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संडे व्यू: सपा के ‘दंगल’, चुनाव में जाति-धर्म पर बेस्ट आर्टिकल

पढ़िए रविवार के बेहतरीन आर्टिकल एक ही जगह पर

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रिजर्व बैंक की स्वायत्तता दांव पर

पी चिदंबरम ने अमर उजाला में भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर गहराते संकट का जिक्र किया है. नोटबंदी को लेकर रिजर्व बैंक ने जिस तरह के फैसले किए, उससे उसकी भूमिका पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं. चिदंबरम लिखते हैं कि सरकार ने दावा किया कि नोटबंदी की घोषणा रिजर्व बैंक की सिफारिश पर की गई थी.

पीएम ने आठ नवंबर की घोषणा में रिजर्व बैंक की सिफारिश का कोई जिक्र नहीं किया था. इसके उलट सरकार और भाजपा के प्रवक्ताओं ने जोर देकर कहा कि वह पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के दिमाग की उपज है. यह विचार ऊपर से थोपा गया और रिजर्व बैंक ने उसे मिले अधिकार के साथ छल किया.

चिदंबरम लिखते हैं नोटबंदी के कारण हुई परेशानियों को लेकर आरबीआई बिल्कुल भी तैयार नहीं था. उनका कहना है कि हाल में गठित मौद्रिक नीति समिति को निर्णय लेने की प्रक्रिया से बिल्कुल अलग रखा गया.

चिदंबरम लिखते हैं, 31 दिसंबर के अपने भाषण में मोदी वहां तक चले गए जहां तक पहले कोई प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री नहीं गया. उन्होंने बैंकों को सीधे निर्देश दिया कि वे छोटे उद्योगों के लिए कर्ज की सीमा 20 फीसदी टर्नओवर से बढ़ कर 25 फीसदी टर्नओवर तक करें. उन्होंने बैंकों को वरिष्ठ नागरिकों को ज्यादा ब्याज देने को कहा.

बैंकों को कर्ज सस्ता कर्ज करने के लिए कुरेदा. एसबीआई ने ब्याज दर कम कर दी. पीएम की हर घोषणा ने रिजर्व बैंक की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई है. रिजर्व बैंक की देश के भीतर और बाहर दोनों जगह आलोचना हुई है.

मैं यह मानता हूं कि उसे वर्तमान सत्ता के संस्थागत नियंत्रण की कोशिशों का शिकार नहीं होना चाहिए. मैं यह मानता हूं कि रिजर्व बैंक को वर्षों से अर्जित की गई स्वायत्तता को यूं नहीं गंवाना चाहिए.

भक्ति में इतना अतिवाद ठीक नहीं

टाइम्स ऑफ इंडिया में चेतन भगत ने पीएम नरेंद्र मोदी के अंधभक्तों की प्रवृति पर चिंता व्यक्त की है. भगत लिखते हैं कि पिछले हफ्ते उन्होंने ट्वीटर पर लोगों से इस सवाल का जवाब मांगा कि क्या मोदी भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए देश में इमरजेंसी की घोषणा करते हैं तो वो उनका समर्थन करेंगे.

57 फीसदी लोगों का कहना था कि वे मोदी की ओर से थोपी गई इमरजेंसी का समर्थन करेंगे. यह चिंता की बात है. लगभग 10000 लोगों के बीच इस सर्वेक्षण से दो बातें उभर कर आती है कि मोदी के कोर समर्थकों के बीच उनकी अपील अब भी जबरदस्त है. दूसरी बात यह कि शायद ऐसे लोगों को यह पता नहीं है कि इमरजेंसी क्या होती है और लोकतंत्र को त्याग देने का क्या अर्थ होता है.

इससे यह भी जाहिर होता है कि लोगों के बीच मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और उनके बीच से पैदा नेताओं के प्रति विश्वास में कमी है. भले ही बड़ी तादाद में लोग मोदी के नोटबंदी का फैसला का समर्थन कर रहे हों लेकिन यह चीज परेशानी पैदा करने वाली है. चेतन लिखते हैं-मुझे संभ्रांत, झूठे उदारवादियों और आंख मूंद कर मोदी से नफरत करने वालों से को सहानुभूति नहीं है लेकिन अंधभक्ति से परहेज है.

अगर आप सचमुच राष्ट्रवादी हैं तो किसी भी व्यक्ति से पहले देश आपके लिए महत्वपूर्ण होना चाहिए. भले ही वह व्यक्ति आपका प्रिय नेता क्यों न हो. आप अपने नेता को जितना चाहे प्यार कर सकते हैं लेकिन भारत के बड़े मुश्किल से हासिल लोकतंत्र से ज्यादा नहीं.

यूपी का यादवी दंगल अखिलेश के लिए संजीवनी

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने यूपी में मुलायम सिंह यादव परिवार में छिड़े दंगल से अखिलेश यादव को फायदा पहुंचने की बात कही है. चाणक्य लिखते हैं- यह तो पता नहीं कि यादव परिवार के अंदर का यह झगड़ा लोगों को दिखाने के लिए है या असली है, लेकिन यह अखिलेश यादव को सबसे बड़ी बाधा पार करने में मदद कर सकता है.

अपने पिता और चाचा के खिलाफ खड़े होने और समाजवादी पार्टी की कमान अपने हाथ में लेने के बाद वह दशकों में यूपी के पहले ऐसे सीएम के तौर पर उभरे हैं जो बगैर सत्ता विरोधी लहर की चिंता किए चुनाव में उतर रहा है. भले ही वह पांच साल से सत्ता में हों लेकिन उनके जूझने और पलट कर वार करने का जज्बा उन्हें वोटरों के सामने एक नई छवि के साथ जाने के लिए प्रेरित करेगा.

सत्ता की बुराइयां जैसी मूर्त और लोगों की अधूरी आकांक्षाएं और बराबरी की हसरत जैसी अमूर्त चीजें मुलायम और शिवपाल के खाते में जाएंगी. अखिलेश वोटरों के सामने यह दिखा सकते हैं कि वह काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें करने नहीं दिया जाता है. एक युवा नेता के तौर पर उनकी री-ब्रांडिंग और डेवलपमेंट आइकन की छवि उनके इस दावे को मजबूती देगी.

अगर चुनाव व्यक्तित्व पर आधारित होगा, जैसा कि हाल के वर्षों में ये हुए हैं तो अखिलेश फायदे की स्थिति में दिखते हैं. लेकिन इसके पहले उन्हें कुछ काम करने होंगे . मसलन- अगले कुछ दिनों में पार्टी सिंबल का मसला सुलझाना होगा और पिता और चाचा से झगड़ा सुलझाना होगा. तमाम कड़वाहट के बावजूद उन्हें वोटरों को यह दिखाना होगा कि मुलायम उनके पक्ष में हैं ताकि मुस्लिम और यादव वोट न बंटे.

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कुछ अच्छा भी हो रहा है

इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह लिखती हैं कि मैंने नए साल के अपने पहले कॉलम में चाहा था कि कोई निगेटिव बात नहीं लिखूंगी. लेकिन पीएम के भारत को डिजिटल बनाने की जोरजबरदस्ती के बीच भारत के सबसे डिजिटल शहर बेंगलुरू से मास मोलेस्टेशन की खबर आई तो कहने को क्या रह गया.

हालांकि सरकार के अधिकारियों का मानना है कि सबकुछ खराब ही नहीं हो रहा है. सरकार के अच्छे काम को बताने के लिए पिछले दिनों मुझसे एक सरकारी अधिकारी ने मुलाकात करनी चाही. उनका कहना था कि शौचालय बनाने का काम सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में है और स्वच्छता मिशन के तहत इसमें काफी अच्छा काम हुआ है. पीएम खुद इस काम को मॉनीटर करते हैं. यह अच्छी बात है. लेकिन जब मैंने इस अधिकारी से बनारस के अब भी बुरी तरह गंदे होने की बात कही तो उन्होंने कहा कि भारत के 100 तीर्थस्थलों को पूरी तरह स्वच्छ बनाने का एक बड़ा कार्यक्रम है. इस संदर्भ में अमृतसर का उदाहरण दिया गया,जहां पिछले कुछ दिनों से चले अभियान की वजह से जबरदस्त परिवर्तन हुआ है.

अगर इस तरह का मिशन सफल हो रहा है तो भारत की 80 फीसदी स्वास्थ्य समस्याएं खत्म हो जाएंगी. क्योंकि मैंने स्वच्छता मिशन कार्यक्रम शुरू होने से काफी पहले इस अहम बात की ओर ध्यान दिलाया था कि खुले में शौच से भारत में सबसे ज्यादा बाल मृत्यु दर है. यह खुशी की बात है कि देश में कुछ अच्छा काम भी हो रहा है.

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सिर्फ बेंगलुरु नहीं पूरी पुलिस व्यवस्था का सवाल

द हिंदू में सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन ने बेंगलुरु में मास मोलेस्टेशन की घटना के संदर्भ में पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी की है. पुलिस इस दुर्दांत घटना की शिकार महिलाओं को सुरक्षा देने में नाकाम रही. राघवन लिखते हैं – यह सिर्फ बेंगलुरु पुलिस का मामला नहीं है बल्कि पूरी पुलिस व्यवस्था पर टिप्पणी है.

फिर भी कर्नाटक पुलिस लगातार लचर दिखती रही है. पिछले साल कावेरी विवाद के दौरान हुए बवाल को भी यह पुलिस रोकने में नाकाम रही थी. यही हाल कोलकाता पुलिस का भी है. मेरा इरादा सिर्फ बेंगलुरु या कोलकाता पुलिस की अक्षमता की ओर इशारा करना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि पूरी देश की पुलिस बेंगलुरु पुलिस जैसी लापरवाही से सबक ले.

बेंगलुरु की घटना मुझे महिलाओं की रक्षा के काम में पुलिस की संवेदना को बढ़ाने के बेसिक सवाल की ओर खींचती है. महिलाओं के प्रति पुलिस में संवेदना बढ़ाने के नाम पर निर्भया मामले के बाद काफी बातें हुई थीं. यौन प्रताड़ना के खिलाफ कड़ा कानून भी बना . लेकिन इसका पुलिस के सुरक्षा प्रदान करने के काम की गुणवत्ता पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा, यह नहीं लगता.

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जाति एक सच्चाई है

एशियन एज में सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार ने जाति और धर्म के आधार पर वोटरों से अपील के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हाल के अहम फैसले की विवेचना की है. चूंकि सुप्रीम कोर्ट को इसके जरिये उस पुराने फैसले को रीविजिट करना था, जिसमें हिंदुत्व की व्याख्या की गई थी, इसलिए यह अहम है. हालांकि कोर्ट ने हिंदुत्व के पुरानी व्याख्या को रीविजिट नहीं किया लेकिन जो कहा वह काफी अहम है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई उम्मीदवार धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय के आधार पर वोटरों से वोट देने की अपील करता है तो यह भ्रष्ट आचरण माना जाएगा और उसकी उम्मीदवारी रद्द हो जाएगी. फैसले में कहा गया – चुनाव एक सेक्यूलर कवायद है.

संजय कुमार कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वह जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 में पहले से मौजूद है. लेकिन भारत जैसे एक साथ कई सांस्कृतिक धाराओं वाले देश में वोटर धार्मिक विश्वासों, अलग-अलग जातियों और भाषाओं से खुद को जोड़ कर देखते हैं. इसलिए राजनीतिक पार्टियां और उनके उम्मीदवार बगैर इनका हवाला देते हुए वोटरों से कैसे अपील करेंगे यह कल्पना करना मुश्किल है.

जाति हमारे सामाजिक जीवन की सच्चाई है और राजनीति हमारे समाज का प्रतिबिंब. ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि जब उम्मीदवार भेदभाव का मुद्दा उठाएंगे और अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रतिबद्धता जताएंगे तो जाति का जिक्र नहीं करेंगे. यहां सुप्रीम कोर्ट को उम्मीदवारों पर धर्म और जाति के नाम पर एक दूसरे पर हमले पर रोक लगाना चाहिए था लेकिन जाति और धर्म के आधार पर अपील करने की छूट देनी चाहिए थी.

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महिलाएं पीछे नहीं हटेंगी

शोभा डे ने नए साल के जश्न के दौरान महिलाओं के साथ हुई सामूहिक छेड़छाड़ की घटना को ठीक बताने वाले नेताओं पर टाइम्स अॉफ इंडिया अखबार में करारा वार किया है. उन्होंने नए साल के जश्न के दौरान तुर्की में हुए आतंकी हमले की तुलना बेंगलुरू की घटना से की है. उन्होंने कहा है कि इस आईटी शहर में महिलाओं से छेड़खानी की घटना भी एक सामूहिक हत्याकांड ही है. यहां महिलाओं की गरिमा का कत्ल हुआ है. अबु आजमी और कर्नाटक के गृह मंत्री को इस घटना पर उनकी निर्लज्ज टिप्पणी के लिए लताड़ते हुए शोभा लिखती हैं.

कोई भी चाहे वह महिला या पुरुष हो यह तय करने की हिम्मत कैसे कर सकता है कि महिलाएं क्या पहनें या क्या न पहनें. अबु आजमी जैसे लोग महिलाओं को तन ढकने की सलाह दे रहे हैं, मुझे लगता है कि उन्हें पहले अपने दिमाग की गंदगी साफ कर लेनी चाहिए.

कर्नाटक के गृह मंत्री को चुनौती देते हुए शोभा लिखती हैं – फर्ज कीजिये कि आपके परिवार की किसी महिला के साथ इस तरह की अभद्रता होती तो क्या आपका नजरिया ऐसा ही रहता . आपकी पुलिस छेड़खानी करने वालों का भुर्ता बना देती. शोभा कहती हैं- महिलाओं की सोच और भावनाएं सिर्फ उनकी हैं. उन्हें कोई छू नहीं सकता. यह मत सोचिए कि महिलाएं चुप रह जाएंगी. वह ऐसे लोगों को धकिया देंगी. उनके खिलाफ आवाज उठाएंगी लड़ेंगी और जीतेंगी. देखते रहिये.....

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