रदायों- सुन्नी, मुजाहिद और जमात-ए-इस्लामी के सदस्यों को इकट्ठा किया. सी दाऊद कहते हैं- “NDF के समय से, पॉपुलर फ्रंट ने दोहरी सदस्यता की अनुमति दी. यानी जो लोग अन्य संगठनों (मुख्य रूप से धार्मिक संगठनों) से संबंधित हैं, वे PFI में शामिल हो सकते हैं और इसके सदस्य के रूप में काम कर सकते हैं. एक तरह से वे मुसलमानों के विभिन्न संप्रदायों के धार्मिक अंतर को पाट रहे थे.” संगठन पूरे भारत में इस मॉडल को दोहराने में कामयाब रहा. इसके नेताओं का दावा है कि संगठन के सदस्य 20 राज्यों में हैं.
PFI ने दूसरे राज्यों में भी पहचान की राजनीति, उग्रवादी प्रवृत्तियों और मानवाधिकार के संघर्ष के भाव को प्रसारित कर दिया. “केरल के बाद हमारी सबसे बड़ी ताकत तमिलनाडु और कर्नाटक में है. उसके बाद हमारे पास राजस्थान और उत्तर प्रदेश आते हैं.” एर्नाकुलम में PFI नेता अराफा का कहना है. तमिलनाडु में विदुथलाई चिरुथैगल काची (वीसीके) ने PFI नेताओं की गिरफ्तारी की निंदा की है.
हालांकि मुख्यधारा के मुस्लिम संगठनों ने ऐसी कई हिंसक घटनाओं के बाद PFI की व्यापक रूप से निंदा की है, जिससे संगठन और इसकी मूल संस्था NDF जुड़ी हुई थी.
“सुन्नी और मुजाहिद संगठन पहले PFI की निंदा करते थे क्योंकि उनके समर्थक PFI में चले गए थे. उस समय मुस्लिम लीग ने भी इससे दूरी बनाई हुई थी.” एक वरिष्ठ मुस्लिम पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा. लेकिन कुल मिलाकर, मुस्लिम समुदाय ने PFI से हाथ नहीं खींचा है.
“समुदाय के बीच एक आम धारणा है कि देश में मुसलमानों पर व्यापक हमलों का विरोध किया जाना चाहिए और यह कि PFI हिंदुत्ववादी ताकतों का सामना करने के लिए पूरी तरह से मजबूत है. संगठन ने इस भावना को भुनाया है,”- पत्रकार कहते हैं.
हालांकि इस तरह की स्वीकृति अभी तक चुनावी जीत में तब्दील नहीं हुई है. PFI की राजनीतिक शाखा, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई), केरल में आईयूएमएल से बहुत पीछे है और उसने अभी तक असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन सहित किसी पार्टी को चुनौती नहीं दी है. कर्नाटक में हालांकि, एसडीपीआई लोकल बॉडीज में दाखिल हो रही है, खासकर तटीय कर्नाटक में.
PFI पर प्रतिबंध एसडीपीआई के लिए घातक साबित हो सकता है. क्या PFI के सदस्य चिंतित हैं?
क्या इस कार्रवाई से PFI खत्म हो जाएगी?
PFI निश्चित रूप से हिल गई है. उस पर प्रतिबंध लगाने से पहले उसके कई राज्य और जिला स्तरीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था. इनमें सभी तरह के सदस्य हैं. जिनकी संगठनात्मक भूमिका न के बराबर है, और जो राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं. जैसे अध्यक्ष ओएमए सलाम, इउपाध्यक्ष ईएम अब्दुल रहिमन और राष्ट्रीय सचिव अनीस अहमद. प्रो पी कोया और ई अबूबकर सहित NDF के संस्थापकों को भी गिरफ्तार किया गया.
23 सितंबर को NIA और ईडी के छापों के बाद PFI ने हड़ताल की और इस दौरान केरल राज्य सड़क परिवहन निगम की 70 बसों को फूंक दिया गया. तब सीपीएम सरकार ने भी संगठन के खिलाफ कार्रवाई की थी और मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा था कि "गुंडों" को बख्शा नहीं जाएगा.
मामले से वाकिफ एक NIA अधिकारी कहते हैं-''हालिया छापे संगठन पर सख्ती के शुरुआती संकेत हैं, खासकर दक्षिण भारत में जहां इसका प्रभाव है. हमारे पास इनके खिलाफ काफी सबूत हैं ये साबित करने के लिए कि संगठन ने अवैध काम किए हैं, आपराधिक और आतंकवादी गतिविधियां रही हैं. संगठन को मिटा दिया जाएगा''
सी दाऊद कहते हैं-“अगर आम लोग PFI को अस्वीकार करने लगें तो उसके दोबारा से अस्तित्व में आने की उम्मीद कम होगी.” "केरल में हाथ काटने का मामला केरल के इतिहास में हिंसा के सबसे बुरे मामलों में से एक है. तब से संगठन के प्रति लोगों की सहानुभूति कम हुई है. इसी से हम कुछ उम्मीद कर सकते हैं कि PFI के असली हितैषी, शायद उसके साथ नहीं. मुस्लिम संगठनों ने भी PFI पर छापों की आलोचना नहीं की है.
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