घाटा भी बढ़ा, सरकारी खर्च भी
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि घाटा बढ़ा है और सरकारी कर्ज में तेजी से इजाफा हुआ है. केंद्र और राज्यों का सरकारी कर्ज जीडीपी का 90 फीसदी के करीब है जो महामारी के पहले 70 प्रतिशत था. ब्याज का बोझ भी बढ़ रहा है जो महामारी से पहले सरकारी प्राप्तियों का 34.8 फीसदी था. चालू वित्त वर्ष के लिए बजट अनुमान के अनुसार ब्याज की हिस्सेदारी बढ़कर 40.9 फीसदी हो गयी है.
नाइनन मानते हैं कि हाल के वर्षों में राजस्व में ठहराव की एक वजह है वस्तु एवं सेवा कर (GST). जीएसटी राजस्व में जो तेजी दिखी है उसका कारण है आयात में बढ़ोतरी. न कर सुधार से अपेक्षित राजस्व में सुधार हुआ है और न ही जीडीपी में बढ़ोतरी हुई है.
टीएन नाइनन ध्यान दिलाते हैं कि बीते 10 सालों में जीडीपी में 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि कॉरपोरेशन कर से प्राप्त होने वाले राजस्व में 70 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. व्यक्तिगत आय से कर राजस्व में 230 फीसदी बढ़ोतरी का अनुमान है.
लेखक का मानना है कि राजस्व बढ़ाना जरूरी है तभी प्रमुख आर्थिक और सामाजिक लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं. राजस्व बढ़ाने के दो तरीके हैं. तेज आर्थिक वृद्धि और जीएसटी सुधारों पर पुनर्विचार के साथ-साथ कॉरपोरेट कर से जुड़ी कमी को दूर करना. सबसे बड़ा सवाल यही है कि पूंजीगत आय पर लगने वाले कर अर्जित आय पर लगने वाले कर से कम क्यों हैं. अस्तित्वविहीन संपत्ति पर कर लगाना भी एक विकल्प है.
पहले 25 साल में हमें संविधान मिला, वोट का अधिकार मिला
हिन्दुस्तान टाइम्स में करण थापर लिखते हैं कि दीक्षांत समारोह के दौरान भाषण को लोग कितनी गंभीरता से सुनते हैं उन्हें नहीं पता, लेकिन जब प्रधानमंत्री आईआईटी कानपुर में ऐसा कर रहे थे तो कम से कम एलुमिनि उनके भाषण को सुन रहे थे.
मोदी ने यह ‘तथ्य’ उजागर किया कि आजादी के बाद 25 साल में आत्मनिर्भर होने के लिए हमें जितना करना चाहिए था हमने नहीं किया. उसके बाद भी आज तक इसमें देरी होती चली गयी. देश ने बहुत समय बर्बाद कर दिया है. इस दौरान दो पीढ़ियां गुजर गयीं. अब हम दो क्षण बर्बाद करना भी सहन नहीं कर सकते.
आईआईटी कानपुर के एलुमिनि मुकुंद मावलंकर इससे सहमत नहीं हुए. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर 12 महत्वपूर्ण उपलब्धियां बतायीं जिन पर देश हमेशा गर्व करेगा.
छात्र मावलंकर की चिट्ठी के हवाले से करण थापर बताते हैं कि भारत ने खुद को संविधान दिया जिसमें मूल्य निहित हैं. यह आजादी के महज तीन साल के भीतर हुआ. अगले दो साल में पहला आम चुनाव हुआ. अमीर-गरीब, महिला-पुरुष हर वयस्क को वोट देने का अधिकार दिया. यह सब इतना आसान नहीं था. 1950 से 1964 के बीच पांच आईआईटी बने. तीन मैनेजमेंट के इंस्टीच्यूट तैयार हुए. इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस, डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन, भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर और इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन इसी दौर में बने.
मावलंकर की चिट्ठी में भाखरा नांगल डैम, हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स, ओएनजीसी, भारत हेवी इलेक्ट्रॉनिक्स और स्टील प्लांट्स के भी उल्लेख हैं और एम्स के भी. लेखक ने छात्र की चिट्ठी के हवाले से ही लिखा है कि निश्चित रूप से राष्ट्र निर्माण का काम अभी पूरा नहीं हुआ है. लेकिन, पत्र बताता है कि अतीत में राजनीतिज्ञों ने जो किया है उसे कमतर नहीं आंका जाना चाहिए.
चुप्पी तोड़ने का, बोलने का वक्त
पी चिदंबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में जर्मन धर्मशास्त्री मार्टिन नीमोलर की बहुचर्चित कविता के अंश उद्धृत करते हुए साफ किया है कि जब हम दूसरों की जान जाती देखते रहेंगे, तो जब हमारी जान जाएगी तो उस वक्त भी सब देखते ही रहेंगे.
क्रिसमस के दौरान हरियाणा में घटी घटनाएं हों या यूपी के आगरा या असम के कछार जिले की घटनाएं- सबका मकसद नफरत फैलाना था. “मिशनरियों को मार डालो” जैसे नारे लगाए गये. मुसलमानो के बाद अब ईसाइयों को भी नफरती भाषणों का शिकार बनाया जा रहा है. छह महीने पहले दिल्ली में ‘सुल्ली डील्स’ नाम से ऐप आया था और कुछ दिन पहले दूसरा ऐप ‘बुल्ली बाई’ आ गया. इसमें नीलामी के लिए मुस्लिम महिलाओं के फोटो डाल दिए गये.
लेखक पी चिदंबरम एक लेख के हवाले से लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के एजेंडे को पुनर्परिभाषित किया है. कोरोना आपदा, किसानों के आंदोलन और बढ़ते आर्थिक संकट ने मोदी को हिन्दुत्व के भीतर अपने को एकछत्र नेता बनाने के लिए मजबूर कर दिया है.
ऐसा संदेश दिया जा रहा है कि विकास और हिन्दुत्व अलग-अलग नहीं हैं. यह संदेश देने के लिए अब चरमपंथी गैर हिंदू धर्मों और उन्हें मानने वालों को विकास का दुश्मन साबित करने की कोशिश की जा रही है.
हरिद्वार में मुसलमानों के कत्लेआम की खुली घोषणा हुई. इन घटनाओं पर प्रधानमंत्री की ओर से निंदा का एक शब्द अभी तक नहीं आया है. ऐसे में भविष्य के लिए तैयार रहिए. कट्टरता और बढ़ेगी. और इसलिए खुल कर बोलिए वरना आपके लिए बोलने वाला कोई नहीं बचेगा.
नेतागण देश को राजनीति से ऊपर रखें
तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि पंजाब में प्रधानमंत्री के काफिले के सामने कुछ झंडे उठाए लोग प्रधानमंत्री की गाड़ी के बिल्कुल पास खड़े हुए दिखाई दिए. किसने उन्हें इतना करीब आने दिया? किस की गलती थी कि ऐसा हुआ? इतनी देर तक क्यों ऐसी जगह पर रुका रहा प्रधानमंत्री का काफिला, जहां प्रधानमंत्री की जान को खतरा था?
ऐसे सवालों को पूछने का समय नहीं था क्योंकि घटना के बाद जहरीली, शर्मिंदा करने वाली बहस शुरु हो गयी. शुरुआत प्रधानमंत्री की पंजाब सरकार पर ताना कसने के साथ हुई, “अपने मुख्यमंत्री को थैंक्स कहना कि मैं बठिंडा जिंदा पहुंच गया हूं”. जवाब में कांग्रेस के नेताओं के शर्मनाक ट्वीट भी आए.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि बीजेपी के नेता राजनीतिक बयानबाजी करते तो बात अलग थी. केंद्रीय मंत्रियों ने मोदी के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए पंजाब सरकार पर साजिश रचने के आरोप लगाने शुरू कर दिए. बगैर सबूत के केंद्रीय मंत्री ऐसे बयान कैसे दे सकते हैं?
लेखिका को गृहमंत्री का बयान और चौंकाने वाला लगा जब उन्होंने जवाबदेही पंजाब सरकार पर डाल दी. लेखिका पूछती हैं कि क्या गृहमंत्री नहीं जानते कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी एसपीजी की होती है जो केंद्र सरकार के तहत काम कराती है?
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यह एसपीजी बनी थी. एसपीजी की इजाजत के बगैर यह भी तय नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री अगर सड़क के रास्ते कहीं जा रहे हैं तो वह रास्ता कौन-सा होगा. लेखिका ने देश के राजनेताओं से देश को राजनीति से ऊपर रखने की अपील की है.
विकल्प नहीं, आवश्यकता है बोलना
द टेलीग्राफ में संकर्षण ठाकुर लिखते हैं 'चुनना' (चयन करना) बुरी चीज नहीं हो सकती. बल्कि 'चुनने की आजादी है' तो जीवन की बेहतरीन चीजों में एक है. यह आपके लिए है, आपके खिलाफ नहीं है. अगर आप खुद के लिए नहीं चुनते हैं, कोई और ऐसा करेगा, कुछ और करेगा. ऐसे समझें कि अगर आप आग लगने पर घर से बाहर नहीं निकलते तो धधकता घर आपको विकल्प देगा. और तब आप विकल्प चुनने के लिए नहीं होंगे. केवल विकल्प होना काफी नहीं है. जब विकल्प हो तो उसे चुनना होगा.
लेखक संकर्षण ठाकुर एप पर मां-बहन बेचे जाने की घटना का जिक्र नये अंदाज में करते हैं. लिखते हैं कि एक सुबह आप उठते हैं. पाते हैं कि आपकी मां या बहन या पत्नी बेच दी गयी हैं और सुबह बुरी हो जाती है. अच्छी खबर या बुरी खबर इससे तय होता है कि आप किस तरह से खबर को देखते हैं. ‘कुछ नहीं हुआ’ के दूसरी ओर ऐसी चीजें होती हैं कि कुछ हुआ.
कई पक्ष हैं, परिभाषित. काले पक्ष और श्वेत पक्ष और कोई भूरा पक्ष नहीं. यह तय करता है कि आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ हैं. मैं नहीं चाहता कि मुझे बताया जाए कि मेरी मां बेच दी गयी है. कुछ इस तरह जैसे कोई चीज बेच दी गयी या खरीद ली गयी हो. ‘कुछ नहीं हुआ’ वाले दौर के बाद मेरा जन्म ना हो, इसके लिए मैं भी अपनी पसंद का गर्भ चुन सकूं.
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