भारतीय मानस में ऐसा क्या है जो हमें एक राष्ट्र के रूप में अपने वादे पूरा करने में नाकाम बनाता है? हम जोखिम से इतना बचते क्यों हैं, हम औसत चीजों को भी बर्दाश्त क्यों कर लेते हैं और हम सब सामूहिक रूप से आत्मविश्वास की कमी से घिरे क्यों हैं? भारत के पास इतनी अधिक क्षमता है लेकिन ऐसा लगता है कि देश राजनीतिक इच्छाशक्ति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से जुड़ी भौगोलिक-आर्थिक ताकत जुटाने में नाकाम रहने की वजह से हमेशा ही किसी सोच को वास्तविक रूप देते-देते अटक जाता है. दांव पर अब तो काफी कुछ लगा है, पहले से कहीं ज्यादा और भारत के लिए यही सही मौका है.
लेकिन हमें सबसे पहले किसका रुख करना चाहिए- घर पर अपनी परेशानियों का या आतंकवाद, अत्याचार,जातीय संघर्ष, सामूहिक देशांतरन, गृह युद्ध और जलवायु परिवर्तन की अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का? सुपर सेंचुरी में राघव बहल ठोस और साफ शब्दों में बताते हैं कि हम जहां आज हैं वहां कैसे पहुंचे और साफ खाका पेश करते हैं कि आगे बढ़ने के अपने वादे को पूरा करने के लिए हमें, घर और दुनिया दोनों जगहों पर, क्या करने की जरूरत है.
भारत का आर्थिक पुनर्जागरण तभी शुरू हो सकता है जब हम ईमानदारी से एक सवाल का जवाब दें: भारतीय गरीब क्यों हैं? अगर हम समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्रों के आर्थिक इतिहास को देखें, तो हम पाते हैं कि उनमें तीन मूलभूत स्थितियां एक जैसी हैं: उन्होंने एक या अधिक संसाधनों (खेत, जमीन, श्रम, वित्तीय सेवाएं, व्यापार,प्रौद्योगिकी) से एक बड़ा 'सरप्लस' बनाया है; उन्होंने उस सरप्लस का निवेश बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य औरशिक्षा में किया है; और उनकी सरकारें अपने लोगों में इनोवेशन और एंटरप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देती हैं. कोई भी देश जो इन तीन ताकतों को काम में लाता है, वो गरीबी खत्म कर देगा और स्वस्थ और समृद्ध बन जाएगा. भारत उस स्थिति से काफी दूर है. सही पूछें तो, हम उन स्थितियों में से किसी को भी पूरा करने में नाकाम रहे हैं: हमारे पास अधिक 'सरप्लस' नहीं है (शायद, सर्विसेज इंडस्ट्री को छोड़कर); जो कुछ भी हमारे पास है, उसे भीरू, निकम्मे या बेईमानों ने शोषण के जरिए बर्बाद कर डाला है; और लाल फीताशाही की मदद से हमारे लोगों की प्रतिभा का गलाघोंटा जाता रहा है.
और उन नाकामियों का असली स्रोत क्या है? खुद सरकार. इन बीमारियों को ठीक करने के लिए, हमें पूरी तरह से इस बात पर पुनर्विचार करने की जरूरत है कि अर्थव्यवस्था को चलाने में राज्य को अपने आप को कैसे और कहां शामिल करना चाहिए. लेकिन इससे पहले कि हम नए पैमानों को तय करें, यह समझना बेहतर रहेगा किआखिर हमसे गलतियां कहां हुईं.
मिश्रित या अस्त-व्यस्त?
1950 और 1980 के बीच पैदा हुए भारतीय इस पर यकीन करते हुए बड़े हो रहे थे कि हमने ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ का आविष्कार किया है. हमें ऐसे सुनहरे किस्से सुनाए जाते थे कि कैसे ऊंचाई छू रहे भारतीय उद्योग-धंधे किसी सेठ जी- पूंजीवादी के हाथ में गिरवी नहीं थे बल्कि परोपकारी राज्य के नियंत्रण में थे.
हालांकि, हम में से ज्यादातर इस बात से अनजान हैं कि मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को पहली बार 1930 और 1940 के दशक में ब्रिटेन की लेबर पार्टी के विचारकों ने पेश किया था. युद्ध के बाद के वर्षों में पूरे यूरोप में जड़े जमाने वाले इस दर्शन को पूंजीवाद के एक रूप में परिभाषित किया गया था, जिसके तहत अधिकांश उद्योग-धंधे निजी हाथों में थे, सिवाय राज्य की तरफ से उपलब्ध कराई जाने वाली कुछेक सार्वजनिक उपयोगिताओं और आवश्यक सेवाओं के, और इनमें पर्यावरण संरक्षण, कार्यस्थल संरक्षण और कल्याणकारी सेवाएं शामिल थीं. दरअसल, ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ में मुख्य रूप से मुक्त बाजार प्रणाली की परिकल्पना की गई थी जो सरकारी नियम-कायदों के तहत चले और सभी के लिए स्वास्थ्य, सुरक्षा, निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करे.
लेकिन भारत में, शायद हमारे संस्थापकों के समाजवादी झुकाव के कारण, सरकार का प्रभुत्व और स्वामित्व ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की पहचान बन गए. वास्तव में, ये राज्य-प्रायोजित पूंजीवाद का एक रूप था जिसमें पैसे की बर्बादी थी, और जहां सरकार ने प्रमुख क्षेत्रों: परिवहन, बैंकिंग, दूरसंचार, होटल, इस्पात, कोयला, हथियार,स्वास्थ्य और विश्वविद्यालयों: में एकाधिकार रख लिया था. फिर भी विडंबना ये है कि कृषि जो भारत में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देती है- पूरी तरह से निजी हाथों में रही, बगैर किसी सुधार के और पुराने तौर-तरीकों में फंसी, साथ ही मिश्रित अर्थव्यवस्था की पहुंच से बहुत दूर. एक प्रबुद्ध कल्याणकारी राज्य के रूप में विकसित होने के बजाय, हम ऐसी अर्थव्यवस्था में फंस गए जो कहीं की ना रही, न तो अच्छी तरह से विनियमित मुक्त बाजार और न ही सोवियत-शैली की संपूर्ण नियंत्रण वाली संरचना. जाने-माने अर्थशास्त्री मानते हैं कि नीतियों की इसी अव्यवस्था ने हमारे देश को समाजवादी अर्थव्यवस्था में होने वाली धीमी बढ़ोतरी के साथ-साथ पूंजीवाद में होने वाली असमानता दोनों से ग्रसित किया है. संक्षेप में, इससे बुरी स्थिति नहीं हो सकती थी. इसलिए कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि 1991 में हमारा दिवालियापन अपरिहार्य था.
दुर्भाग्य से, हमने ‘अस्त-व्यस्त’ अर्थव्यवस्था को सही करने या इसके विरोधाभासों को दूर करने का मौका बर्बाद कर दिया, जो हमें 1991 के संकट ने दिया था. इसके बजाय, हमने उदारीकरण का रास्ता चुना. और मैं पूरी तरह मानता हूं कि व्यापार, उद्योग और निवेश के वो सुधार बेहद सकारात्मक थे - यहां तक कि परिवर्तनकारी भी थे- उन्होंने हमें अतीत की बेड़ियों से आजाद किया था और विकास की प्रेरणा को बढ़ावा दिया था, लेकिन ये वैसा क्रांतिकारी बदलाव नहीं था जैसा इसे बताया गया था. हम केवल पहले गियर से दूसरे गियर पर आ गए थे, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था की मोटर का ढांचा अब भी बंटा हुआ था, निजी उद्योग और सरकारी प्रभुत्व के बीच कांपता हुआ.
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