7 साल शासन के बाद गरीबी, बीमारी और मौत
पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि एनडीए शासन के 7 साल बाद जो कुछ देखने को मिल रहा है, वह है गरीबी, बीमारी और मौत. इससे जूझने की बजाय सरकार देश का ध्यान भटकाने में लगी है. लेखक का मानना है कि देश के 26 करोड़ परिवार की थालियों में सबसे पहले चाहिए भोजन, फिर सुरक्षा, रोजगार, आय, घर, स्वास्थ्य और बच्चों के लिए शिक्षा व दूसरी चीजें. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के अधूरे सर्वे से पता चलता है कि 22 में से 18 राज्यों में बच्चों में खून की कमी, 13 राज्यों में बौनापन और 12 राज्यों में टीबी के मामले बढ़े हैं.
लेखक बताते हैं कि एनडीए-2 के शुरुआत से ही जीडीपी, जीडीपी दर और प्रतिव्यक्ति मे गिरावट आयी है. बेरोजगारी और महंगाई बढ़ी है. लैंगिक असमानता की खाई भी चौड़ी हुई है. महामारी ने हालात बदतर बना दिया है, लेकिन अर्थव्यवस्था में गिरावट का दौर पहले से ही शुरू हो चुका था.
चिदंबरम सवाल उठाते हैं कि जब प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि वे 2020 में कोविड के खिलाफ जंग जीत गए हैं, तो अब पूर्णबंदी अपरिहार्य क्यों बना दी गई है. लेखक को इस बात पर आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री हर दूसरे दिन चुनाव रैलियों के लिए निकल जाते हैं और मुख्यमंत्रियों को जरूरी बात के लिए फोन पर भी उपलब्ध नहीं होते. वैक्सीन, ऑक्सीजन सिलेंड, अस्पताल में बेड, रेमेडिसिविर की कमी नहीं होने की घोषणा के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जरूरत के वक्त गायब हो जाते हैं.
वहीं, मंत्री विदेश से टीकों के आयात के सुझाव का मजाक भी उड़ाते हैं और जब सरकार वही फैसला करती है तो क्षमा तक नहीं मांगते. यहां तक कि कोविशील्ड टीके के उत्पादन के लिए 3000 रुपये की मदद की मांग पर भी चुप्पी साध ली जाती है. ऐसी अन्य परिस्थितियों का जिक्र करते हुए लेखक कहते हैं कि 2019 में जो वोट वर्तमान सरकार को मिला था अब वे उसके हकदार नहीं रह गए हैं.
खुद पहले, देश बाद में
रामचंद्र गुहा द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि उन्होंने बीते वर्ष अप्रैल के महीने में ही आगाह किया था कि भारत विभाजन के समय जो त्रासदी और चुनौतियां थीं, वैसी ही मुश्किल परिस्थिति यह महामारी भी है. इससे निपटने के लिए तय खांचे से बाहर निकलना होगा और विरोधी विचारों को जगह देनी होगी. लेखक सुझाव देते हैं कि प्रधानमंत्री अपने पूर्व वित्तमंत्रियों से बात कर सकते हैं, जिनके पास संकट प्रबंधन का अनुभव है. पूर्व वित्त सचिवों और राज्यपालों से भी सलाह ली जा सकती है. स्कॉलर से भी संपर्क साधा जा सकता है. एड्स, स्वाइन फ्लू, पोलियो जैसी बीमारियों से लड़ने के अनुभव का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
गुहा लिखते हैं कि प्रधानमंत्री ने ‘हार्ड वर्क, नॉट हॉवर्ड’ के विचार का जिक्र कर अपना रुख दिखाया. देश के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी स्टेडियम रखते हुए वे मुसोलनी, हिटलर, स्टालिन, गद्दाफी और सद्दाम की कतार में आ खड़े हुए.
इन लोगों ने जीते-जी अपने नाम पर स्टेडियम बनाए थे. लेखक ने महामारी के दौर में कर्नाटक सरकार की ओर से प्रधानमंत्री की खिलखिलाती तस्वीर के साथ मेट्रो फेज टू की सौगात देने पर बधाई वाले विज्ञापनों को भी हास्यास्पद बताया है, जिसका मकसद कर्नाटक में महामारी के कुप्रबंधन से ध्यान हटाना और चमचागिरी है.
लेखक का मानना है कि 1960 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने सी राजगोपालाचारी को, तो शीत युद्ध के दौर में इंदिरा गांधी ने जय प्रकाश नारायण को दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व करने को भेजा था. पीवी नरसिंहाराव ने भी अटल बिहारी वाजपेयी को यूएन भेजकर ऐसा ही कदम उठाया था. लेखक ने संकट की घड़ी में राष्ट्रीय सरकार की सोच की भी वकालत की.
लेखक ने ध्यान दिलाया है कि इन उदाहरणों से उलट महामारी के पूरे दौर में केंद्रीय गृहमंत्री का ध्यान बंगाल में सरकार बनाने और महाराष्ट्र में सरकार गिराने की कोशिशों पर टिका रहा. पीएम मोदी भीड़ देखकर खुश होते नजर आए.
लेखक का कहना है कि महामारी की दूसरी वेव टूटती अर्थव्यवस्था और बिगड़ते सामाजिक तानाबाना के बीच आया है. इसलिए यह और भी अधिक खतरनाक है.
मोदी सरकार के लिए नया मंत्र क्यों है टैक्स और खर्च
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि 1982 में पूंजीवादी देश अमेरिका में सामाजिक सुरक्षा, टैक्स, श्रम और औद्योगिक विकास के क्षेत्र में आश्चर्यजनक रूप से समाज में समानता थी. अफ्रीकी अमेरिकियों को छोड़कर बाकी लोगों के लिए मकान, भोजन, कपड़े, स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती थीं. आज अगर किसी मध्यमवर्गीय परिवार के लिए मकान की कीमत उसकी 6.25 साल की आमदनी के बराबर है, तो यही तब 4.5 साल की आमदनी के बराबर थी. सीईओ की आय तब आम लोगों के मुकाबले 30:1 थी, जो अब 300:1 हो चुकी है. स्वास्थ्य सेवाएं सस्ती थीं और जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी दो तिहाई थी.
नाइनन लिखते हैं कि दूसरी अहम बात यह है कि 1982 में अमेरिकी उम्मीद खो रहे थे. नौकरियां छूट रही थीं, मध्यवर्ग खोखला हो रहा था और यहां तक कि कॉरपोरेट जगत का फायदा कम हो रहा था. 2008 के आर्थिक संकट के बाद ही वित्तीय नवाचार शुरू हो सका. 1989 में रीगन-थैचर ने जो आर्थिक बदलाव 1989 में किए थे, यह वही दुनिया थी.
नाइनन लिखते हैं कि भारत में ‘टैक्स और खर्च’ नया मंत्र बन चुका है. मुक्त व्यापार समझौतों के प्रति संकोच दिखाते रहे भारत में मोदी सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत की. बचतकर्ताओं को कम ब्याज देकर निचोड़ लिया गया. सरकार ने इनकम टैक्स बढ़ाते-बढ़ाते 42.74 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचा दिया है, जो चिदंबरम के समय 30 प्रतिशत हुआ करता था. अब वेल्थ टैक्स की चर्चा भी खत्म हो चुकी है.
कॉरपोरेट टैक्स से आमदनी बीते पांच वर्ष की तरह जस की तस है. सरकार इसे और घटा सकती है. ऊंची दर पर केंद्रीय बैंक नकद उड़ेल रही है, ब्याज दर घटा रही है और लोक कल्याण से बच रही है. यह रीगन-थैचर युग के समान है. यह निश्चित है कि टैक्स 70-90 प्रतिशत के दौर में नहीं जाएगा और सरकार बाजार पर निर्भर करेगी.
आधारभूत संरचना और अनुसंधान पर वित्तीय खर्च की ओर सरकार सोचेगी. यहां तक कि मूल्य नियंत्रण युग भी लौट सकता है जो वैक्सीन में दिख रहा है.
वैक्सीन ऑर्डर करने में पीछे क्यों रह गया भारत?
करन थापर ने हिंदुस्तान टाइम्स में वैक्सीन रणनीति को लेकर यह बात रखी है कि जब बीते वर्ष फाइजर, मॉडर्ना और एस्ट्राजेनेका दो डोज वैक्सीन पर काम कर रहे थे, तब हम जानते थे कि हमें भी 75 फीसदी आबादी को वैक्सीन देना जरूरी होगा. मतलब ये कि हमें दो अरब डोज की आवश्यकता रहेगी. फिर इस जरूरत को ध्यान में रखकर हमने उत्पादन क्षमता को बढ़ाने का प्रयास क्यों नहीं किया? सरकार ने सीरम इंस्टीट्यूट और बायोटक को क्लीनिकल ट्रायल के लिए महज 10 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए. आज स्थिति यह है कि सरकार हर दिन 50 लाख लोगों को वैक्सीन देना चाहती है, लेकिन वास्तव में वह 25 लाख लोगों को ही दे पा रही है.
करन थापर कहते हैं कि सीरम इंस्टीच्यूट ने अपनी रकम लगाकर इस उम्मीद में जोखिम उठाया कि उसे सफलता मिलेगी. अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों ने उसे अग्रिम भुगतान तब किया जब इस वैक्सीन को न मान्यता मिली थी, न लाइसेंस जारी किया गया था. भारत खामोश क्यों रहा?
भारत ने बजट में 35 हजार करोड़ रुपये वैक्सीन के लिए रखे. इसका इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ? अगर सीरम इंस्टीट्यूट को पहले के ऑर्डर दिए जाते, तो वह अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाता और आत्मनिर्भर भारत को गति मिलती.
करन तीसरा सवाल पूछते हैं कि सीरम इंस्टीट्यूट के साथ सरकार ने 10 करोड़ डोज का समझौता 200 रुपये की दर से किया था, लेकिन ऑर्डर केवल 1.1 करोड़ का क्यों दिया गया? बाद में 1 या दो करोड़ का अतिरिक्त ऑर्डर दिया गया. वैक्सीन के उत्पादक को प्रोत्साहित करने वाली नीति क्यों नहीं अख्तियार की गई? लेखक का चौथा और आखिरी सवाल होता है कि सीरम इंस्टीट्यूट ने 3000 करोड़ रुपये की मदद मांगी तो उस पर प्रतिक्रिया देने में इतना वक्त क्यों लग रहा है?
महामारी में क्यों लगी कुंभ में लाखों डुबकियां?
चेतन भगत द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि भारत में महामारी से निपटने में छद्म विज्ञान ही बाधा बन गई. वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक सोच रखने वाले हिंदू और दूसरे धर्म के लोगों की चर्चा करते हुए लेखक ने लिखा है, “दरअसल, हमने यह समझने में देरी की कि वायरस कितना खतरनाक है और कितना खतरनाक साबित हो सकता है. कोरोना के दूसरे वेव की चर्चा करते हुए चेतन भगत लिखते हैं कि फरवरी से ही मामले बढ़ने लगे थे लेकिन इसके बावजूद हमने अप्रैल में आकर इसकी गंभीरता को समझना शुरू किया. दुनिया हंस रही है क्योंकि हम इस दौरान कुंभ में लाखों की तादाद में स्नान करते रहे.
चेतन भगत लिखतें हैं कि हमने बीते साल तबलीगी जमात पर ठीकरा तो फोड़ा, लेकिन इससे कोई सबक नहीं लिया. हम विज्ञान को समझने का ढोंग करते रहे. हमारी अर्थव्यवस्था, परंपरागत औषधि, शिक्षा सबमें इस समस्या का समाधान था.
वेद में हजारों साल पहले वो सबकुछ कहा गया जो लोग आज कह रहे हैं. मगर, यह सब बस कहने भर को रह गया था. इतना कह देने या मान लेने से कोई विज्ञान को समझने वाला नहीं हो जाता. अगर हम विज्ञान को समझ रहे होते तो क्या महामारी में लाखों की संख्या में डुबकी लगाते?
ना हो अंदरूनी सियासत का अंतरराष्ट्रीयकरण
एन साहित्य मूर्ति द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि अंदरूनी राजनीति का अंतरराष्ट्रीयकरण और विदेशी नीतियों का देशीकरण दोनों ही भारत के लिए खतरनाक है. पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बांग्लादेश की भावना को ठेस पहुंचाई थी, जब उन्होंने कहा था कि बांग्लादेश से आने वाले लोग गरीब हैं, जिन्हें वहां भरपेट खाने को नहीं मिलता. जवाब में बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने कहा था कि भारतीय गृहमंत्री के पास ‘सीमित जानकारी’ है.
सीएए आंदोलन के दौरान मोमेन ने अपना आधिकारिक दौरा भी रद्द कर दिया था. हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बांग्लादेश दौरा हुआ है और उन्होंने बांग्लादेश की मुक्ति के गोल्डन जुबली समारोह में शिरकत की है.
एन साहित्य मूर्ति लिखते हैं कि केवल श्रीलंका ही ऐसा देश है जहां अंदरूनी सियासत में भारत की राजनीति देखने को नहीं मिलती. नेपाल और भूटान में लोकतंत्र को अपनाने के बाद भारत के साथ रिश्तों में तल्खी देखने को मिली है. भारत की ओर से अघोषित रूप से नेपाल की दो बार नाकाबंदी, भूटान को पेट्रोलियम उत्पाद की आपूर्ति में कमी जैसी घटनाएं भी देखने को मिली हैं. मालदीव के चुनावों मे भी भारत मुद्दा बना है.
वहीं, पाकिस्तान में उसके जन्म के समय से ही भारत मुद्दा बना रहा है. भारत के लिए अच्छा यही है कि वह अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों की रीपैकेजिंग करे. यह भारत के लिए अच्छा है कि पड़ोसी देश अतीत में भारत से अपने संबंध के गौरव को याद करते हैं. आंतरिक राजनीति को देश से बाहर ले जाने या देश से बाहर की राजनीति को देश के भीतर आने देने से किसी का भला नहीं हो सकता.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)