कल्पना कीजिए: कल एक पुलिस वाला आपके घर के दरवाजे पर आए. आपको बताए कि एक कॉफ्रेंस में आपने भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का एक प्लान बनाया था और इसके बाद आपको गिरफ्तार कर लिया जाए.
इस दावे को सच साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है. राज्य सिर्फ आपकी पढ़ी गई किताबों और आपके साथियों के आधार पर आपको अपराधी मानता है.
या... आपकी एक खास विचारधारा है. आप उस विचारधारा के हिसाब से काम नहीं करतीं/करते, फिर भी उस विचारधारा को सिर्फ मानना भर, एक अपराध है.
इस बीच आप कई सालों तक जेल में अपने दिन काटतीं/काटते हैं. न आपको बेल मिलती है, न ही मुकदमा शुरू होता है.
फिर, जब मुकदमा शुरू होता है तब तक आप कई साल जेल में बिता चुकी होती हैं/बिता चुका होते हैं. हो सकता है कि आपको बरी कर दिया जाए लेकिन क्या जेल में बिताए समय की भरपाई की जा सकती है? बिल्कुल भी नहीं.
क्या यह काल्पनिक दुनिया की कहानी है? नहीं.
गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA) एक निवारक निरोध कानून, जो सरकार को बिना मुकदमे के किसी शख्स को 'आतंकवादी' कहने की इजाजत देता है, बस यही करता है, लेकिन कानूनी जानकारों के मुताबिक यह संविधान का उल्लंघन है
और इतना ही नहीं- उनकी राय में कई दूसरे कानून भी हैं, जो आजीविका, संस्कृति और पहचान का अपराधीकरण करते हैं- और ये सभी कानून उस संविधान के निहित मूल्यों के खिलाफ हैं जिसका जश्न हम इस गणतंत्र दिवस को मनाने जा रहे हैं.
ये कानून कौन से हैं? वे असंवैधानिक कैसे हैं? आइए देखते हैं.
गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA)
“UAPA के अनुसार, अगर मेरे खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो मुझे जमानत से महरूम किया जा सकता है. लेकिन प्रथम दृष्टया मामला क्या है? यह सरकार गिराने की साजिश रचने का आरोप भी हो सकता है. लेकिन इसे सबूतों के साथ साबित किया जाना चाहिए, अगर ऐसा नहीं होगा तो यह सिर्फ झूठी कहानी होगी. UAPA यही करता है."सुप्रीम कोर्ट की वकील उज्जैनी चैटर्जी
कानून: गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA) एक निवारक निरोध कानून है जो सरकार को बिना मुकदमे के किसी शख्स को 'आतंकवादी' कहने की इजाजत देता है.
कानून आतंकवाद के दायरे को व्यापक बनाता है और इसमें ऐसे कामों को शामिल करता है जिनसे "खतरे की आशंका" है या "आतंक मचने की आशंका" है. इसका मतलब यह है कि वह काम किए बिना भी, आपको इस आधार पर कैद किया जा सकता है कि आपकी कोई खास विचारधारा है.
यह किसी भी संगठन को आतंकवादी संगठन मानकर उस पर प्रतिबंध भी लगा सकता है.
यह आरोपी पर बेगुनाही साबित करने का भार डालता है, और बेल नहीं, जेल को कायदा बनाता है.
जैसा कि उज्जैनी का कहना है: “आप सोचने को कैसे अपराध बना सकते हैं?”
द पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने इस सिलसिले में एक स्टडी की. इसमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि 2015 और 2020 के बीच UAPA के तहत की गई 3% से कम गिरफ्तारियों के परिणामस्वरूप सजा हुई.
इसके अलावा इस कानून के तहत बरी होने की दर काफी ऊंची है (97.2%) जिसकी वजह यह है कि UAPA के तहत आने वाले मुकदमो में मेरिट बहुत कम है, यानी मामले कानूनन बहुत कमजोर हैं. पीयूसीएल ने अपनी रिपोर्ट "UAPA: क्रिमिनलाइजिंग डिसेंट एंड स्टेट टेरर" नाम की इस रिपोर्ट में यह कहा है.
फिर भी UAPA के तहत आतंकवाद से संबंधित अपराधों के आरोपी व्यक्ति के लिए जमानत बहुत मुश्किल है. चूंकि इस कानून की धारा 43डी(5) के मुताबिक, अदालत ऐसे मामलों में अभियुक्तों को जमानत नहीं दे सकती है, अगर यह मानने के उचित आधार हैं कि उनके खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सही हैं.
एक्सपर्ट्स क्यों मानते हैं कि UAPA असंवैधानिक है?
यह इस कानूनी सिद्धांत के खिलाफ है कि जब तक कसूर साबित नहीं होता, तब तक कोई भी शख्स बेकसूर है.
यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है और मनमानी को बढ़ावा देता है. इस तरह यह संविधान के अनुच्छेद 21 और 14 के खिलाफ है.
यह 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और कानून के शासन' की मूलभूत संरचना के खिलाफ है.
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम
“यह कानून आपको वन संसाधनों का उपयोग करने के लिए अपराधी बनाता है. लेकिन वन संसाधनों का उपयोग कौन करता है? वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी. इसलिए इस कानून के तहत, अगर आप एक आदिवासी हैं, तो आप अपराधी हो जाएंगे."सुप्रीम कोर्ट की वकील दिशा वाडेकर
कानून: वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 और इसका 2022 वां संशोधन जंगलों में पौधों और जानवरों की प्रजातियों के संरक्षण के लिए है. तो 1972 और 2022, दोनों कानून कुछ जानवरों की प्रजातियों का शिकार करने या कुछ पौधों की कटाई, कुछ प्रजातियों के जानवरों को मारने पर रोक लगाते हैं.
1972 के कानून के तहत 2011-2020 के बीच वन विभाग ने जितने अपराधों को दर्ज किया, उनमें से लगभग 78% आरोपी, दलित समुदाय के थे, और उन्हें छोटे जीवों जैसे कि चूहे के शिकार के लिए जेल में डाला गया था. क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस एकाउंटेबिलिटी प्रॉजेक्ट (सीपीए) की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है. वर्मिन प्रजाति की एक फेहरिस्त 1972 के कानून की अनुसूची में दर्ज है. वर्मिन ऐसे छोटे जानवर होते हैं जो बीमारियां लाते हैं और भोजन बर्बाद करते हैं.
यह संविधान का उल्लंघन कैसे करता है?
दिशा ने द क्विंट को बताया-“शिकारी जनजातियां प्राचीन काल से ही अस्तित्व में हैं. वे कबूतर, मछली का शिकार करती हैं. एक्ट इसे अपराध बनाता है और संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची का उल्लंघन करने के लिए उन्हें सलाखों के पीछे डालता है,"
संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची आदिवासी समुदायों को विशेष भूमि अधिकार देती है क्योंकि उनकी आजीविका और पहचान उस भूमि से जुड़ी हुई है जिस पर वे रहते हैं.
अधिक स्थानीय नियंत्रण देने के लिए पांचवीं और छठी अनुसूचियां भूमि पर राज्य के नियंत्रण और निर्देशों को सीमित करती हैं.
जैसा कि सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के अंकित भाटिया, सौम्या झा और नमिता वाही ने अपने एक आर्टिकल में लिखा है:
“संविधान अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के भूमि अधिकारों के विशेष संरक्षण की गारंटी देता है क्योंकि भूमि न केवल आदिवासियों की आजीविका का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है, बल्कि यह उनकी सामुदायिक पहचान, इतिहास और संस्कृति का केंद्र भी है.”
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), 2019
"CAA के साथ, पहली बार एक कानून नागरिकता देने के लिए धर्म के आधार पर भेदभाव कर रहा है."सुप्रीम कोर्ट के वकील पारस नाथ सिंह
कानून: 2019 का CAA अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता का पात्र बनाने की कोशिश करता है. हालांकि, इन देशों के मुसलमानों को नागरिकता देने की बात नहीं करता.
यह संविधान का उल्लंघन कैसे है?
“यह स्पष्ट रूप से एक संवैधानिक लोकतांत्रिक विचार के खिलाफ है. कोई आपको यह नहीं कह सकता कि हम आपको शरणार्थी मानकर देश में आने देंगे, अगर आप इन खास धार्मिक समुदायों से संबंधित हैं, लेकिन अगर आप मुसलमान हैं तो आपका कतई स्वागत नहीं है.”
एक्सपर्ट्स का कहना है कि CAA निम्नलिखित का उल्लंघन है:
कानून के सामने, समानता के अधिकार का, जोकि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत अनिवार्य है.
धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत का, जोकि संविधान की मूलभूत संरचना का अंग है.
संविधान का 103वां संशोधन अधिनियम- EWS आरक्षण
“दलितों के लिए आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार था. हालांकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए आरक्षण न केवल आरक्षण के सिद्धांत के खिलाफ है बल्कि उत्पीड़क समुदाय को भी विशेषाधिकार देता है.”-सुप्रीम कोर्ट की वकील दिशा वाडेकर
कानून: संविधान के 103वें संशोधन अधिनियम में समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. हालांकि यह एससी/एसटी/ओबीसी समुदायों को इस आधार पर छोड़ देता है कि वे पहले ही "लाभों से लदे हुए" हैं.
यह संविधान का उल्लंघन कैसे करता है?
अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता के अधिकार का विरोधी है.
समानता की संहिता को उलट देता है जिसमें संविधान की मूलभूत संरचना के भेदभाव विरोधी और अपवर्जन विरोधी सिद्धांत शामिल हैं.
धर्म परिवर्तन विरोधी कानून
"ऐसे कानून बहुत से राज्यों में बनाए जा रहे हैं. इन्हें राज्य मशीनरी धर्म के आधार पर एक विशेष समुदाय के लोगों को सजा देने के लिए इस्तेमाल कर रही है."दिल्ली हाई कोर्ट के वकील हर्षित आनंद
कानून: हालांकि भारत में धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने वाला कोई केंद्रीय कानून नहीं है, लेकिन कई राज्य धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बना रहे हैं. इन कानूनों के तहत कथित तौर पर "बल या धोखाधड़ी के जरिए" किसी भी व्यक्ति को दूसरे धार्मिक विश्वास में परिवर्तित करने या परिवर्तित करने की कोशिश करना एक अपराध है.
अक्सर इसकी वजह से इंटरफेथ शादियां भी अपराध बन जाती हैं.
ये कानून संविधान का उल्लंघन कैसे है?
यह धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 25 के तहत) खिलाफ है जिसके तहत कोई भी आस्था चुनी जा सकती है और उसके दायरे में दुनिया के सामने उसे जाहिर करने या जाहिर न करने की स्वतंत्रता भी आती है.
ये कानून प्रत्यक्ष रूप से संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के विपरीत है.
एंटी बेगिंग कानून, या भीख मांगने के खिलाफ कानून
"यह कानून बेघर लोगों को अपराधी मानता है, क्या इसकी कल्पना की जा सकती है? बेघर होने और भीख मांगने, को समुदायों से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए कि वे लोग समाज के किन हिस्सों से आते हैं. यानी ये लोग किन समुदायों के होते हैं? दलित समुदायों के अलावा, खानाबदोश समुदाय, डीनोटिफाइड आदिवासी समुदाय (विमुक्त जनजातियां, जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान अपराधी जनजातियों के रूप में अधिसूचित किया गया था, और फिर 1952 में पुराने कानून को निरस्त करके उन्हें विमुक्त कर दिया गया), जो अपनी पारंपरिक आजीविका की प्रकृति से खानाबदोश हैं.”सुप्रीम कोर्ट की वकील दिशा वाडेकर
कानून: भारत में भीख और दरिद्रता पर कोई संघीय कानून नहीं है. हालांकि लगभग 20 राज्यों ने बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 को अपनाया है जिसमें भीख मांगने पर 'बेगर्स होम' में तीन से 10 साल तक की कैद की सजा भुगतनी पड़ती है.
दिशा ने द क्विंट से कहा कि इस कानून के तहत मदारी, सपेरे और दूसरे खानाबदोश समुदाय अपराधी बन जाते हैं, चूंकि वे अपनी संस्कृति के हिसाब से स्थायी बस्तियों में नहीं रहते हैं.
इस कानून का अध्याय एक कहता है कि किसी व्यक्ति, “जिसके पास अपनी जीविका का कोई दृश्य साधन नहीं है, और वह ऐसी स्थिति या तरीके से किसी सार्वजनिक स्थान पर भटकता है या रहता है, जिससे यह संभावना बनती है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति याचना या भीख हासिल कर रहा है, तो उसे” भिखारी माना जा सकता है.
अध्याय 2 अधिकारियों को यह अधिकार देता है कि वे "भिखारियों" को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकते हैं.
"अगर आपको इस कानून के तहत गिरफ्तार किया जाता है और फिर सड़क पर छोड़ दिया जाता है तो आपके पास गुजारा करने के लिए कोई रास्ता नहीं होता, और आप दोबारा ऐसा करने लगती/लगते हैं. और फिर सड़क पर होने के चलते, आपको अपराधी मान लिया जाता है. तो, यह चक्र चलता ही रहता है,” दिशा कहती हैं.
ये कानून संविधान का उल्लंघन कैसे है?
संविधान के अनुच्छेद 21 में आजीविका और गरिमा का अधिकार दिया गया है, और उसके साथ मेल नहीं खाता.
अनुच्छेद 14 के तहत कानून के सामने सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए. यह इस बात का उल्लंघन करता है.
नई श्रम संहिताएं यानी लेबर कोड
"कोई मुझसे जीवन का अधिकार नहीं छीन सकता है और कानूनी रूप से शोषण को मंजूरी नहीं दे सकता है."सुप्रीम कोर्ट की वकील उज्जैनी चटर्जी
कानून: भारतीय संसद ने 2019 और 2020 में चार श्रम संहिताएं पारित कीं. इन चार संहिताओं में मौजूदा 44 श्रम कानूनों को समाहित किया गया है. ये चार संहिताएं हैं: औद्योगिक संबंध संहिता 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020, व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियां संहिता, 2020 और वेतन संहिता 2019.
उज्जैनी के मुताबिक, अन्य तमाम मुद्दों के अलावा इन संहिताओं में काम के अधिकतम घंटों को 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे किया गया है. ये संहिताएं श्रमिकों के ट्रेड यूनियंस बनाने और अपने हक के लिए सामूहिक सौदेबाजी में हिस्से लेने के अधिकारों का भी खंडन करती हैं.
यह संविधान का उल्लंघन कैसे है?
यह संविधान की मूलभूत संरचना में पाए जाने वाले भेदभाव विरोधी तथा शोषण विरोधी सिद्धांतों का उल्लंघन करता है. इत्तेफाक से, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रम आंदोलनों के कारण यह नियम बना था कि रोजाना काम के अधिकतम घंटे 8 होंगे, और हमारे संविधान निर्माताओं ने यह नियम वहीं ले लिया था.
यह विरोध करने के अधिकार के खिलाफ है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 19 में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के तहत प्रदान किया गया है.
आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022
“बिल के मौजूदा प्रारूप के आधार पर, यह प्राइवेसी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा क्योंकि जस्टिस पुट्टास्वामी (प्राइवेसी के अधिकार) फैसले के तहत, पारित किए जाने वाले कानून से परे, व्यक्ति की प्राइवेसी में दखल आनुपातिक होनी चाहिए, और राज्य का एक खास उद्देश्य होना चाहिए. इसके अलावा इस दखल के साथ, पर्याप्त सुरक्षात्मक उपाय किए जाने चाहिए.”इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (आईएफएफ) के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर और वकील अपार गुप्ता
कानून: नया कानून, 1920 के औपनिवेशिक कानून, कैदियों की पहचान अधिनियम की जगह लेता है और अधिकारियों को आपराधिक मामलों में पहचान और जांच के मकसद से दोषियों और दूसरे व्यक्तियों की ‘मेज़रमेंट्स’ लेने का अधिकार देता है.
हर्षित कहते हैं कि ‘मेज़रमेंट्स’ में रेटिना स्कैन से लेकर बायोलॉजिकल सैंपल भी शामिल हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) इन विवरणों को 75 वर्षों तक सुरक्षित रख सकता है.
हर्षित आगे बताते हैं कि "यह एक्सेसिव डेलिगेशन, यानी अत्यधिक प्रत्यायोजन देता है, जहां वैधानिक निर्देश के बिना, मजिस्ट्रेट को बेलगाम शक्तियां दी गई हैं."
यह संविधान का उल्लंघन कैसे है?
यह अनुच्छेद 21 के तहत अनिवार्य शारीरिक अखंडता और प्राइवेसी के अधिकार का उल्लंघन करता है.
यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता के आदर्शों के खिलाफ है, जो संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है.
यह अनुच्छेद 14 के तहत कानून के तहत समान संरक्षण के अधिकार की गारंटी के खिलाफ है और मनमानेपन को बढ़ावा देता है.
(यह आर्टिकल क्विंट हिंदी के 'संविधान को जानिए' सीरिज का हिस्सा है. इस सीरिज को भारतीय गणतंत्र के 73 वर्ष पूरा होने के जश्न में पेश किया गया है. पूरी सीरिज को देखने के लिए यहां क्लिक करें.)
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