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बोल - क्या कोई पार्टी या नेता आम लोगों से ज्‍यादा खास हो सकते हैं?

क्या मंच पर दिए जाने वाले लोकहितकारी भाषण सिर्फ ढोंगी रवैया है.

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दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में जब जनता देश का शासन चलाने के लिए किसी पार्टी या गठबंधन समूह को अपनी सरकार के तौर पर चुनती है, तो विशेष तौर पर मध्यम एवं निम्न वर्ग की बहुत अपेक्षाएं उसमें निहित होती है. अपनी सरकार की तरक्की के साथ यह तबका उम्मीद करता है कि उसका भी भला होगा. हर बार आमजन को आस रहती है कि यह सरकार अच्छी है. शायद उसकी मेहनत और मुराद को समझे. लेकिन उसी सरकार के मंत्री-संत्री जब देश में विशिष्ठजन बन जाते हैं, तो आमजन का तबका अपने को ठगा सा और कमजोर समझने लगता है.

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हाल ही में जब देश के केंद्र और 17 राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह राजस्थान के तीनदिवसीय प्रवास पर गए तो प्रदेश की राजधानी जयपुर पूरी तरह स्वागत के लिए सजा दिया गया. जगह-जगह अध्यक्ष महोदय के पोस्टर, बैनर, होर्डिंग्स, कट-आउट्स लगाए गए. ख़ास बात यह रही कि यह दौरा प्रदेश के विकास के विषय में कतई नहीं था. सत्ताधारी दल को प्रदेश में किस तरह और मज़बूत बनाया जाए इससे सम्बंधित चर्चाएं यहाँ आलिशान सभागारों और होटल में संपन्न हुई. प्रदेश की सरकार और पूरा मंत्रिमंडल राष्ट्रीय अध्यक्ष के महिमामंडन में लग गया.

यहां सवाल उठते हैं कि क्या इस तरह से जनता के टैक्स का दुरूपयोग नहीं हुआ? देशवासियों की पाई-पाई का सदुपयोग कर विकास की बात करने वाली पार्टी के पदाधिकारी यहाँ मौन क्यों रहे? क्या मंच पर दिए जाने वाले लोकहितकारी भाषण महज़ ढोंगी रवैया है?

छोटे से मंचों पर होने वाले सभा सम्बोधन आख़िर बड़े-बड़े होटलों की भव्यता में क्यों बदल गए? जनता से दूर होकर व्यक्ति विशेष की पूजा कर यह सरकार अपनी जनता में क्या सन्देश देना चाहती है? क्या कोई पार्टी या व्यक्ति देशवासियों से ज़्यादा विशिष्ठ हो सकते हैं? यदि हाँ तो संविधान में बराबरी की बात क्यों कही गई है?

जब भारत की नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में दावा कर दिया कि आपात परिस्थिति में देश के पास 10 दिन की लड़ाई झेलने के लिए गोला बारूद नहीं है, बावजूद इसके सरकार का यह लापरवाह रवैया चिंता का विषय है.

( द क्विंट को यह लेख जयपुर के कृष्ण जांगिड़ ने स्वतंत्रता दिवस कैंपेन के BOL – Love your Bhasha के लिए भेजा है.)

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