महिलाओं के लिए अहम है प्रिया रमानी केस
द टाइम्स ऑफ इंडिया में मीना बघेल लिखती हैं कि पश्चिम में भी महिलाओं को इतनी आजादी नहीं है कि वह अपनी आवाज बुलंद कर सकें. मैरी बीयर्ड के रखे गए उदाहरणों के हवाले से लेखिका बताती हैं कि होमर रचित ओडिसी में ऑडिस्सियस का पुत्र अपनी मां से जुबान बंद रखने को कहता है. अभिव्यक्ति को पुरुष का अधिकार बताकर पेश किया जाता रहा है.
पौराणिक उदाहरणों से लेखिका का कहना है कि पति के संदेह किए जाने के बाद सीता के पास भी उसे स्वीकारने के सिवा कोई विकल्प नहीं था. द्रौपदी रोती रह गयी. स्त्री को कैसे बोलना है, कब बोलना है और कब चुप रहना है, यह महिलाओं का अधिकार होकर भी कभी उनका नहीं रहा.
मीना बघेल लिखती हैं कि #MeToo अभियान यौन उत्पीड़न तक केंद्रित रहा. इसने महिलाओं को सार्वजनिक रूप से आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया. एमजे अकबर-प्रिया रमानी केस में आया फैसला सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज को मजबूत करता है और यह लिंगभेद को भी नकारता है. फैसले में सीता और द्रौपदी का भी जिक्र है, मगर अधिक महत्वपूर्ण है कि यह अनुच्छेद 21 की प्रतिष्ठा बढ़ाता है.
शाहीन बाग की दादियां, पिंजरा तोड़ की महिलाएं समेत ताजा मामलों में दिशा रवि, नौदीप कौर शामिल हैं, जिनमें महिलाएं न्याय मांग रही हैं. लेखका को याद नहीं आता कि कब ऐसी सुर्खियां इससे पहले बनी थीं जो प्रिया रमानी को लेकर बनी है. आमतौर पर नकारात्मक सुर्खियां ही महिलाएं बटोरती रही हैं. इस मामले में अहम बात यह है कि मानहानि का दावा कर रहा व्यक्ति पुलिस जवानों से घिरा हुआ शब्दविहीन नजर आ रहा था.
वित्त मंत्री के आंकड़ों पर कुछ सवाल
द इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम ने वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से सवाल पूछते हुए आलेख लिखा है. उनका कहना है कि जब 2020-21 में कर राजस्व 1 फीसदी घटा है तो यह 2021-22 में 14.9 फीसदी बढ़ जाएगा, इसका आधार क्या है? विनिवेश से 1.75 लाख करोड़ रुपये की आय पर भी वे सवाल उठाते हैं. कुल खर्च के संशोधित अनुमान में एफसीआई को कर्ज के तौर पर दिए गए 2.65 लाख करोड़ रुपये का पुनर्भुगतान शामिल है या नहीं, यह सवाल भी वे पूछते हैं.
रक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में वृद्धि नहीं कर कुल खर्च में कमी का आरोप भी लेखक वित्त मंत्री पर लगाते हैं. 10 सवालों में चिदंबरम यह भी आरोप लगाते हैं कि सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने का लक्ष्य छोड़ दिया है.
चिदंबरम बताते हैं कि जब नरेंद्र मोदी की सरकार आयी थी, तब देश की जीडीपी स्थिर मूल्य पर 105 लाख करोड़ की थी. पिछले 10 साल के मुकाबले यह तिगुनी थी. मगर, आज यह 130 लाख करोड़ के स्तर पर है और यह 2017-18 के स्तर पर आ चुकी है.
इस तरह देश की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है और देश को मोदी सरकार की गलत नीतियों की कीमत चुकानी पड़ रही है.
आर्थिक मोर्चे पर स्वभाव बदल रही है मोदी सरकार
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने जो आर्थिक नीतियां अख्तियार की हैं वह सफल होंगी या नहीं, इसे समझने की जरूरत है. इसने सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों के साथ-साथ विद्युत वितरण जैसे क्षेत्रों को भी निजीकरण में शामिल किया है जहां उपभोक्ताओं के पास सप्लायर चुनने का विकल्प होगा. वेल्थ क्रिएटर की तारीफ, टैक्स कानूनों को हल्का करने के रुख में बदलाव आया है. कारोबार हितैषी वातावरण और संदिग्ध सरकारी हस्तक्षेप कम करने से लोगों को आश्चर्य जरूर हुआ है, लेकिन इसके लिए आधार पहले से तय कर लिए गए थे.
नए लेबर कोड, कृषि बाजार को खोलने का प्रस्ताव, खनन और रेल ट्रांसपोर्ट में निजी क्षेत्रों का प्रवेश और मैन्युफैक्चरिंग को प्रोत्साहन जैसे कदम उठाए गए हैं. सात साल बाद अब मोदी कह रहे हैं कि सरकार का काम कारोबार में पड़ना नहीं है.
नाइनन बताते हैं कि बीते समय में असफलताओं से सरकार को धक्का लगा है. जीएसटी उम्मीद के हिसाब से सफल नहीं रहा. सरकार के बास अब उधार लेने, कंपनियां बेचने और सरकारी संपत्ति से पैसा कमाने के अलावा विकल्प ही क्या है? बैंकिंग और मेक इन इंडिया से जुड़ी नीतियां भी सफल नहीं रहीं. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ‘जो होता है होने दो’ की नीति पर चल पड़ी है जो मोदी सरकार का स्वभाव नहीं है.
मोदी सरकार को सोचना पड़ेगा कि स्वायत्तता के बिना बाजार आधारित अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ा करती. लेखक बताते हैं कि दक्षिणपंथी राजनीति और अर्थनीति में कोई द्वंद्व नहीं होता. वे तुर्की, हंगरी और रूस का उदाहरण भी रखते हैं और चीन का भी. हर जगह नतीजे अलग-अलग हैं. भारत के मुकाबले योजनाओं को लागू करने में चीन बेहतर रहा है. लेखक चिंता जताते हैं कि किसानों के प्रदर्शन के कारण कई महीनों तक पूंजीनिवेश पर असर पडेगा.
संभव है बिग टेक जायंट बनाम क्वॉड
द इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि सरकार जल्द इंटरनेट संबंधी तकनीकी कंपनियों के लिए नियामक लेकर आने वाली है. ऐसे में जबकि ऑस्ट्रेलिया से अमेरिका तक बड़ी तकनीकी ताकतों को शर्तों से जोड़ने में जुटी हैं, वैश्विक और स्थानीय संदर्भ में नियामक की सियासत को समझना भी जरूरी है. इंटरनेट तकनीक की दुनिया में कैलिफोर्निया के स्वतंत्रतावाद या चीन के अधिकारवाद में किसकी जीत होने वाली है, इस पर भी नजर है. कैलिफोर्निया मॉडल एक हद तक सफलता हासिल करने के बाद अब आंतरिक मतभेदों का शिकार हो रहा है.
भानु प्रताप मेहता लिखते हैं कि बड़ी तकनीकी कंपनियां न महज प्लेटफॉर्म रह गई हैं और न ही स्वतंत्र रूप से वैश्विक स्पर्धा का माहौल है. एकाधिकार की ताकत बढ़ रही है, जबकि जिम्मेदारी तय नहीं हो पा रही है. ये बड़ी कंपनियां आर्थिक प्रभाव तो बहुत रखती हैं, लेकिन इसका असर बहुत मिश्रित है.
नए उद्यमी आ रहे हैं लेकिन कई कारोबार बर्बाद भी हो रहे हैं. ये कंपनियां खुद को स्वायत्त सत्ता के तौर पर स्थापित कर रही हैं और अब अभिमान दिखा रही हैं. ऑस्ट्रेलिया को फेसबुक का जवाब अभिमान ही है. कैलिफोर्नियाई स्वतंत्रतावाद की सामाजिक स्वीकार्यता का मूल कारण लोकतांत्रिक सशक्तिकरण का नया युग था. मगर, लोकतंत्र के ध्रुवीकरण होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता घातक होने लगी. दुनिया के तमाम लोकतंत्र सदमे में हैं. ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने नरेंद्र मोदी से फेसबुक मुद्दे पर बात की है.
ऐसा लगता है कि क्वॉड यानी चतुर्भुजी ताकत (अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया) चीनी अधिनायकवाद और कैलिफॉर्नियाई स्वतंत्रतावाद के विरुद्ध गठबंधन बना सकती है.
मेहता बताते हैं कि पोलैंड मीडिया कंपनियों को ट्वीट सेंसर करने पर रोक का कानून बना रहा है. भारत में इस वैश्विक संदर्भ का दुरुपयोग हो सकता है. घरेलू एकाधिकारवादियों के साथ सरकार की युति बन सकती है. यह जरूरी है कि भारत सरकार चुनौतियों का सामना करने के लिए स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता और क्रोनी कैपिटलिज्म को उखाड़ फेंकने की दृढ़ता के साथ विज्ञान और तकनीक में निवेश करे.
संघीय व्यवस्था पर आंच हैं कृषि कानून
हिंदुस्तान टाइम्स में देवेश कपूर लिखते हैं कि कृषि कानून को लेकर पैदा हुई अड़चनें केंद्र सरकार की ओर से लगातार प्रांतीय विषयों में अतिक्रमण का नतीजा हैं. लेकिन, इससे कई दूसरी सच्चाइयां भी उजागर हुई हैं. कृषि, पानी, बिजली, भूमि, स्वास्थ्य और शिक्षा प्रांतीय विषय हैं. प्रांतीय सरकारों की इन क्षेत्रों में विफलता के कारण केंद्र को सक्रियता दिखाने का अवसर दिया है. प्रांतों में कानून व्यवस्था को नहीं संभाल पाने की स्थिति के कारण ही 1999 में संसदीय समिति ने महसूस किया था कि अर्धसैनिक बलों का उपयोग लगातार बढ़ा है. तीन दशक बाद भी स्थिति में बदलाव नहीं आया है.
देवेश कपूर लिखते हैं कि किसानों के पास भी अपनी आमदनी बढ़ाने के उपाय नहीं हैं. वे सब्सिडी, समर्थन मूल्य आदि पर निर्भर हैं. कृषि पर निर्भर आबादी को कृषि से निकालना ही उपाय है. किसानों की आय बढ़ने से अधिशेष आमदनी का इस्तेमाल बुनियादी संरचना में बदलाव के लिए किया जा सकता है.
कपूर किसान कानूनों की दिशा सही बताते हैं लेकिन इसे लागू करने को लेकर सहमति बनाए जाने की जरूरत भी महसूस करते हैं. लेखक का मानना है कि संघीय व्यवस्था का ख्याल रखा जाना चाहिए. वहीं, वे यह भी मानते हैं कि प्रांतों के भीतर कृषि बाजार को प्रभावित करने वाले कानून केंद्र सरकार को पारित नहीं करना चाहिए था. लेकिन यह एमएसपी और केंद्र सरकार की ओर से खरीददारी से भी जुड़ा है.
इस तरह यह प्रदेश और केंद्र दोनों सरकारों के दायरे में आने वाला विषय है. राइट टु फूड एक्ट का संबंध भी कृषि कानूनों से है. केंद्र सरकार को चाहिए कि वह राइट टू न्यूट्रिशन यानी पोषाहार के अधिकार से इस सोच को बदले. किसानों को अपनी उपज का लाभ अधिक से अधिक क्यों न मिले, अगर बुरी स्थितियों में इसका अंजाम उसे ही भुगतना होता है? लेकिन, यह रातों रात भी नहीं हो सकता.
काले दिन आने वाले हैं!
मार्कण्डेय काटजू ने नया दौर में लिखा है कि किसान आंदोलन के साथ अब कारोबारी भी आ गए हैं. कॉन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने 26 फरवरी को भारत बंद का आह्वान किया है. काटजू बताते हैं कि आर्थिक मंदी के बीच देश और विदेश का कॉरपोरेट जगत अपनी पूंजी लगाने की जगह तलाश रहा है. वर्तमान में भारत का कृषि बाजार उनके लिए सबसे मुफीद है. यहां भी बड़े कारोबारी छोटे कारोबारियों को निगल जाने को आमादा हैं. वे ऑनलाइन शॉपिंग का उदाहरण देते हैं जिसने छोटे कारोबारियों को नुकसान पहुंचाया है.
काटजू लिखते हैं कि नये कृषि कानूनों में किसानों को यह आजादी दी गई दिखती है कि वे जहां चाहें अपनी फसल बेच सकते हैं लेकिन वास्तव में इसकी संरचना कॉरपोरेट को कृषि क्षेत्र पर कब्जा करने देने की है. इसके बाद किसान उनकी दया पर निर्भर हो जाएंगे. न्यूनतम समर्थन मूल्य के अभाव में स्थिति और बदतर हो जाएगी.
लेखक बताते हैं कि आज किसान और कारोबारी दोनों समझदार हैं. उन्होंने समझ लिया है कि अभी वे संघर्ष नहीं करते हैं तो वे बड़े कॉरपोरेट का निवाला बन जा सकते हैं. लेखक आगाह करते हैं कि भारत में काले दिन आने वाले हैं.
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